शिक्षा का प्रभाव उसी पर होता है जिसमें ज्ञान प्राप्त करने की प्यास है। जो ज्ञान प्राप्त करने का इच्छुक नहीं है उसे ज्ञान देने का प्रयत्न करना वैसा ही है जैसे सूअर के आगे हीरे बिखेर देना जो उन्हें पाँवों तले कुचल मात्र देगा। जो ज्ञान प्राप्त करने का इच्छुक ही नहीं है उसे कभी भी उच्च-कोटि का ज्ञान नहीं दिया जा सकता चाहे ज्ञानदाता स्वयं ब्रह्मा या बृहस्पति ही क्यों न हों।
इसके विपरीत ज्ञान प्राप्ति का इच्छुक व्यक्ति जीवन की हर परिस्थिति एवं घटना से तथा हर व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त कर लेता है। ज्ञान प्राप्ति की तीव्र पिपासा होने पर उसे सद्गुरु कहीं ढूँढना नहीं पड़ता, बल्कि वह सद्गुरु स्वयं उसके पास आता है। गुरु भी योग्य शिष्य की सदा तलाश में रहता है जैसे विवेकानन्द को रामकृष्ण, जनक को अष्टावक्र, और राम को वशिष्ठ मिले। ऐसा मिलन संयोग मात्र नहीं है बल्कि प्रकृति का शाश्वत नियम है। राम की ज्ञान-प्राप्ति की जिज्ञासा ही उनकी जीवन्मुक्ति का कारण है।
जब ऐसी जिज्ञासा स्वाभाविक रूप से पूर्व जन्म के सुसंस्कारों के फलस्वरूप अनायास ही जाग्रत होती है तो सुफल देने वाली होती है। विवेकानन्द, भर्तृहरि, शुकदेव, जनक, राम, रामकृष्ण आदि की ज्ञान-पिपासा ने ही उन्हें उच्चज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी बनाया। राम में भी सर्वप्रथम ऐसी ही ज्ञान-पिपासा जाग्रत हुई तभी वशिष्ठ ने उन्हें शिष्य रूप में स्वीकार करके ज्ञानोपदेश दिया।
डॉ ० मदन मोहन पाठक ( धर्मज्ञ)