श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
जगन्नाथ क्षेत्र-
परात्पर पुरुष रूप में सम्पूर्ण जगत् और उसका अव्यक्त स्रष्टा जगन्नाथ हैं। अनुभव योग्य रूप अव्यय पुरुष है। यह क्षर और अक्षर दोनों से उत्तम होने के कारण पुरुषोत्तम है। जगन्नाथ के २ मुख्य अवतारों में श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, जिन्होंने कभी पुरुष की सीमा नहीं पार की। श्रीकृष्ण ने जन्म लेते ही कई चमत्कार किये, अतः उनको भगवान् कहते हैं-
अन्ये चांश कला भूताः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्। पुरुषोत्तम रूप में जगन्नाथ प्रथित हैं, अतः एक का विशेषण प्रथम होता है, और गिनती आरम्भ करने के लिए एक के बदले पुरुषोत्तम राम कहते हैं।
यस्मात् क्षरमतीतोऽहं अक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥ (गीता, १५/१५)
जगन्नाथ धाम-
वेद रूपी ज्ञान का केन्द्र होने से भारत विश्व का हृदय है। हृदय का प्रचलित संकेत भी भारत के मुख्य खण्ड का नक्शा है। दक्षिण भाग अधोमुख त्रिकोण है, उत्तर भाग अर्धचन्द्राकार हिमालय है। दोनों को मिलाने पर हृदय का प्रचलित संकेत चिह्न बनता है। भारत का हृदय स्थान पुरी है, जो ९ खण्डों के भारतवर्ष का उत्तर-दक्षिण और पूर्व पश्चिम दिशा में केन्द्र भाग है। विश्व को नियन्त्रित करने के लिए जगन्नाथ उसके हृदय में रहते हैं, अतः भारत के हृदय स्थान पुरी में जगन्नाथ का स्थान है।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति (गीता, १८/६१) उषा सूक्त में धाम का अर्थ विषुव वृत्त का ७२० भाग है (उषा वरुण की पश्चिम दिशा में ३० धाम चलती है, सूर्योदय से १५ अंश तक पूर्व उषा काल है)\ अतः १ धाम ४०,००० /७२० = ५५.५ किमी है। अतः जगन्नाथ मन्दिर से ५ योजन = ५५.५ किमी ( १ धाम) उत्तर और उतना ही दक्षिण तक जगन्नाथ धाम है। स्कन्दपुराण, वैष्णव, ऊत्कल खण्ड, अध्याय ३-
पञ्चक्रोशमिदं क्षेत्रं समुद्रान्तर्व्यवस्थितम्। द्विक्रोशं तीर्थराजस्य तट भूमौ सुनिर्मलम्॥५२॥
सुवर्ण बालुकाकीर्णं नीलपर्वत शोभितम्। योऽसौ विश्वेश्वरो देवः साक्षान्नारायणात्मकः॥५३॥
अध्याय १-अहो तत् परमं क्षेत्रं विस्तृतं दश योजनम्॥११॥ नीलाचलेन महता मध्यस्थेन विराजितम्॥१२॥
सागरस्योत्तरे तीरे महानद्यास्तु दक्षिणे॥३१॥ एकाम्र काननाद् यावद् दक्षिणोदधि तीरभूः॥३३॥
ब्रह्म पुराण, अध्याय ४३-दक्षिणस्योदधेस्तीरे न्यग्रोधो यत्र तिष्ठति।
दश योजन विस्तीर्णं क्षेत्रं परम दुर्लभम्॥५३॥
यह शंख जैसा आकार होने के कारण शंख क्षेत्र है। कम्बोडिया भी कम्बुज = शंख है। जापान को पञ्चजन अर्थात् ५ द्वीपों का समूह कहा गया है (जम्बू द्वीप के उपद्वीप, भागवत पुराण, ५/१९/२९-३०)। वहां का शंख पाञ्चजन्य था जो विष्णु भगवान् का है।
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