डॉ० मदन मोहन पाठक ( धर्मज्ञ)-
हमारे धर्म में निराकार ब्रह्म की अवधारणा के साथ ही ब्रह्मा-विष्णु-महेश के रूप ईश्वर की साकार त्रिमूर्ति भी और साथ ही तैंतीस कोटि देवी-देवता। नवग्रह और चांद-सितारे भी देवता माने गए हैं, तो ईश्वर के अनेक अवतार भी हैं। परन्तु इन सभी में भगवान सूर्यदेव ही एकमात्र वह देवता हैं, जो इन सभी श्रेणियों में न केवल हैं, बल्कि इन चारों ही वर्गों में उन्हें उच्चतम स्थान भी प्राप्त है। पृथ्वी को प्रकाश, सभी प्राणियों को जीवन शक्ति और ऊर्जा प्रदान करने के साथ ही अपनी किरणों के ताप से समुद्रों के जल को बादल बनाकर बरसाने के कारण ही आपको भगवान विष्णु का साकार रूप माना जाता है और इस रूप में आप साक्षात ईश्वर हैं। सभी ग्रहों और नक्षत्रों के आप अधिपति हैं अतः सर्वशक्तिमान ग्रह तो आप हैं ही, रात्रि को दिन में बदलने और अपने परम तेज से विश्व को प्रकाशित करने के कारण आप सबसे शक्तिशाली देव भी हैं। यही कारण है कि जहां अन्य देवी-देवता, स्वयं ईश्वर अथवा इसके अवतारों की पूजा-आराधना स्नान करने के पश्चात् मन्दिर जाकर अथवा विशिष्ट स्थान पर बैठकर की जाती है, वहीं स्नान करते समय अथवा तुरन्त बाद ही प्रत्येक आस्थावान व्यक्ति सूर्यदेव को अर्घ्य अवश्य प्रदान करता है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने आराध्यदेव से पहले भगवान सूर्यदेव का पूजन करता है।
किसी भी देवी-देवता को छोटा अथवा बड़ा कहना एक पाप है और यह पाप हम नहीं कर सकते। सभी देव हमारे लिए समान रूप से वन्दनीय और आदरणीय हैं और हम सभी को नमन करते हैं। परन्तु यह भी एक सत्य है कि अन्य सभी देवी-देवता और ग्रह-नक्षत्र जहां उस परब्रह्म का अंश रूप हैं, वही भगवान सूर्यदेवजी ब्रह्माजी, भगवान विष्णु और शिवजी का साकार संयुक्त स्वरूप होने के कारण परब्रह्म का आसानी से बोधगम्य साकार रूप हैं। यही कारण है कि वेदों में जहां सबसे अधिक मंत्र और ऋचाएं भगवान सूर्यदेवजी के प्रति समर्पित हैं, वहीं प्रत्येक व्यक्ति स्नान करते समय सूर्यदेवजी को अर्घ्य अवश्य समर्पित करे, यह परम्परा भी वैदिककाल से ही चली आ रही है। हमारे शास्त्रों और धर्मग्रंथों में सूर्यदेवजी को अर्घ्य समर्पित करने को अनिवार्य दैनिक कर्म बताने के साथ ही अर्घ्य समर्पण के शास्त्रोक्त विधि-विधान का भी विशद विवेचन किया गया है। यह सत्य है कि आज अधिकांश व्यक्ति नदी, सरोवर, नहर अथवा तालाब में स्नान करते समय उस जलमें खड़े रहकर ही दोनों हाथों की अंजलि में जल भरकर भगवान सूर्यदेवजी को अर्घ्य समर्पित कर देते हैं। घर में स्नान करने वाले व्यक्ति प्रायः ही स्नान के पश्चात् एक पात्र में जल भरकर और सूर्यदेव की ओर मुंह करके अर्घ्य अर्पित कर देते हैं। परन्तु इस समय इनमें से अधिकांश न तो सूर्यदेव के किसी मंत्र का स्तवन करते हैं और न ही भगवान भास्कर को उचित विधि से नमस्कार ही करते हैं।
परम उदार और अत्यन्त भक्त-वत्सल हैं हमारे भगवान रविदेव। वे इस प्रकार दिए हुए अर्घ्य को भी न केवल स्वीकार कर लेते हैं, बल्कि ऐसे भक्तों की सभी आकांक्षाओं की सतत आपूर्ति भी करते रहते हैं। परंतु आप तो भगवान सूर्यदेव के भक्त हैं और उनकी आराधना उपासना के क्षेत्र में कदम रखने जा रहे हैं, अतः भगवान सूर्यदेवजी को शास्त्रोक्त विधि-विधान से ही अर्घ्य समर्पित करें। सूर्यदेवजी को अर्घ्य अर्पित करते समय उदित होते हुए सूर्यदेवजी की ओर मुख करके खड़े होने के पश्चात् सर्वप्रथम ॐ सूर्याय नमः कहते हुए भगवान भास्कर को नमन करें। भगवान सूर्यदेव को हाथ जोड़कर नमस्कार करने के पश्चात् जल भरे हुए पात्र को दोनों हाथों में उठाकर अपने सिर से ऊपर ले जाएं और धार से भगवान सूर्यदेव को यह जल समर्पित करें। धार से जल डालते समय दो पंक्तियों के इस मंत्र का स्तवन करते रहें-
ॐ ऐहि सूर्य सहस्त्रासो तेजो राशि जगत्पते । अनुकम्पय मां भक्तया गृहाणार्घ्यम् दिवाकरः ॥
उपरोक्त मंत्र का मन ही मन स्तवन करते हुए भगवान सूर्यदेवजी को अर्घ्य अर्पित करने के पश्चात् ॐ सूर्याय नमः कहते हुए एक बार भगवान भास्कर को पुनः नमस्कार करें। इसके बाद दोनों हाथ जोड़कर आप भय-रोग निवारक और ऋद्धि-सिद्धि प्रदायक इस सूर्य स्तोत्र का मन ही मन स्तवन कीजिए-
प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुरण्यं, रूपं हि मण्डल मृयोऽथ तनुर्येजूसि ।
सामानि यस्य किरणाः प्रभवा दिहेतुं, ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यव्यरूपम् ॥ 1 ॥
प्रातर्नमामि तरणिं तनुवाङ् मनोभिःब्रह्मेन्द्रपूर्वक सुरैनर्तमर्चितं च्।
वृष्टि प्रमोचन विनिग्रहहेतुभूतं त्रैलोक्य पालन परं त्रिगुणात्मकं च ॥ 2 ॥
प्रातर्भजामि सविता रमन्त शक्ति पापौ घसत्रु भय रोगहरं परं च।
तं सर्वलोक कलनात्म ककाल मूर्ति गोकण्ठ बन्धन विमोचन मादिदेवम् ॥ 3 ।।
श्लोक ऋमिदं भानोः प्रातः काले पठेत्तु यः स सर्वव्याधि निर्मुक्तः परं सुखमवाप्नुयात् ॥ 4 ॥
स्तोत्र का अनुवाद एवं अर्थ
मैं भगवान सूर्यदेव के उस दिव्य स्वरूप का प्रातःकाल स्मरण करता हूं, जिनका मण्डल ऋग्वेद, शरीर यजुर्वेद और किरणें सामवेद हैं तथा जो ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के रूप हैं। जो जगत् की उत्पत्ति, रक्षा और नाश के कारण हैं तथा अलक्ष्य और अचिन्त्य स्वरूप हैं ॥ 1 ॥
मैं प्रातः काल शरीर, वाणी और मन के द्वारा ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं से स्तुत और पूजित, वृष्टि के कारण एवं विनिग्रह के हेतु, तीनों लोकों के पालन को तत्पर और सत्व स्वरूप एवं त्रिगुणरूप धारण करने वाले तरणि (सूर्य भगवान) को नमस्कार करता हूं ॥ 2 ||
जो पापों के समूह तथा शत्रुजनित भय एवं रोगों का नाश करने वाले हैं, सबसे उत्कृष्ट हैं, सम्पूर्ण लोकों में गणना के निमित्त काल (समय) स्वरूप हैं और गौओं के कण्ठबंधन छुड़ाने वाले हैं, उन अनंत शक्तिसम्पन्न आदिदेव सविता (सूर्य भगवान) को मैं प्रातःकाल भजता हूं ॥3॥
जो मनुष्य प्रातःकाल सूर्य के स्मरण रूप इन तीनों श्लोकों का पाठ करेगा, वह सब रोगों से, समस्त शत्रु भय से मुक्त होकर परम सुख प्राप्त करेगा ॥ 4 ॥
आप संस्कृत के मूल सूर्य स्तोत्र का स्तवन करें अथवा इसके हिन्दी अनुवाद का पाठ, भगवान सूर्यदेवजी को इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। भगवान सूर्यदेवजी और अन्य सभी देवी-देवता हमारी भाषा नहीं भक्त की भावना देखते हैं। यही नहीं, आप इस स्तोत्र के स्तवन के पश्चात् अथवा इस स्तोत्र के स्थान पर भगवान सूर्यदेवजी से यह प्रार्थना भी कीजिए-
दीन दयालु दिवाकर देवा, कर अनि, मनुज, सुरासुर सेवा। हिम-तम-करि केहरि करमाली, दहने-दोष-दुख-दुरित रुजाली ॥ कोक-कोकनद-लोक प्रकाशी, तेज-प्रताप-रूप-रस-रासी। सारधि पंगु, दिव्य रथ गामी, हरि-शंकर-विधि-मूरति स्वामी ॥ वेद-पुराण प्रगट सब जागे, तुलसी सम-भगति वर मांगे।
जय सूरज जय भुवन विभाकर, जय पूषा जय प्रखर प्रभाकर ॥ जय पावक रवि चन्द्र जयति जय, सत्-चित् आनन्द भूमा जय-जय। जय-जय विश्व रूप हरि जय, जय हर अखिलात्मन, जय-जय ।। जय विराट जय जगत्पते, गौरीपति जय रमा पते ॥भगवान सूर्यदेवजी के स्तोत्र का पाठ और यह प्रार्थना करने के पश्चात् आप उन्हें एक बार पुनः नमस्कार कीजिए। जिस स्थान पर आपने अर्घ्य का जल समर्पित किया है, उस गीली भूमि को नमस्कार करने के पश्चात् दोनों हाथ की उंगलियों से स्पर्श करें और उस रज को अपने मस्तक पर लगाएं।
यद्यपि कुछ ग्रंथों में सूर्यदेवजी को अर्घ्य देते समय उनके विशेष ध्यान, प्राणायाम और अन्य अनेक कर्मकाण्डों तथा बाद में गायत्री मंत्र के जप का विधान भी बतलाया गया है। वास्तव में इस प्रकार के विधान सूर्योपासना के ही एक अंग हैं। विभिन्न ग्रंथों में वर्णित इस प्रकार के विधान भ्रामकता की सीमा तक जटिल तो हैं ही, आज के युग में उनका पालन भी सहज सम्भव नहीं। यही कारण है कि आप इस अध्याय में वर्णित विधि से भगवान सूर्यदेवजी को अर्घ्य समर्पित करें, जबकि उनका ध्यान और अन्य स्तुतियां तो आप आराधना-उपासना करते समय करेंगे ही।
द्वादश नामानि नमस्कार
सूर्यदेव के हजारों नामों में से बारह प्रमुख नामों को अलग-अलग नमस्कार करना सूर्यार्घ्य और सूर्योपासना की एक महत्वपूर्ण क्रिया है। ये बारह नमस्कार अर्थ सहित इस प्रकार हैं-
ॐ मित्राय नमः ।
अर्थात् हे विश्व के मित्र सूर्य ! तुम्हें नमस्कार है।
ॐ रवये नमः ।
अर्थात् हे संसार में हलचल करने वाले सूर्य ! तुम्हें नमस्कार है।
ॐ सूर्याय नमः ।
अर्थात् हे संसार को जीवन देने वाले सूर्य! तुम्हें नमस्कार है।
ॐ भानवे नमः ।
अर्थात् हे प्रकाशपुंज सूर्य ! तुम्हें नमस्कर है।
ॐ खगाय नमः ।
अर्थात् हे आकाश में गमन करने वाले देव! तुम्हें नमस्कार है।
ॐ पूष्णे नमः ।
अर्थात् है संसार के पोषक ! तुम्हें नमस्कार है।
ॐ हिरण्यगर्भाय नमः ।
अर्थात् हे ज्योतिर्मय ! तुम्हें नमस्कार है।
ॐ मरीचये नमः ।
अर्थात् हे किरणों के स्वामी! तुम्हें नमस्कार है।
ॐ आदित्याय नमः ।अर्थात् हे संसार के रक्षक ! तुम्हें नमस्कार है।
ॐ सवित्रे नमः ।
अर्थात् हे विश्व को उत्पन्न करने वाले ! तुम्हें नमस्कार है।
ॐ अर्काय नमः ।
अर्थात् हे पवित्रता के शोधक ! तुम्हें नमस्कार है।
ॐ भास्कराय नमः ।
अर्थात् हे प्रकाश के करने वाले ! तुम्हें नमस्कार है।
सूर्यदेवजी के इन बारह नमस्कार मंत्रों को कण्ठस्थ करने के साथ ही इनके अर्थों अर्थात् इन नामों के अभिप्रायों को भी भली प्रकार समझ लीजिए। इन सभी नामों के अभिप्राय समझ लेने पर आपको सूर्यदेव के स्वरूपों की झांकी मन-मन्दिर में बसाने में आसानी तो रहेगी ही, इनमें से किसी भी एक नमस्कार का सूर्य मंत्र के रूप में आप जप भी कर सकते हैं। वास्तव में ये बारहों नमस्कार जपने के लिए भगवान सूर्यदेव के सबसे सुगम और शक्तिशाली मंत्र हैं। यही कारण है कि पूजा, आराधना अथवा उपासना करते समय आप इनमें से किसी भी एक नमस्कार की कम से कम एक माला तो जपें ही, वैसे जितना अधिक यह जप किया जाए उतना ही कम है। यही नहीं, प्रातः काल उदित होते हुए सूर्यदेव की तरफ मुंह करके आप घुटनों के बल बैठ जाएं। प्रत्येक मंत्र का स्तवन करते हुए उन्हें दण्डवत प्रणाम करें और प्रत्येक प्रणाम के बाद बैठ जाएं और फिर दण्डवत प्रणाम करें। इस प्रकार सूर्यदेवजी को नमस्कार के साथ ही एक अच्छा व्यायाम भी हो जाएगा। प्राचीनकाल में तो साधु-संत, विद्यार्थी, ऋषि-मुनि और हठयोगी बारह जटिल आसन बना-बनाकर सूर्यदेव को यह बारह नमस्कार करते थे। उनके अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घ-आयु का एक प्रमुख कारण उनका यह सूर्य नमस्कार भी था।
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