शतमुख कोटिहोम और श्रीकरपात्री जी

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 08 November 2025
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डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी ( प्रबंध संपादक )-

शास्त्रों की अवलोकन परम्परा से यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि- विश्व-कल्याण की रुख-शान्ति के लिये 'कोटिहोम' से बढ़कर कोई प्रयोग नहीं है। किन्तु इस प्रयोग को सम्पन्न करने के लिये कोटिहोम की प्राणाणिक पद्धति और प्रामाणिक ठोस विद्वान्-जो कि साङ्गोपाङ्ग वेद तथा शास्त्र का पूर्ण ज्ञाता एवं धर्मशास्त्रव्यवस्थापक हो-कां होना परमावश्यक है। अन्यथा कर्म में अवैधता हो जाने का विशेष डर रहता है। अवैधरूप से किया हुआ कर्म विश्व में शान्ति की जगह अशान्ति की वृद्धि करता है, यह निश्चित है।

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इतिहासों के अवलोकन से अवगत होता है कि-कोटिहोम का प्रचार प्राचीन समय में अत्यधिक था किन्तु इघर सैकड़ों वर्षों से कोटिहोम का विलकुल अभाव सा हो गया था। फल-स्वरूप परिणाम यह हुआ कि शनैः शनैः उस महनीय महायज्ञ के स्वरूप से पठितापठित सभी लोग अपरिचित होने लगे । कतिपय व्यक्ति-विशेष जो इस यज्ञ के स्वरूपादि से परिचित भी थे वह भी इस महायशके विस्तृत विधि-विधान के स्मरण-मात्र से ही अपने-आप को सर्वंया शक्ति-हीनः समझ कर चुप साध लेते थे। इस प्रकार की संसार की धार्मिक असमर्थता औरः उपेक्षा के कारण कोटिहोमादिका ही नहीं, अपि तु छोटे-छोटे अन्य यज्ञ-यागादि के भी नाम-निशान तक मिटने लगे। जिसका दुष्परिणाम यह हुआ-यज्ञादि धार्मिक कृत्यों के न होने से संसार के समस्त प्राणी अनेक प्रकार की दुःखराशि में मग्न होने लगे । 

संसार की भीषण परिस्थिति से ऊब कर विश्वकल्याणार्य भारतप्रसिद्ध त्याग-तपोमूर्ति दण्डीस्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज ने धर्म-प्रचार के कठिन व्रत को धारण करते हुए भारत के प्रधान-प्रधान केन्द्रों में भ्रमण कर धर्म में जो अलौकिक जागृति का नया जीवन सञ्चार उत्पन्न किया है वह किसी भी सनातनधर्मावलम्बी से तिरोहित नहीं है। आप के सत्य सङ्कल्प. का ही महान् प्रभाव है कि- आज समस्त देशों और प्रान्तों के कोने-कोने में धर्म का पूर्ण प्रचार हो रहा है तथा समस्त देशवासी धर्म के कट्टर अनुयायी बनते जा रहे हैं। साथ ही समस्त धार्मिक जनता अगणित संख्या में एकत्रित होकर श्रद्धा-मक्ति से अनेक तरह के जप, तप, पूजा, पाठ, यज्ञानुष्ठादि सत्कायों को करते हुए अपना और देश का कल्याण कर रहे हैं।

 

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त्यागमूर्ति श्रीकरपात्री जी के सत्यसङ्कल्प के चमत्कार का ही फल था कि. युद्धजन्य भीषण मँहगी के युग में भी मारत की विख्यात राजधानी देहली और व्यापार के मध्य केन्द्र कानपुर में निर्विघ्न कोटिहोम यहायज्ञ सम्पन्न हुए ।

 

देहली तथा कानपुर के महायज्ञ सविधि सम्पन्न हुए या नहीं ? इस राग-द्वेषा-त्मक झगड़े में न पड़ते हुए इतना अवश्य वक्तव्य है कि उपर्युक्त दोनों महायज्ञों में कानपुर की अपेक्षा देहली का महायश अधिक सफल बन सका । देहली के यश को साङ्गोपाङ्ग सम्पन्न करने के लिये संसार के मुख्य मुख्य अनेक धर्मप्रेमी सेठ-साहूकारों का तन, मन, धन से पूर्ण सहयोग प्राप्त था। किन्तु उस यज्ञ का सब से अधिक श्रेय अनेक धर्म-संस्थाओं के संस्थापक काशीनिवासी सुप्रसिद्ध दानवीर सेठ श्रीगौरीशङ्कर जी गोयनका महोदय को है, जिन्होंने शास्त्रोक्त पद्धति के अनुकूल आचार्यादि हजारों ऋत्विजों को तथा सभी निमन्त्रित अन्य विद्वानों को यथापद स्वयं अपनी ओर से कई लक्ष रुपया सौवर्णी (गिन्नी) दक्षिणा के रूप में प्रदान कर शतमुख कोटिहोम को सर्व-प्रकार से सफलीभूत बना कर द्विजाति. मात्र को स्व-धर्म कर्तव्य-परिपालन का पाठ पढ़ाया ।

गत संवत् २००० में देहली और संवत् २००१ में कानपुर में जो महायज्ञ हुए है, वह केवल विश्वकल्याण की कामना के उद्देश्य को लेकर ही किये गए है। उसी उद्देश्य को लेकर आज वही महायज्ञ धर्म तथा विद्या के प्रधान केन्द्र श्री काशी-धाम में सुसम्पन्न होने जा रहा है। इस यज्ञ के सम्बन्ध में 'धर्म--सङ्घ' की ओर से प्रकाशित अनेक समाचारों के अवलोकन से अनुमान होता है कि यह महायज्ञ देहली और कानपुर के यज्ञों की अपेक्षा सभी बातों में अत्य-धिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करेगा ।



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