पण्डित दौलतराम गौड-
नवग्रह के नो कुण्ड पक्ष में सूर्य के प्रधान हो जाने से आचार्यकुण्ड मध्य का ही होता है। इन कुण्डों की योनि का स्थान विभक्त । द्विसुख में मध्य गत दो कुण्डों में दक्षिण वाला कुण्ड आचार्य कुण्ड होता है। इनकी योनि पूर्व होती है। शतमुख में विशेष वचन से नैऋत्यकोण का ही कुण्ड आचार्य कुण्ड होता है। इन कुण्डों की योनि पूर्व ही होती है। दश-मुख में नेत्रऋत्यकोण का ही कुण्ड आचार्य कुण्ड होता है। इनकी योनि पूर्व में होती है। विष्णु, रूद्र आदि की प्रतिष्ठा मात्र में नौ कुण्डी पक्ष में ईशानकोण और पूर्वादिशा के मध्य वाला कुण्ड आचार्य कुण्ड होता है। पञ्चकुण्डी पक्ष में तो ईशानकोण का ही आचार्य कुण्ड होता है। राम बाजपेयी ने पञ्चकुण्डी पक्ष में भी ईशान और पूर्वदिशा का कुण्ड आचार्य-कण्ड माना है, पर उसमें कोई मूल नहीं मिलता है। ये कुण्ड-चतुरस्र यौनि, अर्धचंद्र, त्रिकोण, वृत आदि भेद से ही बनते हैं या सब वृत चतु-रख था पद्म बन सकते हैं। यदि सब एक प्रकार के बने तो भी 'कुण्ड-त्रयी दक्षिण योनिः' यह वचन वहाँ भी लगेगा। ऐसा मालूम होता है। प्रतिष्ठा में जहां एक कुण्ड का विधान वहाँ ईशान, पूर्व, पश्चिम, सत्तर आदि का कण्ड आचार्य कुण्ड होता है। प्रतिष्ठा में यदि चारकुण्ड पक्ष की स्वीकार करेंगे तो संभवतः पूर्वदिशा का कुण्ड आचार्य कुण्ड होता है। प्रतिष्ठा में सातकण्ड पक्ष को ग्रहण करने पर अचार्यकुण्ड पूर्व दिशा का हो निविवाद होगा ।
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त्रयोदशान्न कुण्डानि परिता कारयेद् बुधः ।
उक्तलक्षणयुक्तानि प्रधानंत्वग्निकोण के अत्र मण्डपे वेद्या परितः दिक्षुद्धे विदिक्षु चैकेकम् प्रधानं च त्रयोदश ण्डानि।
आदो पूर्वादि चतुर्दिक्षु एकैकंकुण्डमकोण चैकं प्रधानकुण्डम् पञ्चकुण्डेभ्यो बहिः परितः अष्टदिक्षु एकैकंकुण्डम् एवं त्रयो-दश कुंडानि मनु - अग्निकोणे एकस्य कुंडस्य विद्यमानत्वात् कथंमत्र प्रधान कुंडकार्यमाह-अग्निकोणगात् कुंडात् हस्तमात्रमनरतः व्यवस्थाने अग्निकोण एव साक्षात् मुख्यं प्रधानकुंड कारयेत् । [तंत्रसार]
जहाँ हवन प्रधान होगा वहाँ पंचकुंडी और पंचकुंडी पक्ष में मध्य का ही कुंड आचार्य शास्त्रीय मत से होता है। वयोंकि मत्स्यपुराण, शारदा तिलक यादि 'आचार्यकुंड मध्ये स्यात् गौरीपतिमहेन्चोः' इत्यादि पद्य दीक्षा और प्रतिष्ठा आदि को लेकर ही लिखा है। यह बात वहाँ के प्रकरण को देखने से निर्णीत हो जाती है।