श्रीगौड़ेश्वर सम्प्रदाय के विश्वविख्यात आचार्य श्रीरूप गोस्वामी महाशय श्रीवृन्दावन में एक निर्जन स्थान में वृक्ष की छाया में बैठे ग्रन्थ लिख रहे थे। गरमी के दिन थे। अतः उनके भतीजे और शिष्य महान् विद्वान् युवक श्रीजीव गोस्वामी एक ओर बैठे श्रीगुरुदेव के पसीने से भरे बदन पर पंखा झल रहे थे। श्रीरूप गोस्वामी के आदर्श स्वभाव-सौन्दर्य और माधुर्य ने सभी का चित्त खींच लिया था।
उनके दर्शनार्थ आने वाले लोगों का ताँता बँधा रहता था। एक बहुत बड़े विद्वान् उनके दर्शनार्थ आये और श्रीरूपजी के द्वारा रचित 'भक्तिरसामृत' ग्रन्थ के मङ्गलाचरण का श्लोक पढ़कर बोले, 'इसमें कुछ भूल है, मैं उसका संशोधन कर दूँगा।' इतना कहकर वे श्रीयमुना-स्त्रान को चले गये।
श्रीजीव को एक अपरिचित आगन्तुक के द्वारा गुरुदेव के श्लोक में भूल निकालने की बात सुनकर कुछ क्षोभ हो गया। उनसे यह बात सही नहीं गयी। वे भी उसी समय जल लाने के निमित्त से यमुना तट पर जा पहुँचे। वहाँ वे पण्डितजी थे ही। उनसे मङ्गलाचरण के श्लोक की चर्चा छेड़ दी और पण्डितजी से उनके संदेह की सारी बातें भली भाँति पूछकर अपनी प्रगाढ़ विद्वत्ता के द्वारा उनके समस्त संदेहों को दूर कर दिया। उन्हें मानना पड़ा कि श्लोक में भूल नहीं थी। इस शास्त्रार्थ के प्रसङ्ग में अनेकों शास्त्रों पर विचार हुआ था और इसमें श्रीजीव गोस्वामी के एक भी वाक्य का खण्डन पण्डितजी नहीं कर सके। शास्त्रार्थ में श्रीजीव की विलक्षण प्रतिभा देखकर पण्डितजी बहुत प्रभावित हुए और श्रीमरूप गोस्वामी के पास आकर सरल और निर्मत्सर भाव से उन्होंने कहा कि 'आपके पास जो युवक थे, मैं उल्लास के साथ यह जानने को आया हूँ कि वे कौन हैं ?' श्रीरूप गोस्वामी ने कहा कि 'वह मेरा भतीजा है और शिष्य भी, अभी उस दिन देश से आया है।'
यह सुनकर उन्होंने सब वृत्तान्त बतलाया और श्रीजीव की विद्वत्ता की प्रशंसा करते हुए श्रीरूप गोस्वामी के द्वारा समादर प्राप्त करके वे लौट गये। इसी समय श्रीजीव यमुनाजी से जल लेकर आये और उन्होंने गुरुदेव के चरणकमलों में प्रणाम किया। श्रीरूप गोस्वामी जी ने अत्यन्त मृदु वचनों में श्रीजीव से कहा- 'भैया ! भट्टजी कृपा करके मेरे समीप आये थे और उन्होंने मेरे हित के लिये ही ग्रन्थ के संशोधन की बात कही थी। यह छोटी-सी बात तुम सहन नहीं कर सके। इसलिये तुम तुरंत पूर्व देश को चले जाओ। मन स्थिर होने पर वृन्दावन लौट आना।'
ब्रज-रस के सच्चे रसिक, व्रजभाव में पारङ्गत श्रीरूप के मुखकमल से बड़ी मृदु भाषा में ये शासन वाक्य निकले। इनमें मृदुता है, दैन्य है, शिष्य के प्रति उपदेश है और कृपा से पूर्ण शासन है। 'मन स्थिर होने पर वृन्दावन आना।' अर्थात् वृन्दावनवास करने के वे ही अधिकारी हैं जिनका मन स्थिर है। अस्थिर मन वाले लोगों का वृन्दावनवास सम्भवतः अनर्थोत्पादक हो सकता है। और स्थिर मन का स्वरूप है-परम दैन्य, आत्यन्तिक सहिष्णुता, नित्य श्रीकृष्णगत चित्त होने के कारण अन्यान्य लौकिक व्यवहारों की ओर उपेक्षा। भट्टजी ने श्रीरूप गोस्वामीजी की भूल वतायी थी, इससे उन्हें क्षोभ होना तो दूर रहा, उन्हें लगा कि सचमुच मेरी कोई भूल होगी, भट्टजी उसे सुधार देंगे। श्रीजीव गोस्वामी ने शास्त्रार्थ में पण्डितजी को हरा दिया, इससे श्रीरूप गोस्वामी को सुख नहीं मिला। उन्हें संकोच हुआ और अपने प्रियतम शिष्य को शासन करना पड़ा। वे श्रीजीव गोस्वामी के पाण्डित्य को जानते थे, पर श्रीजीव में जरा भी पाण्डित्य का अभिमान न रह जाय, पूर्ण दैन्य आ जाय- वे यह चाहते थे और इसी से उन्होंने श्रीजीव को चले जाने की आज्ञा दी। यह उनका महान् शिष्यवात्सल्य था और इसी रूप में बिना किसी क्षोभ के अत्यन्त अनुकूल भाव से श्रीजीव ने गुरुदेव की इस आज्ञा को शिरोधार्य किया। वे विना एक शब्द कहे तुरंत पूर्व की ओर चल दिये तथा यमुना के नन्दघाट पर, जहाँ स्नान करते समय नन्द वाबा को वरुण देवता के दूत वरुणालय में ले गये थे, जाकर निर्जन वास करने लगे। वे कभी कुछ खा लेते, कभी उपवास करते और भजन में लगे रहते। उन्होंने एक बार श्रीगुरुमुख से सुना था कि 'सुख-दुःख-दोनों में ही परमानन्द का आस्वादन हुआ करता है।' यहाँ श्रीजीव को गुरुदेव के वियोग का दुःख था; परंतु इस दुःख में भी वे श्रीगुरुदेव के पादपद्म में तन्मयता प्राप्त करके परमानन्द प्राप्त कर रहे थे। विरह में ही मिलन की पूर्णता हुआ करती है।
श्रीजीव इस प्रकार जब निर्जन वास कर रहे थे, तब एक समय अकस्मात् श्रीसनातन गोस्वामी (श्रीरूपके बड़े भाई) वहाँ जा पहुँचे। श्रीसनातन के प्रतिव्रजवासियों का बड़ा प्रेम था। व्रजवासी भक्तों ने श्रीसनातन को बताया कि 'आजकल यहाँ नन्दद्घाट पर एक अत्यन्त सुन्दर तरुण तपस्वी निर्जन वन में निवास कर रहे हैं। बड़ा प्रयत्न करने पर भी वे कभी-कभी निराहार रह जाते हैं, कभी फल-मूल खा लेते हैं और कभी सत्तू ही जल में सानकर खाते हैं।' सनातन समझ गये कि ये तपस्वी हमारे श्रीजीव ही हैं। वे अत्यन्त स्नेहार्द्रचित्त होकर वहाँ गये। उनको देखते ही श्रीजीव अधीर होकर उनके चरणों पर गिर पड़े। वे अपने ताऊ के चरणों में लुट पड़े और आँसू बहाने लगे। व्रजवासी बड़े आश्चर्य से इस दृश्य को देख रहे थे। श्रीजीव से बातचीत करके तथा व्रजवासियों को समझाकर श्रीसनातन जी श्रीवृन्दावन चले गये।
श्रीवृन्दावन में वे श्रीरूप गोस्वामी के पास पहुँचे। श्रीरूप गोस्वामी ने उनके चरणों में प्रणाम किया। श्रीसनातन के पूछने पर श्रीरूप ने बतलाया कि उनका भक्तिग्रन्थ-लेखन प्रायः समाप्त हो गया है। श्रीजीव होते तो शीघ्र संशोधन हो जाता। प्रसङ्ग पाकर श्रीसनातन ने कहा- 'श्रीजीव केवल जी रहा है, मैंने देखा, जरा-सी हवा से उसका शरीर काँप जाता है।' इतना सुनते ही श्रीरूप का हृदय द्रवित हो गया। श्रीजीव का पता लगाकर उन्होंने तुरंत उन्हें अपने पास बुला लिया और उनकी ऐसी दशा देखकर परम कृपार्द्रहृदय से उनकी उचित सेवा-शुश्रूषा करके उन्हें स्वस्थ किया। फिर तो श्रीरूप-सनातन दोनों का सारा भार श्रीजीव ने अपने ऊपर ले लिया। श्रीजीव श्रीरूप की परिभाषा के अनुसार अब पूर्ण स्थिरचित्त थे।
श्री राधा माधव चिंतन से साभार
Bhagwan Krishna ne kaha hai ki karm karo aur usi ke anusar aapko fal milta hai, yogya guru ki Sharan me raho aur apna jivan sudhaare