डॉ.दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)-
दीक्षा सम्प्रदाय में होती है,धर्म में नहीं । क्योंकि जो धर्म में नहीं है वह अधर्म में है ।
और जो अधर्म में है उसे किसी धार्मिक सम्प्रदाय में दीक्षा नहीं दी जा सकती ।
धर्म के दश लक्षण प्रसिद्ध हैं — धैर्य क्षमा दम अस्तेय शौच इन्द्रियनिग्रह धी विद्या सत्य अक्रोध । जिस सम्प्रदाय में इन लक्षणों पर बल है वह धार्मिक सम्प्रदाय है,जैसे कि वैष्णव शैव शाक्त जैन बौद्ध (गौतम बुद्ध वाले असली) आदि । जिन सम्प्रदायों में विपरीत लक्षण मिले वे अधार्मिक सम्प्रदाय हैं,जैसे कि राक्षस सम्प्रदाय । कलियुग में बहुत से म्लेच्छ सम्प्रदायों में धर्म और अधर्म की खिचड़ी है क्योंकि कलियुग में विक्षिप्त मानवों का भारी बहुमत है जिनकी एक टाँग सांसारिकता की नाव में है और दूसरी आध्यात्मिक नाव में । अध्यात्म का संसार से वैर नहीं,सांसारिकता से वैर है,संसार के प्रति मोह से वैर है ।
कोई शिशु ईसाई पैदा नहीं होता,बपतिज्म के पश्चात ईसाई बनता है । बपतिज्म से पहले सनातनी होता है । संसार का हर मानव सनातनी पैदा होता है । क्योंकि सनातनी होने का अर्थ है आत्मा के धर्म को धारण करना । हर शिशु छल−कपट से रहित आत्मा के धर्म को धारण करके ही आता है,अतः सनातनी है । आत्मा का यह धर्म मरते दम तक नहीं छूटता,क्योंकि आत्मा के बिना अस्तित्व नहीं । किन्तु कलियुगी समाज में मनुष्य पर अधर्म की कलई चढ़ती रहती है,आत्मा का धर्म दबता रहता है । कोई ईसाई बन जाता है,कोई नास्तिक,कोई कम्युनिष्ट ।
किन्तु हिन्दू बना नहीं जाता । हर मानव जन्मजात हिन्दू है । तीन सप्तसिन्धुओं वाले भारतवर्ष को पारसी ग्रन्थ अवेस्ता में सबसे पहले हप्तहिन्दू कहा गया,जो कलियुग का शब्द है क्योंकि अवेस्ता की रचना कलियुग में हुई । अतः सनातन धर्म को ही कलियुग में विदेशियों ने हिन्दू कहा । सतयुग में पूरी पृथ्वी सनातनी थी । त्रेता और द्वापर में धर्म की टाँग टूटती रही । कलियुग में अधर्म का बोलबाला हो गया । लोग धर्म की परिभाषा ही भूल गये । अब तो अंग्रेजों और उनके भूरे चेलों ने धर्म को सम्प्रदाय (रिलीजन) प्रचारित कर दिया ।
वैदिक संहिताओं में हिन्दू शब्द नहीं है । वेदों में प्रक्षिप्त अंश कहीं नहीं मिलेंगे क्योंकि वेदों को प्रक्षिप्तता से बचाने के लिए लिखा ही नहीं जाता था । पिछले एक सहस्र वर्ष की दासता ने सनातनियों में भी हिन्दू शब्द को प्रचलित कर दिया । कई संस्कृत ग्रन्थों में भी हिन्दू शब्द जुड़ गया ।
जबतक हिन्दू का अर्थ वेद में आस्था रखने वाला है,जबतक हिन्दू का अर्थ वेद को सर्वोपरि मानने वाला है,जबतक हिन्दू का अर्थ सनातनी है,तबतक कोई स्वयं को हिन्दू कहे तो स्वीकार्य है । किन्तु वेदनिन्दक गोमाँसभक्षक यदि स्वयं को हिन्दू कहे तो स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
वेद का अर्थ है वास्तविक ज्ञान । आत्मा के धर्म को धारण करने का ईच्छुक हर व्यक्ति हिन्दू है । अपने सच्चे कल्याण का ज्ञान पाने का ईच्छुक हर व्यक्ति हिन्दू है । किन्तु ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जो वास्तविक ज्ञान के जिज्ञासु हैं परन्तु अधार्मिक परिवेश में भटककर गलत सम्प्रदायों में फँसे हैं । वे यदि घर वापसी चाहें तो किसी प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं,किसी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं,क्योंकि सनातनी बना नहीं जा सकता,सनातन धर्म हर मनुष्य का नैसर्गिक धर्म है — भले ही उसे उलटी बातें सिखला दी गयी हो । केवल सच्चे मन से यह संकल्प आवश्यक है कि “मैं हिन्दू हूँ और मुझे हिन्दू होने का गर्व है” । स्वामी विवेकानन्द ने कलिकाल के पराजित अचेत समाज में यही आात्मविश्वास भरा ।
हिन्दू बनने के लिए किसी संस्कार वा अनुष्ठान की नहीं,बल्कि हिन्दू होने के संकल्प की आवश्यकता है । मनुष्य मन से बना,और मन का लक्षण है संकल्प । अतः जो व्यक्ति सत्य संकल्प करे वह सच्चा सनातनी है ।
हिन्दू बनने का कहीं अन्त नहीं,यह एक प्रक्रिया है,जबतक कि मर्त्यलोक में आवागमन सदा के लिए रुक न जाये । जबतक मानव मर्त्यलोक में है तबतक हिन्दू बनते रहने की प्रक्रिया रुकनी नहीं चाहिए ।
कई लोग कहते हैं कि कोई विदेशी हिन्दू बनना चाहे तो किस जाति में आयेगा?ऐसे लोग अधकचड़े हिन्दू हैं । जब से जनगणना आरम्भ हुई है तब से भारत में जातियों की संख्या लगभग बीस गुणी बढ़ चुकी है । यदि किसी विदेशी को किसी भी हिन्दू जाति में प्रवेश नहीं मिल सकता तो नयी जाति बना ले । जातीय छूआछूत वैदिक परम्परा नहीं है,इसका सम्बन्ध केवल कर्मकाण्डीय शुद्धि से है । मलयुक्त व्यक्ति मन्दिर में क्यों जायेगा?गन्दे हाथ वाला डॉक्टर शल्यकर्म कैसे करेगा?गन्दे हाथ वाले व्यक्ति द्वारा परोसा भोजन कोई क्यों ले?इसे छूआछूत नहीं कहते । छूआछूत है जातीय,और वह कलियुग के गन्दे लोगों से बचने के लिए आरम्भ हुआ था । ये गन्दे लोग कौन हैं?जो प्राचीन काल में यज्ञ में हड्डी फेँकते थे । आज भी ऐसी प्रवृति वाले दुष्टों की कमी नहीं है ।
हिन्दू वह है जो चारों पुरुषार्थों के मार्ग पर चलने का प्रयास करे — किन्तु धर्म का पालन करते हुए,वरना पुरुषार्थ के बदले पुरुष−अनर्थ होगा । धर्म के दशों लक्षणों सहित वैदिक कर्मकाण्ड का अनुष्ठान ही सनातन धर्म है । मूलतः वैदिक कर्मकाण्ड ही धर्म है ।
किन्तु वैदिक कर्मकाण्ड का पोंगापन्थी अर्थ न लें । भौतिक यज्ञ को द्रव्ययज्ञ कहते हैं,यह निम्नतम स्तर का यज्ञ है । आत्मयज्ञ उच्चतम यज्ञ है । इसपर अभी विस्तार से जाने की बजाय केवल इतना समझ लें कि धार्मिक मनुष्य का पूरा जीवन ही यज्ञ है । यज्ञ का अर्थ है देवताओं का यजन । सांसारिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जितने भी आवश्यक कर्म किये जायें उनपमें एक भी ऐसा कर्म न हो जो देवताओं को अप्रसन्न करे,तो ये सारे कर्म यज्ञ हैं । कार्यालय जाकर कर्म करना यज्ञ है,घर में झाड़ू लगाना यज्ञ है,सबसे पहला यज्ञ तो पाकयज्ञ है । विवाह से लेकर अन्त्येष्टि तक सबकुछ यज्ञ है । किन्तु तभीतक ये सब यज्ञ हैं जबतक देवताओं को प्रसन्न करने की भावना से किये जायें ।
देवताओं को क्या प्रसन्न करता है?देवताओं को आपसे कुछ नहीं चाहिए,आप अपना वास्तविक कल्याण करें यही देवताओं को पसन्द है ।
देवताओं की संख्या कितनी है और किस देवता को प्रसन्न करना पहले आवश्यक है — ऐसे प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं । वेद में कहा गया है कि एक ही सत् है जिसे विप्रजन विविध नामों से पुकारते हैं । ऐसे बहुत से जटिल यज्ञ है जिनमें देवताओं की विविधता का ध्यान रखना पड़ता है,किन्तु वह माथापाच्ची वैदिकों को करने दें । आमलोगों को यही समझना चाहिए कि सारे देवता वस्तुतः एक ही हैं और उनको प्रसन्न करना मनुष्य का धर्म है । इसी को यज्ञ कहते हैं । सबसे बड़ा यज्ञ प्राणायाम है,ऐसा गीता में श्रीकृष्ण ने कहा । क्योंकि प्राणायाम का लाभ है अज्ञान का आवरण छँटना — यह पतञ्जलि मुनि ने कहा । अज्ञान का छँटना ही सनातन धर्म का परम लक्ष्य है ।
वास्तविक ज्ञान से किसी को वञ्चित करना पाप है । अतः सनातनी बनने से किसी को रोकना पाप है । सनातनी बनने के लिए किसी पण्डित वा पादरी का परमिट नहीं चाहिए,केवल अपना संकल्प पर्याप्त है ।
गर्व से कहो हम हिन्दू हैं ।
हिन्दुत्व को संकीर्ण नहीं बनायें । जैसा कि स्वामी विवेकानन्द ने शिकागों में कहा — सारे सम्प्रदाय लहरें हैं और हिन्दुत्व वह महासागर है जिसमें लहरें उठती हैं ।
जो लहरें वैतरणी के उस तट की ओर ले जायें वे सनातनी हैं,जो बार बार डुबाकर मर्त्यलोग में लाती रहें वे अधार्मिक हैं ।
पाँच मिनट का भी सन्ध्यावन्दन नियमित रूप से करें । प्रातः अनिवार्यतः । समय मिले तो सायं । मध्याह्न सन्ध्या बहुत कम लोग कर सकेंगे । मध्यरात्रि की चौथी सन्ध्या केवल मोक्षमार्गी के लिए । न्यूनतम तीन प्राणायाम अवश्य । सम्भव हो तो भरदिन ईश्वर को याद करते रहें । मन्दिर में ईश्वर को याद करने से बेहतर है कि पाप करते समय ईश्वर को अवश्य ही याद कर लें,तब पाप कर ही नहीं सकेंगे । यही सनातन धर्म है ।