प्राची गडकरी -
हमारी भारतीय संस्कृति के ग्रंथ कभी पुराने नहीं होते। हर बार पढ़ने पर उनमें कुछ नया सार मिल जाता है। कभी-कभी किसी ऋचा का बिल्कुल अलग अर्थ सामने आता है। इसलिए हजारों वर्षों के बाद भी ये ग्रंथ आज समाज में जीवंत प्रवाह की तरह मौजूद हैं। लोग आज भी श्रद्धा से इन्हें पढ़ते हैं।
महाराष्ट्र के संतों और साधुओं ने इन ग्रंथों का गहन अध्ययन कर उनके भाव अलग-अलग रूपों में हमें समझाए हैं। “देव” क्या है, यह बताते हुए संत ज्ञानेश्वर महाराज ने विश्वरूप दर्शन के आधार पर विभिन्न विभूतियों को स्पष्ट किया है। गोरक्षनाथ–दत्तात्रेय संवाद, शंकराचार्य का अष्टांग, मुक्ताबाई के कूट अभंग, सिद्धारूढ़ स्वामी की कोष्टक, चिदंबर स्वामी का भक्ति का गणित, समर्थ रामदास के समास, नारद भक्ति सूत्र की अक्कमहादेवी द्वारा की गई व्याख्या—ये सब हमारे लिए अलौकिक खजाने को सरल बनाने वाले उदाहरण हैं। इनके बिना बहुत-सी बातें हमें कभी समझ में ही नहीं आतीं।
आज जब मैंने मार्कंडेय ऋषि का “दुर्गा सप्तशती” ग्रंथ दोबारा खोला, तो ध्यान आया कि जैसे “रामरक्षा” में राम अलग-अलग अंगों की रक्षा करते हैं, वैसे ही सप्तशती में ऋषियों ने बताया है कि कौन-सी देवी किस अंग की रक्षा करे। जैसे—मेरी जिह्वा की रक्षा सरस्वती करें, हृदय की रक्षा ललिता करें, गले की रक्षा भद्रकाली करें, कंठ की रक्षा चंडिका करें… आदि। और अंत में—“मेरे पूरे शरीर की चारों ओर से रक्षा देवी करें।” यही देवी कवच का अंतिम श्लोक है।
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ऋषि मार्कंडेय ने देवी के विभूतियों का वर्णन अत्यंत मोहक ढंग से किया है। कवच, अर्गला और फिर कीलक—इन मंत्रों का क्रम उन्होंने अद्भुत रंगों में चित्रित किया है। अर्गला यानी कड़ी, और तिलक यानी उस कड़ी का कोयंडा (ताला)। ऋषियों ने मानो कुछ मंत्रों की शक्ति को सीमित कर सुरक्षित रखा है।
इसके बाद 108 देवियों के नाम आते हैं और उनके कारण भी। जैसे—इंद्र ने शक्ति दी तो वह इंद्राणी हुई, ब्रह्मा ने शक्ति दी तो ब्रह्माणी, रुद्र ने दी तो रुद्राणी, नारायण ने दी तो नारायणी। इन नामों के पीछे की कथा ऋषियों ने सुंदर ढंग से समझाई है।
हम सब अनुभव करते हैं कि जब हमारे अपने लोग हमारा मनोबल बढ़ाते हैं, तो भीतर शक्ति जागृत होती है। स्त्री में शक्ति तब आती है जब सब उस पर विश्वास करते हैं। वही विश्वास उसे विजय तक ले जाता है।
घर के कामों में एक साथ दस काम करने वाली स्त्री वास्तव में अष्टभुजा ही है। उसकी फुर्ती देखकर आलस्य रूपी राक्षस भी भयभीत होकर भाग जाता है।
ग्रंथ में भी कई भावनाओं को राक्षसों से तुलना की गई है। जैसे चंड और मुंड। चंड यानी बुद्धि, मुंड यानी संशय। जब बुद्धि पर संशय छा जाता है, तब कैसी स्थिति होती है—यह देवी के युद्ध रूप में दर्शाया गया है।
चंड-मुंड के वध के बाद देवी अट्टहास करती हैं—जोर से ठहाका लगाती हैं। तभी उन्हें “चामुंडा” कहा गया। यहाँ अट्टहास का सही अर्थ “ठहाका लगाना” है, न कि हठ करना।
इसी प्रकार शुंभ और निशुंभ राक्षस वासना के प्रतीक हैं। देवी यह दिखाती हैं कि स्त्री साधारणत: वासना की दास नहीं होती। वह विवेक को विजयी करती है।
कुल 13 अध्यायों में देवी की महिमा और विभिन्न युद्ध कथाएं हैं। मार्कंडेय और भागुरी के संवाद के रूप में कथा कही गई है। अंत में यह स्पष्ट किया है कि यह सब महामाया का कार्य है। माया के तीन रूप बताए—मोहमाया, योगमाया और महामाया।
ग्रंथ में अहंकार को महिषासुर बताया गया है। अहंकार के आठ रूप (सेनापति) बताए गए हैं—जैसे अधूरा ज्ञान, धूर्तता आदि। ये आज भी समाज में दिखाई देते हैं। इसलिए आज भी अहंकार रूपी महिषासुर को मारने के लिए दुर्गा की आवश्यकता है।
चौथे अध्याय में देवी की स्तुति है—
*“नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।”*
ऋषियों ने देवी की विभिन्न रूपों का वर्णन किया—शंकर से निकली शक्ति “शिवा”, पार्वती से निकली “कौशिकी”, जगत को जन्म देने वाली “जगदंबा”।
ग्रंथ के अंत में देवी के “हुंकार” का महत्व बताया गया है। विश्वामित्र ने भी केवल हुंकार से राक्षसों को भगाया था। हुंकार महाप्राण है, उसमें शस्त्र जितनी शक्ति है। दुर्गा ने भी धूम्रलोचन का वध केवल हुंकार से किया। धूम्रलोचन यानी धुआँ, धूल—जैसे लोग आज भी दूसरों की आँखों में धूल झोंकते हैं।
तुकाराम महाराज ने कहा—“रात-दिन हमारे सामने युद्ध है।”
गोंदवलेकर महाराज ने कहा—“साधक और गृहस्थ दोनों जीवनभर अपने असली शत्रु को पहचान नहीं पाते।”
आखिर में ऋषि कहते हैं कि सब कुछ माया है। सबको खाली हाथ जाना है। फिर भी मनुष्य संग्रह में जीवन गँवाता है। योगमाया की साधना कठिन है क्योंकि उसका समय ब्रह्ममुहूर्त है, जो आमतौर पर लोग सोने में बिताते हैं।
अंत में यही संदेश है—हमारे भीतर का अहंकार (महिषासुर) रोज जन्म लेता है और दुर्गा को उसे मारना पड़ता है। तभी संसार का संतुलन बना रहता है। इसलिए नवरात्र में इस ग्रंथ का पाठ अवश्य करना चाहिए।
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