लीला सिद्धान्त एवं शक्तिपात

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  • धर्म-पथ
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  • 16 April 2025
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शैव दर्शन में मूलभूत परम अद्वैत तत्त्व को परमशिव, अर्थात् परमेश्वर कहा गया है । संसार में होने वाले बन्धन के और मोक्ष के आभास को भी उस परमेश्वर की परमेश्वरता की ही अभिव्यक्ति ठहराया गया है । तदनुसार परमेश्वर बद्ध प्राणी के रूप में प्रकट होकर बन्धन लीला का अभिनय करता है और वही मोक्षमार्गगामी साधक के रूप में प्रकट होता हुआ मोक्ष लीला का भी अभिनय करता है । अतः बन्धन और मोक्ष, दोनो का मूल कारण स्वयं परमेश्वर ही है, ऐसा शैव दर्शन का सिद्धान्त है। परमेश्वर अपनी परमेश्वरता की लीला में स्वय अपने वास्तविक स्वरूप को और स्वभाव को भुला कर अज्ञानी तथा बद्ध प्राणी के रूप में प्रकट होकर संसारी जीव की लीला का प्रदर्शन करता है। वहीं भक्ति, ज्ञान और योग के अभ्यास से स्वय अपने आपको मानो मुक्त कर देता है । इस तरह से शेवदर्शन के अनुसार बन्ध-मोक्ष की लीला को परम अद्वैत परशिव तत्त्व का नैसर्गिक स्वभाव माना गया है । तदनुसार उसको निग्रहशक्ति के विलास से वहीं बद्ध जीव के रूप में बन्धन लीला का अभिनय करता रहता है और उसी की अनुग्रहशक्ति के विलास से जीव मोक्षमार्ग मे प्रवृत्त होता हुआ क्रम से, या अक्रम से या व्युत्क्रम से अपने वास्तविक परमेश्वरभाव को पहचानता हुआस्वयं अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार करता है। ऐसा करता हुआ वह इस निश्चय पर पहुँच जाता है कि समस्त विश्व की, सृष्टि-संहार आदि पारमेश्वरी कृत्यो की तथा सभी जीवों के जीवन, मरण, बन्धन, मोक्ष आदि की लीला एकमात्र उसी की अपनी स्वभावभूता असीम परमेश्वरता के दिव्यातिदिव्य स्वभाव की हो अभिव्यक्ति है ।

इस प्रकार इस लीला सिद्धान्त की प्रधानता के कारण और अनुग्रह कृत्य की नाटयलोलात्मकता के कारण काश्मीर शैव दर्शन के द्वारा उपदिष्ट आगमिक साधना मे दीक्षा विषय का निरूपण खूब विस्तार से किया गया है। इस लीला विलास मे समस्त बद्ध प्राणियों की प्रवृत्तियाँ और योग्यताएँ अनेक स्तरो की हुआ करती है, अतः उनके लिये अनेक स्तरो वाली अनुग्रह लीला उपयुक्त हो सकती । इस विश्वमयी सुविचित्र लीला मे परमेश्वर जिस किसी प्राणी पर अनुग्रह शक्तिपात करता है, वही प्राणी किसी सच्चे सद्गुरु की शरण में आता है। वह गुरु उसे तदुचित शैली वाली साधना की दीक्षा देता है और तदनुसार अभ्यास करने से शिष्य में अपने भुला डाले गये वास्तविक चिन्मय स्वरूप की तथा अपने पारमेश्वर स्वभाव की पुनः स्मृति जाग उठती है। ऐसा होते ही वह प्राणी अपने आपको परिपूर्ण परमेश्वर के रूप में पहचान लेता है। अपनी इस वास्तविकता की पहचान को शैव दर्शन मे प्रत्यभिज्ञा कहते है ।

परमेश्वर समस्त जीव निकाय पर सदा एक जैसा अनुग्रह नही करता फिर वह किसी पर एक साथ पूरा अनुग्रह भी प्रायः नही करता। यदि वह सभी पर एक जैसा ही अनुग्रह करता रहता और एक साथ ही पूरा अनुग्रह करता रहता, तो इस ससार-लीला मे कोई वैचित्र्य कभी आता ही नही। यह विश्व-प्रपच एक दिव्यातिदिव्य नाटयलीला का दृश्य न होता हुआ एक कारखाने जैसा प्रतीत होता । तब इसमे कोई भी चमत्कार नहीं रहता ।

नाटय लीला मेतो चमत्कार पात्रों की अपनी-अपनी विचित्रता से ही आता है। इस विश्वात्मक महानाटक के उस सूत्रधार ने अपने विश्वमय नाटक को चमत्कारपूर्ण बनाये रखने के लिये इसमे निग्रह लीला के और अनुग्रह लीला के अभिनय में इतनी विचित्रता भर रखी है कि कोई भी दो व्यक्ति सर्वथा एक जैसे नहीं होते। सभी का अपना-अपना विचित्र व्यक्तित्व बना रहता है। इस विषय को लेकर परमेश्वर पर पक्षपात की शंका का कोई भी अवसर नही है। पक्षपात वहा होता है, जहाँ दो पक्ष हो । परमेश्वर सब कुछ स्वयं ही है; अतः उसके परम अद्वैत स्वभाव मे जब दूसरा कोई पक्ष है ही नहीं, तो पक्षपात की शंका काहे की ।

यह बात निश्चित है कि इस विश्वमयी लीला के अभिनय मे परमेश्वर अनेक प्रकार से अनुग्रह-शक्तिपात करता रहता है। दर्शनकारो ने उस शक्तिपात के मूलतः तीन प्रकार माने है-तीव्र, मध्य और मन्द । फिर उनमे से भी एक एक के तीन तीन प्रकार माने गये है, जैसे तीव्रतीव्र, मध्यतीव्र, मन्दतीव्र इत्यादि। इस तरह से नौ प्रकार बन जाते है। इन मुख्य नौ प्रकारो के आगे असख्य प्रकार बनते हैं, जिनसे इस संसार मे मुमुक्षुजनो की परस्पर अनन्त प्रकार को विचित्रता की व्याख्या की जा सकती है। इसी तरह से निग्रहलीला भी असख्य वैचित्र्य को लेकर चला करती है । पारमेश्वरी लीला के अभिनय की ऐसी विचित्रता के कारण दीक्षा के भी अनेक प्रकार सिद्धजनो ने ठहराये है। आचार्य अभिनवगुप्त ने दीक्षा के जिन मुख्य प्रकारो का निरूपण तन्त्रालोक में किया है, उनका थोड़ा बहुत दिग्दर्शन अगले पृष्ठो में किया जा रहा है ।
डॉ. बलजिन्नाथ पण्डित।
 



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