श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
इनका निर्देश भागवत पुराण में है जो विस्तार से वेदों में भी वर्णित है-
तत्र गत्वा जगन्नाथं वासुदेवं वृषाकपि। पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहिताः॥ (भागवत पुराण, १०/१/२०)
पृथ्वी पर असुरों का अत्याचार बढ़ गया तो पृथ्वी रूपी गौ ब्रह्मा जी के साथ, जगन्नाथ के पास गयी जो वासुदेव, वृषाकपि, तथा पुरुष भी हैं। गौ का अर्थ ३ तत्त्व युक्त हैं-(क) इन्द्रिय-कर्म, ज्ञान, मन, (ख) किरण-तेज, गति, ज्ञान, (ग) यज्ञ-वेदी, कर्ता, पदार्थ। (घ) पृथ्वी-यज्ञ अर्थात् उत्पादन, स्थान, चक्रीय गति (दिन, मास. वर्ष आदि)।
अथैष गोसवः स्वाराजो यज्ञः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १९/१३/१)
इमे वै लोका गौः यद् हि किं अ गच्छति इमान् तत् लोकान् गच्छति। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/२/३४)
इमे लोका गौः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/५/२/१७)
धेनुरिव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्येभ्यः सर्वान् कामान् दुहे माता धेनुर्मातेव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्यान् बिभर्त्ति। (शतपथ ब्राह्मण, २/२/१/२१)
पिण्ड रूप में पृथ्वी पर ७ समुद्र हैं। गो रूप में उत्पादन के ४ स्रोत ४ समुद्र हैं-(क) स्थल मण्डल, (ख) जल मण्डल, (ग) वायु मण्डल. (घ) जीव मण्डल (जीव, वृक्ष)। (वायु पुराण, उत्तर, १/१६८-१८६)- पयोधरी भूतचतुः समुद्रां जुगोप गोरूप धरामिवोर्वीम्। (रघुवंश, २/३)
विष्णु यज्ञ रूप हैं, अतः असुरों द्वारा यज्ञ में बाधा होने पर विष्णु के पास गये, जिनके जाग्रत रूप जगन्नाथ हैं।
(१) पुरुष-यह रूप पुरुष सूक्त में वर्णित है, अतः पुरुष सूक्त से उनकी स्तुति हुई। पुरुष सूक्त के कुछ रूपों के क्रम हैं-(१) पूरुष = ४ पाद का मूल स्वरूप, (२) सहस्रशीर्ष-उससे १००० प्रकार के सृष्टि विकल्प या धारा, (३) सहस्राक्ष = हर स्थान अक्ष या केन्द्र मान सकते हैं, (३) सहस्रपाद-३ स्तरों की अनन्त पृथ्वी, (४) विराट् पुरुष-दृश्य जगत् जिसमें ४ पाद में १ पाद से ही सृष्टि हुई। १ अव्यक्त से ९ प्रकार के व्यक्त हुए जिनके ९ प्रकार के कालमान सूर्य सिद्धान्त (१५/१) में दिये हैं। अतः विराट् छन्द के हर पाद में ९ अक्षर हैं। (५) अधिपूरुष (६) देव, साध्य, ऋषि आदि, (६) ७ लोक का षोडषी पुरुष, (७) सर्वहुत यज्ञ का पशु पुरुष, (८) आरण्य और ग्राम्य पशु, (९) यज्ञ पुरुष (१०) अन्तर्यामी आदि।
(२) वासुदेव-पाञ्चरात्र दर्शन के अनुसार सृष्टि के ४ क्रम हैं-वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध। सूर्य सिद्धान्त के अध्याय १२ में सांख्य, पाञ्चरात्र, पुरुष सूक्त को मिला कर सृष्टि की व्याख्या है। रामानुजाचार्य जी ने ४ व्यूह रूप में इनकी व्याख्या है। सृष्टि क्रम के अनुसार इन के अर्थ हैं-(क) वासुदेव = सृष्टि का वास रूप आकाश, (ख) सङ्कर्षण = सभी के परस्पर आकर्षण से बड़े द्रप्स (ब्रह्माण्ड, उनके भीतर तारा गण)-(ऋक्, ६/४१/३, ७/८७/६, वाज, १/२६, ७/२६ आदि), (ग) प्रद्युम्न = प्रकाशित। जब तारा पिण्ड गर्म हो कर प्रकाश देने लगे। (घ) अनिरुद्ध-अनन्त रूप जिनको चित्राणि कहा गया है (वाज. यजु, २५/९, अथर्व, १९/७/१, ऋक्, ४/२२/१०, ४/३२/५ आदि)। अतः संवत्सर चक्र के प्रथम मास को चैत्र कहते हैं। चान्द्र मास की परिभाषा अनुसार इस मास की पूर्णिमा तिथि को चन्द्र चित्रा नक्षत्र में रहेगा। किन्तु चित्रा एकमात्र नक्षत्र है, जिसमें केवल १ ही तारा है।
(३) वृषाकपि-इसका अर्थ कई प्रकार से किया गया है, पुरुष वानर (वृषा = पुरुष, कपि = वानर), इन्द्र का मित्र जिसके साथ मद्यपान करने के कारण इन्द्राणी क्रुद्ध हुयी थी (ऋक्, १०/८६).
सृष्टि प्रसंग में इसका अर्थ है कि अप् के समुद्रों से द्रप्स रूप विन्दुओं की वर्षा होती है, इस रूप में स्रष्टा को वृषा कहते है। इसके लिए वह ’क’ = जल का पान करता है, अतः कपि है।
तद् यत् कम्पाय-मानो रेतो वर्षति तस्माद् वृषाकपिः, तद् वृषाकपेः वृषा कपित्वम्। ... आदित्यो वै वृषाकपिः। (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ६/१२)
असौ वा आदित्यो द्रप्सः (शतपथ ब्राह्मण, ७/४/१/२०) स्तोको वै द्रप्सः। (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, २/१२)
एष द्रप्सो वृषभो विश्वरूप इन्द्राय वृष्णे समकारि सोमः॥ (ऋक्, ६/४१/३)
अव सिन्धुं वरुणो द्यौरिव स्थाद् द्रप्सो न श्वेतो मृगस्तुविष्मान्। (ऋक्, ६/८७/६)
द्रप्सश्चस्कन्द प्रथमाँ अनु द्यूनिमं च योनिमनु यश्च पूर्वः (ऋक्, १०/१७/११)
यस्ते द्रप्सः स्कन्दति यस्ते अंशुर्बाहुच्युतो धिषणाया उपस्थात्। (ऋक्, १०/१७/१२)
यहां वृषा कपि का सहयोगी तेज रूप इन्द्र है, जिसकी सहायता से वह अप् या सोम पान कर सृष्टि करता है।
अन्य अर्थ है, कि सदा पहले जैसी सृष्टि होती है, अतः नकल करने वाले पशु को कपि कहते हैं-
प्रथमं सर्वशास्त्राणां पुराणं ब्रह्मणा स्मृतम् । अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः ॥
(वायु पुराण, १/६१, मत्स्य पुराण, ५३/३)
सूर्या चन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत् । (ऋक्, १०/१९०/३)
भगवान जगन्नाथ के बारे में इतनी अदभुत जानकारी पहले नहीं सुनी। धन्यवाद आपका।