डॉ. मदन मोहन पाठक (धर्मज्ञ )-
इन मन्त्रों में शिव का अर्थ शुभ या कल्याणकारी के रूप में ही प्रयुक्त है।
यज्जाग्रतो दूरमुदैति देवं तदु सुप्तस्य तथैवैति । दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे नमः शिवसंकल्पमस्तु ।। येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः । यदपूर्व यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥ यत्प्रज्ञानमुतचेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु । यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्। येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः । यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान् नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइव। हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठ तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
हे जगदीश्वर ! जो मन जागृत अवस्था में तथा सोता हुआ भी छू-छू तक भागता है, दूर-छ तक पहुँचने वाला ज्योतियों भी ज्योति, दिव्य शक्ति से युक्त ऐसा मेरा मन शुभ संकल्पों वाला हो। जिस मन से सत्कर्मनिष्ठ, मनीषी संयमी पुरूष यज्ञों तथा युद्ध अवसरों में कर्म करते हैं, जो मन प्रजाओं के बीच अपूर्व पूज्य है ऐसा मेरा मन शुभ संकल्पों बाला हो। जो बुद्धि का उत्पादक स्मृति का साधक, धैर्य स्वरूप और मनुष्यों के भीतर नाशरहित प्रकाशस्वरूप है। जिसके बिना कोई भी काम नहीं किया जाता। वह मेरा मन शुभ संकल्पों वाला हो। जिस नाशरहित मन से, भूत, वर्तमान, भविष्यत् यह सब जाना जाता है। जिसके द्वारा सात होताओं द्वारा किये जाने वाला अग्निष्टोमादि यज्ञ विस्तृत किया जाता है, वह मेरा मन शुभ विचारों वालाहो। जिस शुद्ध मन में, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद, रथ की नाभि में अरे के समान प्रतिष्ठित हैं और जिसमें प्राणियों का समग्र ज्ञान पिरोया हुआ है, वह मेरा मन शुभ विचारों वाला हो। जिस प्रकार एक अच्छा सारथी घोड़ों को इच्छानुसार ले जाता है उसी प्रकार मन भी मनुष्यों को नियम में रखता है। जो हृदय में स्थित है, जरा रहित तथा अतिशय गमनशील है। वह मेरा मन शुभ विचारों वाला हो।
यजुर्वेद के अनुसार परमात्मा सर्वत्र व्यापक, अनन्त शक्ति वाला, अजन्मा, निराकार, अक्षतू, बन्धन रहित, निर्मल, पाप रहित, सूक्ष्मदर्शी, ज्ञानवान्, सर्वोपरि, महान सत्ता है। स्वयं ही अपना स्वामी है। अपनी सदैव वर्तमान रहने वाली प्रजा के लिए यथायोग्य विधान का निर्माण करता है। मन्त्र इस प्रकार है-
स पर्य्यगाच्छुकायमत्रणमस्नाविरँ शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।। यजुर्वेद 40.8
वेद में परमात्मा को ओ३म् नाम से अभिहित किया गया है अन्य सभी नाम उसके गुणों के आधार पर विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए है जैसे संसार की रचना करने से ब्रह्मा सर्वव्यापक होने से विष्णु, दुष्टों को रूलाने से रूद्र, कल्याणकारी होने से शंकर। वेद में शिवतम और शिवतर रूप के शब्द आने से स्पष्ट हो जाता है कि ये सारे नाम विशेषण के रूप में ही प्रयोग किये गये हैं।
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