रुद्राष्टाध्यायी और रुद्राभिषेक माहात्म्य

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  • धर्म-पथ
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  • 14 July 2025
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डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक )-


गृहस्थाश्रम में पडकर जिससे मन, विषयलोलुप होकर अधोगतिको प्राप्त न हो, और अपनी वृत्तियोंको स्वच्छ रखसके इसके निमित्त रुद्रका अनुष्ठान करना मुख्य और उत्कृष्ट साधन है यह रुद्रानुष्ठान ही प्रवृत्ति मार्गसे निवृत्ति मार्गको प्राप्त कराने में समर्थ है।

 

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महात्माओं द्वारा कल्याण के निमित्त यह श्रुति दूधर्मेसे रुद्राष्टाध्यायी रूप नवनीत  निकालकर  साररूप लिया गया है। 
वेदमंत्रोंका विनियोग, अर्थ, ऋषियोंका स्मरणादि जाननेका माहात्म्य ब्राह्मण और अनुक्रमणिकामें विशेषरूपसे वर्णन किया है, अर्थ और विनियोगको जानकर जो कार्य किया जायगा वह कल्पवृक्षकी समान विशेष रूप से फलदायक होता है इससे अर्थका ज्ञान अवश्य होना चाहिये। जैसे-
“हे रुद्र! रुत् दुःखं द्रावयति रुद्रः। यद्वा रुगतौ ये गत्यर्थास्त ज्ञानार्था: रवणं रुत् ज्ञानम् भावे कि तुगागमः। रुत् ज्ञानं राति ददाति रुद्रः ज्ञानप्रदः। यद्वा – पापिनो नरान् दुःखभोगेन रोदयति रुद्रः।"

इस प्रकार अर्थके ज्ञानसे विशेष प्रतिपत्ति होनेसे श्रुतिमें भी विशेषफल प्रतिपादन किया है-
उतत्वः पश्यन्न: ददर्शवाचमुतत्वः शृण्वन्न शृणोत्नम् उतोत्वस्मै तन्वं विसले जायेव पत्य उशती सुवासा:
इत्यादि मंत्रों में अर्थज्ञानकी प्रशंसा सुनी हैं, और 
यद् गृहीतमविज्ञातं निगदेनेवशब्द्यते। 
अनम्नाविवशुष्कंधोनत ज्ज्वलतिकर्हिचित्।।

 

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इत्यादि वाक्यों द्वारा अर्थ न जाननेकी निन्दा सुनी है। दूसरा वचन भी निरुक्तमें लिखा है-
स्थाणुरयं भारहारः किलाभूदधीत्य वेदं न विजानाति योऽर्थम् । 
योऽर्थज्ञ इतः सकलं भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा।। 
अर्थात् जो वेद पढकर उसका अर्थ नहीं जानता वह ढूँढकी समान भार ढोनेवाला है। और जो अर्थको जानता है वह सब कल्याणको प्राप्त होता है। और पानरहित हो बैकुण्ठको प्राप्त होता है, इन वचनों से अर्थका जानना सम्पूर्ण कल्याणका करनेवाला है। जो कहते हैं कि “स्वाध्यायोऽध्येतव्यः"  इस वचनसे पाठ मात्रसे ही कर्मानुष्ठान में सफलता होजाती हैं यह सत्य है, परन्तु अर्थज्ञानसे विशेष वीर्यवान् होता है, इससे अर्थज्ञान अवश्य होना चाहिये।

उपनिषद् स्मृति पुराण आदि में रुद्रजापका विशेष माहात्म्य वर्णन किया है मोक्षकी प्राप्ति, पापनाश आरोग्य आयुष्यकी प्राप्ति, रुद्रजापसे होती है। जाबाल उपनिषद् में लिखा है-
अथ ब्रह्मचारिण ऊचुः किंजप्येनैवामृत त्वमश्नुतः इति ब्रूहरति। स होवाच याज्ञवल्क्यः शतरुद्रियेण इति 
अर्थात् ब्रह्मचारियोंने याज्ञवल्क्यऋषिसे प्रश्न किया कि क्या जपनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। याज्ञवल्क्यने उत्तर दिया कि. शतरुद्रियके जपसे कैवल्य उपनिषद् में लिखा है-
यः शतरुद्रियमधीते सोग्निपूतो भवति स्वर्णस्तेयात्पूतो भवति सुरापानात्पूतो भवति ब्रह्महत्यातः पूतो भवति कृत्याकृत्यात्पूतो भवति भवति तस्मादविमुक्तमाश्रितो भवति अत्याश्रमी सर्वदा सकृद्वा जपेदनेन ज्ञानमाप्नोति संसारार्णवनाशनं 'तस्मादेवं विदित्यैनं कैवल्यं  फलमश्नुते' इत्याह शातातप:

अर्थ जो शतरुद्रिय पाठ करताहै वह जैसे अग्झिसे निकाले पदार्थ सुवर्ण आदि पवित्र होजातेहैं, तद्वत् पवित्र होताहै, सोनेकी चोरीके पापसे छूटजाता है, सुग़शनके पापसे रहित होताहै, ब्रह्महत्यासे पवित्र होता है, कृत्याकृत्यस पवित्र होता है आश्रमत्यागी भी एकवार पाठमात्रसे पवित्र होता है, इसके जपसे ज्ञान की प्राप्ति होती है संसारसागरसे पार होजाता है। इसकारण इसको जानकर कैवल्यकी प्राप्ति होती है इसप्रकार शातात कहते हैं।
स्तेयं कृत्वा गुरुदारांश्च गत्वा 
मद्यं पीत्वा ब्रह्महत्यां च धृत्वा। 
भस्मच्छन्नो भस्मशय्याशयानो 
रुद्राध्यायी मुच्यते सर्वपापै:।। 
अर्थ सुवर्णकी चोरी, गुरुस्त्रीमें गमन, मद्यपान, ब्रह्महत्यादि पाप करके सर्वांगमें भस्म लेपन करके भस्ममें शयन करनेवाला रुद्राध्यायीके पाठसे सत्र पापसे छूट जाता है।
याज्ञवल्क्य कहते हैं-
सुरापः स्वर्णहारी च रुद्रजापी जले स्थितः। 
सहस्रशीर्षाजापी च मुच्यते सर्वकिल्विषैः। 
अर्थात् मद्य पीनेवाला सुवर्णकी चोरी करनेवाला जो जलमें स्थित
होकर रुद्राध्यायका जप करता है तथा सहस्रशीर्षा इस अध्यायको पढता है, वह सबपापों से छूट जाता है।

तथा च रुद्रेकादशिनीं जप्त्वा तह्नैव विशुध्यति 
अर्थात् एकादश बार रुद्रजापसे उसीदिन शुद्ध होजाता है। महात्माशङ्खजी कहते हैं-
स्वणस्तेयी रुद्राध्यायी मुच्यते। 
अर्थात् सुवर्णस्तेयां रुद्राध्यायके पाठसे मुक्त होता है।
" तथा च वायुपुराणे-
यश्च रुद्राञ्जपेन्नित्यं ध्यायमानो महेश्वरम् || 
यश्च सागरपर्यन्तां सशैलवनकाननाम् ॥ १ ॥ 
सर्वान्नात्मगुणोपेतां सुवृक्षजलशोभिताम् ॥ 
दद्यात्काञ्चनसंयुक्तां भूमिं चौषधिसंयुताम् ।। 
तस्मादप्यधिकं तस्य सकृद्रुद्रजपाद्भवेत् ॥ २ ॥ 
मम भावं समुत्सृज्य यस्तु रुद्राञ्जपेत्सदा || 
स तेनैव च देहेन रुद्रः संजायते ध्रुवम् ॥ ३ ॥ 
अर्थ-वायुपुराणमें लिखा है जो महेश्वरका ध्यान करताहुआ एक वार रुद्रीका जप करता है उसको, जो शैल बन काननके सहित सर्वश्रेष्ठगुणोंसे युक्त, अच्छे वृक्ष और जलोंसे शोभित, सुबर्ण और औषधि सहित, समुद्रपर्यंत पृथिवीको दान करता है उससे भी अधिक फल होताहै। अर्थात् रुद्रीजपका फल इससे विशेषहै और जो ममत्वको छोड़कर सदा रुद्रदेवका जप करता है वह उसीदेह से निश्चय रुद्र होजाता है।

 चमकं नमकं चैव पौरुषसूक्तं तथैव च || 
नित्यं त्रयं प्रयुञ्जानो ब्रह्मलोके महीयते ॥ १ ॥ 
चमकं नमकं होतॄन्पुरुषसूक्तं जपेत्सदा || 
प्रविशेस महादेवं गृहं गृहपतिर्यथा ॥ २ ॥
भन्मदिग्धशरीरस्तु भम्मशायी जितेन्द्रियः ॥ 
सततं रुद्रजाप्योऽसौ परां मुक्तिमवाप्स्यति ॥ ३ ॥ 
रोगवान्पापवांश्चैव रुद्रं जप्त्वा जितेन्द्रियः।। 
रोगात्सापाद्विनिर्मुक्तो ह्यतुलं सुखमश्नुते ॥ ४ ॥ 
अर्थ- चमकनामक अध्याय तथा पुरुषसूक्त तीनवार जपनेसे ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठा पाता है। जो चमक नमक तथा पुरुषसूक्त का साथ साथ  जप करते हैं, वह महादेवमें ऐसे प्रवेश करजाते हैं जैसे गृहपति अपने घरमें प्रवेश करजाता है || २ || शरीर में भस्म लगानेसे, भहममें शयनकरनेसे, जितेन्द्रिय होकर निरन्तर रुद्राध्यायका पाठकर से मनुष्य मुक्त होजाताहै ॥ ३ ॥ और जो रोगी तथा पापी भी जितेन्द्रिय होकर रुद्राध्यायका पाठ करे तो रोग और पापसे निवृत्त होकर महासुखको प्राप्त होता है ॥ ४ ॥

आहच शंख:-
रहसि कृतानां महापातकानामपि शतरुद्रियं प्रायश्चित्तमिति। 
शंख ऋषि कहते हैं कि गुप्तमहापातकों का भी प्रायश्चित्त शतरुद्रियका जपहै।

शतरुद्रिय इसका नाम इस कारण है कि रुद्रदेवता १०० संख्या वाले हैं यह रुद्रोपनिषद् है इसमें शिवात्मकब्रह्मका निरूपण हैं।
ब्रह्मके तीन रूप हैं एक तो कार्यरूप सबका उपादानकारण सर्वात्मक, दूसरा सृष्टिस्थितिसंहार निमित्तक पुरुषनामबाला, तीसरा अविद्यामे परे निर्गुण निरञ्जन सत्य ज्ञान आनन्द के लक्षणवाला, यह रुद्रके मुख्यस्वरूप है।
इस रुद्राष्टाध्यायी में  ब्रह्म के सगुण निर्गुण दोनोंप्रकार के रूपोंका वर्णन है, परमात्माकी उपासना, भक्तिमहिमा, शान्ति पुत्रपौत्रादिकी वृद्धि, नीरोगता यज्ञीय पदार्थ आदि कितनीही वस्तुओंका वर्णन है इसके पाठसे पाठकोंको यह भलीप्रकार से विदित हो जायगा

रुद्री या एकादशिनी(नमक-चमक)

रुद्राष्टाध्यायीके पाँचवें अध्यायमें ६६ मन्त्र हैं। रुद्र के बहुत से नाम चतुर्थी-विभक्ति- पुरस्सर हो, 'नमो नम:' शब्दों से बारंबार दुहराये जाने के कारण इस अध्याय का नाम नमकम् पड़ा। इसी प्रकार अन्तिम आठवें  अध्याय के मन्त्रों में भगवान् रुद्र से अपनी मनचाही वस्तुओं की प्रार्थना ‘च मे च मे' अर्थात् ‘यह भी मुझे, यह भी मुझे' शब्दों की पुनरावृत्ति के साथ की गयी है। इसलिये इसका नाम ' चमकम् ' पड़ा। इन दोनों नमक-चमक का समष्टि रूप ही ' नमक चमक है।

षडङ्गपाठमें नमकाध्याय (पञ्चम) तथा चमकाध्याय (अष्टम)-का संयोजन कर रुद्राध्यायको की गयी ग्यारह आवृत्तिको रुद्री या एकादशिनी कहते हैं। आठवें अध्यायके साथ पाँचवें अध्यायकी जो आवृत्ति होती है, उसके लिये शास्त्रोंका निश्चित विधान है, तदनुसार आठवें अध्यायके क्रमशः चार-चार तथा फिर चार मन्त्रों, तीन-तीन तथा पुनः तीन मन्त्रों; तदनन्तर दो मन्त्र, फिर एक-एक मन्त्र और पुनः दो मन्त्रोंके अनन्तर पाँचवें अध्याय (नमक)-की एक-एक आवृत्ति होती है। अन्तमें शेष दो मन्त्रोंका पाठ होता है। इस प्रकार आठवें अध्यायके कुल उन्तीस मन्त्रोंको रुद्रोंकी संख्याग्यारह होनेके कारण ग्यारह अनुवाकोंमें विभक्त किया गया है-ऐसा रुद्रकल्पद्रुममें बताया गया है। इसे ही नमक चमक विधि कहते हैं। इसके बाद नवें और दसवें अध्यायका पाठ होता है। इस प्रकार की गयी एक आवृत्तिको रुद्री या एकादशिनी कहते हैं। इस क्रम में रुद्रअध्याय- नमक (५) के ६६ मन्त्रों का  आठवें अध्याय चमक के २८ मंत्रों में सम्पुट बीच बीच मे सम्पुट को  नमक चमक कहते हैं।

नमक-चमक में आठवें अध्याय में सम्पुट मंत्रों का संख्याक्रम-

वेद (४) वेदा(४) ब्धि(४) रामाश्च(३) राम(३)राम(३) द्वि(२)'कै(१)'क(१)'कम् ।
द्वौ(२) द्वौ(२) पृथग्भिर्मन्त्रैस्तु नमकाश्चमकाः स्मृताः॥(कुल २८मन्त्र)

नमक-चमक में आठवें अध्याय में सम्पुट मंत्रों का आदिपद 
वाजश्व१सत्य२ मूक् (३)र्चाश्मा(४) चाग्नि(५)रंशुष्(६) तथाग्निकः(७) । 
एका(८) चैव चतस्रश्च(९)त्र्य(१०) विर्वाजा(११) इति क्रमः॥

लघ्वेकादशभिः प्रोक्तो महारुद्रश्चतुर्थकः। 
पञ्चमः स्यान्महारुद्रैरेकादशभिरन्तिमः ।। 
अतिरुद्रः समाख्यातः सर्वेभ्यो ह्युत्तमोत्तमः ॥
(रुद्रकल्पद्रुम)



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