महर्षि शङ्ख-
ब्राह्यसंस्कारसंस्कृतः ऋषीणां समानतां सामान्यतां समानलोकतां सायोज्यतां गच्छति।
दैवेनोत्तरेण संस्का-रेणानुसंस्कृतो देवानां समानतां सामान्यतां समानलोकतां सायोज्यतां च गच्छति।
गर्भाधानादि ब्राह्म-संस्कारों से संस्कृत व्यक्ति ऋषियों के समान पूज्य तथा ऋषितुल्य हो जाता है। वह ऋषिलोक में निवास करता है तथा ऋषियों के समान शरीर प्राप्त करता है और पुनः अग्निष्टोमादि दैवसंस्कारों से अनुसंस्कृत होकर वह देवताओं के समान पूज्य एवं देवतुल्य हो जाता है, वह देवलोक में निवास करता है और देवताओं के समान शरीर प्राप्त करता है। (महर्षि हारीत)
गार्भहोंमैर्जातकर्मचौडमौञ्जीनिबन्धनैः
बैजिकं गाभिकं चैनो द्विजानामपमृञ्यते ।।
गर्भशुद्धिकारक हवन, जातकर्म, चूडाकरण तथा मौञ्जीबन्धन (उपनयन) आदि संस्कारों के द्वारा द्विजों के बीज तथा गर्भसम्बन्धी दोष- पाप नष्ट हो जाते हैं। (मनुस्मृति)
स्वाध्यायेन व्रर्तहोंर्मस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः ।
महायज्ञैश्च यज्ञेश ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ॥
वेदाध्ययन से, मधु-मांसादि के त्यागरूप व्रत अर्थात् नियम से, प्रातः सायंकालीन हवन से, त्रैविद्य नामक व्रत से, ब्रह्मचर्यावस्था में देव-ऋषि-पितृतर्पण आदि क्रियाओं से, गृहस्थावस्था में पुत्रोत्पादन से, ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ आदि पश्च महायज्ञों से और ज्योतिष्टोमादि यज्ञों से यह शरीर ब्रह्मप्राप्ति के योग्य बनाया जाता है। (मनुस्मृति)
गर्भहोमैर्जातकर्मनामचौलोपनायनैः स्वाध्यायैस्तद्वतैश्चैव विवाहस्त्रातकव्रतैः ।
महायज्ञेश यज्ञेश ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ॥
गर्भाधान-संस्कार में किये जाने वाले हवन के द्वारा और जातकर्म, नामकरण, चूडाकरण, यज्ञोपवीत, वेदाध्ययन, वेदोक्त व्रतंकि पालन, स्नातक के पालने योग्य व्रत, विवाह, पञ्च महायज्ञों के अनुष्ठान तथा अन्यान्य यज्ञों के द्वारा इस शरीर को परब्रह्म की प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है। (महाभारत)
वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम् ।
कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टिपर्यन्त सब संस्कार वेदोक्त पवित्र विधियों और मन्त्रों के अनुसार कराना चाहिये; क्योंकि संस्कार इहलोक और परलोक में भी पवित्र करने वाला है। (महाभारत)
संस्कृतस्य हि दान्तस्य नियतस्य यतात्मनः । सिद्धिरिहलोके परत्र च प्राज्ञस्यानन्तरा ॥
जिसके वैदिक संस्कार विधिवत् सम्पन्न हुए हैं, जो नियमपूर्वक रहकर मन और इन्द्रियों पर विजय पा चुका है, उस विज्ञ पुरुष को इहलोक और परलोक में कहीं भी सिद्धि प्राप्त होते देर नहीं लगती। (महाभारत)
चित्रकर्म यथाऽनेकैरङ्गैरुन्मील्यते शनैः। तद्वत्स्यात्संस्कारैर्विधिपूर्वकैः ॥ ब्राह्मण्यमपि
जिस प्रकार किसी चित्र में विविध रङ्गों के योग से धीरे-धीरे निखार लाया जाता है, उसी प्रकार विधिपूर्वक संस्कारों के सम्पादन से ब्रह्मण्यता प्राप्त होती है। (महर्षि अङ्गिय)
संस्कारैः संस्कृतः पूर्वैरुत्तरैरनुसंस्कृतः ।
नित्यमष्टगुणैर्युक्तो ब्राह्मणो ब्राह्मलौकिकः ॥
ब्राह्य पदमवाप्नोति यस्मान्न च्यवते पुनः।
नाकपृष्ठं यशो धर्म त्रिरीजानस्त्रिविष्टपम् ।।
गर्भाधान आदि प्रारम्भिक तथा अग्न्याधेय आदि उत्तरवर्ती संस्कारों और दया, क्षान्ति, अनसूया, शौच, अनायास, मङ्गल, अकार्पण्य तथा अस्पृहा- इन आठ आत्मसंस्कारों से नित्य सम्पन्न रहने वाला द्विज ब्रह्मलोक प्राप्त करने के योग्य हो जाता है। साथ ही पाकयज्ञों, हविर्यज्ञों और सोमयज्ञ संस्कारों से संस्कार सम्पन्न होकर वह यश एवं धर्म का अर्जन करके मेरु पृष्ठ को प्राप्त होता है, उसे देवलोक की प्राप्ति होती है और वह पुनः सदा के लिये उस ब्राह्मपद को प्राप्त कर लेता है, जहाँ से उसका फिर पुनरागमन नहीं होता।
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