अपार करुणामूर्ति जगज्जननी भगवती शिवा और शिव ही समस्त सृष्टि के स्रष्टा हैं। इनकी कृपा से ब्रह्मादि देव याविर्भूत होकर आदेशानुसार सृष्टि, स्थिति और संहृति में प्रवृत्त होते हैं। अखिल ब्रह्माण्डनायिका भगवती एवं अखिल ब्रह्माण्डनायक अगवान् एकरूप होते हुए भी लोकानुग्रह के लिए द्विधा रूप ग्रहण करते हैं और दिव्य-दम्पती के रूप में शब्दार्थमयी सृष्टि को भो विकसित करते हैं। ये ही ब्रह्मस्वरूप हैं, अतः निगम और आगम की सृष्टि भी इनके द्वारा ही हुई है। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव में कोई भेद नहीं है। लोक बोध के लिए इनका पृथक् पृथक् निरूपण किया गया है, किन्तु त्तत्त्वतः इनकी पृथक्ता नहीं है। वैसे यह भी स्पष्ट है कि इनके मूल में शक्ति ही आदि तत्त्व है, जिसके द्वारा स्वेच्छा-विलास के लिए देव-सृष्टि हुई है।
तन्त्र शास्त्रों के अनुसार ये आदि दम्पती लोक कल्याण की उदार भावना से परस्पर संवाद रूप में, प्रश्नोत्तर रूप में कत्र्तव्य कर्मों का चिन्तन प्रस्तुत करते रहते हैं। इनकी अनन्तरूपता के अनुसार ही अनन्त शास्त्रों का उद्भव होता रहा है। यह आवश्यक भी है, क्योंकि माता-पिता यदि बालकों की शिक्षा-व्यवस्था न करें तो और कौन करे ? जव स्वयं ब्रह्मादि देव भी प्रादुर्भूत होने के पश्चात् अबोध की भांति 'कोऽहं कुतः आयातः, का मे जननी को मे तातः ?' इत्यादि नहीं जान पाए तो उन्हें भी इन्हीं ने कृपापूर्वक ज्ञान दिया था। निगम और आगमों के सम्बन्ध में 'सर्वोल्लास-तन्त्र' का स्पष्ट कथन है कि-
निर्गतं शिववक्त्रेभ्यो गतश्च गिरिजाननम् । मतः श्रीवासुदेवस्य तस्मान्निगम उच्यते ।।तथा - 'आगतः शिववक्त्रेभ्यो' इत्यादि । इसके अनुसार दोनों ही शास्त्र. शिव और गिरिजा के समन्वित विचारों की परिणति हैं और भगवान् विष्णु इनके सम्मति-सहमति दाता हैं। आगमों का विस्तार पारम्परिक ज्ञान-प्रदान से होता रहा है। सर्वप्रथम वासुदेव ने निगम-आगम के ज्ञान को सुना। उन्होंने गणेश को सुनाया और गणेश ने नन्दीश्वर को। इस प्रकार क्रमशः निगमागम ज्ञान भूतल पर व्याप्त हो गया। आर्य शास्त्रों की परम्परा में निगम शब्द का तात्त्पर्य 'वेद' माना गया है और आगम शब्द समस्त तन्त्र शास्त्रीय ग्रन्थों का परिचयात्मक माना जाता है।
यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि शिव-शक्ति द्वारा केवल आगमों का प्रकाशन नहीं किया गया, अपितु आगमों के अतिरिक्त यामल, डामर तथा तन्त्र के नाम से व्याप्त सभी साहित्य की सर्जना भी इन्हीं के द्वारा हुई है। तन्त्र-साहित्य में आम्नाय, सूत्र, संहिता, उड्डीश अर्णव, कल्प, मत, अष्टक, चूडामणि, चिन्तामणि आदि जो विभिन्न प्रकार का साहित्य उपलब्ध होता है, वह सभी इस दिव्य-दम्पती की दया का ही परिणाम है। अनन्त तन्त्र शास्त्र उनकी अपूर्व देन है।
माता की दया चराचर में प्रसिद्ध है। 'कुपुत्रो जायेत् क्वचिदपि कुमाता न भवति' यह उवित सर्वांश में सत्य है। भगवान् शिव 'भोले वावा' हैं। उनकी कृपा का क्या वर्णन किया जाए? वे तो मुवत रूप से भक्तों को कृपा-दान करते ही रहते हैं। इसी साहजिक स्वाभाविक प्रकृति के कारण तन्त्रों के माध्यम से लोक-कल्याणकारी अपूर्व ज्ञान की सृष्टि करने वाले दिव्य-दम्पती को हमारे कोटि-कोटि प्रणाम हैं-
याभ्यां व्याप्तं जगत्यामखिलजनिजुषां मङ्गलार्थ महीयः, शास्त्रं तन्त्राख्यामर्य विविधविधियुतं भोग-मोक्षकमूलम् । दिव्याभ्यां दम्पतीभ्यां परमकरुणयाऽऽपूरिताभ्याञ्च ताभ्यां, साष्टाङ्गाः सन्तु भवत्या दिकरणरसिताः कोटिशो नः प्रणामाः ।।
डॉo रुद्रदेव त्रिपाठी