श्रीदुर्गा नाम माहात्म्य

img25
  • धर्म-पथ
  • |
  • 04 April 2025
  • |
  • 0 Comments

डॉ. मदनमोहन पाठक (धर्मज्ञ)-

'मनुष्य शक्तिशाली होने की महत्वाकांक्षा रखता है' इसी सिद्धांत के अनुसार अपनी अपनी अभिरूचि को लक्ष्य करके सभी प्रयत्न कर रहे हैं। जगत के जितने भी विचार प्रधान प्राणी हैं, उनमें यह अभिकांक्षा स्वाभाविक रूप से दृष्टिगोचर होती है। इसी के अनुसार इस विषय के तत्वज्ञ, ऋषि, मुनि, आचार्य, गुरू आदि महापुरुषों ने भिन्न-भिन्न पथ निर्दिष्टकरके जगत को उक्त आकांक्षा की सिद्धि के लिये अग्रसर किया है। चाहे वे सारे मार्ग 'शाक्त' नामसे अभिहित न हो तथा उस मार्ग के अनुयायी ऐसा मानने में आनाकानी करें तथापि तत्वदृष्टि से वे सभी शाक्त ही हैं, क्योंकि वे अपनी अभिलषित वस्तु 'शक्ति' को चाहते हैं। 

'महत्ता' पदार्थ और शक्ति दोनों अविनाभाव सिद्ध हैं। अर्थात् इन दोनों में अटूट एवं अपूर्व सम्बन्ध है। यद्यपि जगत के सारे मार्ग तथा मनुष्य शाक्त ही हैं तथापि हमारे इस भारतवर्ष में यह शब्द एक विशिष्ट साधना पद्धति का वाचक है और उस पद्धति के अनुसार चलने वाले साधक को ही शाक्त कहते हैं। 

यह सनातन मार्ग अनादि काल सेहमारे देश में प्रचलित है। गुप्त प्रकट रूप में सभी जगह इसका अस्तित्व आज भी विद्यमान है। समय के फेर से इसके मूल स्वरूप में अवश्य ही विकृति हो गई है तथापि इसकी सत्ता में कोई शंका नहीं हो सकती। सारे जगत् के योग क्षेम की अधिष्ठात्री जगन्माता ही एक तत्व स्वरूप है। उसी की उपासना से जीव अपनी त्रुटियों को हटाकर पूर्णता लाभकर सकता है, ऐसा सिद्धांत है। उसके अनेक नाम रूप निर्दिष्ट हैं। तथापि दुर्गा' नाम सर्व प्रधान और भक्तों का अति प्रिय लगता है।

नामार्थः

दकार, उकार, रेफ, गकार और आकार इनवर्गों के योग से मन्त्र स्वरूप इस ' दुर्गा' नाम की निष्पत्ति होती है। इसका अर्थ इस प्रकार किया जाता है

दैत्यनाशार्थवचनो दकारः परिकीर्तितः। 

उकारो विघ्ननाशस्य वाचको वेदसम्मतः ॥ 

रेफो रोगघ्नवचनो गश्च पापघ्न वाचकः।

भय शत्रुघ्नवचनश्चाकारः परिकीर्तितः ॥

अर्थात्-दैत्यों के नाश के अर्थ को दकार बतलाता है, उकार विघ्न का नाशक वेद सम्मत है। रकार रोग का नाशक, गकार पाप का नाशक और अकार भय तथा शत्रु का विनाशक है। इस प्रकार ' दुर्गा नाम अपने अर्थ का यथार्थ बोधक है। इसी के अनुसार देव्युपनिषद में कहा गया है-

तामग्निवर्णा तपसा ज्वलन्ती, 

वैरोचनी कर्मफलेषु जुष्टाम्। 

दुर्गा देवीं शरणं प्रपद्यामहे ऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः 

अर्थ-अग्नितत्व के समानवर्ण (रंग) वाली अर्थात् लालवर्णवाली तपसा अपने ज्ञानमय रूप से प्रदीप्त, कर्म फलार्थियों द्वारा वैरोचिनी अग्नितत्व की शक्ति विशेष रूप से सेवनीय अथवा विरोचन द्वारा उपास्य श्री छिन्नमस्ता स्वरूप वाली श्री दुर्गा देवी की शरण को हम प्राप्त करें, जो असुरों का नाश करती है, उसे हमारा नमस्कार हो।

किंवा 'दुर्गा' ये तीनों वर्ण अग्नि वर्ण के नाम से प्रसिद्ध हैं, दकार को अत्रिनेत्रज याअत्रीश कहते है अतः बीजाभिधान के मत से यह वर्ण आग्नेय है। रेफ अग्निबीज प्रसिद्ध है। गकार की संज्ञा' पश्चान्तक' है। 

महाप्रलयाग्नि का बोधक होने से इसकी (गकार) यह संज्ञा है। इस प्रकार (अग्निवर्णा) यह 'दुर्गा' नाम उक्त मन्त्र से उधृत होता है। नाम तथा देवता के अभेद रूप से दोनों ही पक्षों में यह मन्त्र अपना स्वरूप बता रहा है। सर्वतोभावेन देवताओं के शरणभाव प्राप्त होने पर दुर्ग नामक असुर को मारने से श्री दुर्गा जी का नाम प्रसिद्ध हुआ है। यह सप्तशती में भी कहा गया है-

तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम्। 

दुगदिवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति ॥ (सप्तशती ११-४९)

अविमुक्तक काशी क्षेत्र में जीवों के मरने पर भगवान शंकर इसी पावन नाम का उपदेश देकर मुक्ति प्रदान करते हैं, यह प्रसंगमहाभागवत में नारद-शंकर संवाद में कहा गया है। इनउक्त प्रमाणों से दुर्गा नाम की महत्ता सार्थक रूप से अवगत होती है। इन्हीं अर्थो को लक्ष्य करके इस नाम की महिमा रुद्रयामल तन्त्र में भगवान शिव ने बताई है, जिसमें इसके जपने की संख्या एवं महत्व बताया गया है-

दुर्गा नाम जपो यस्य किं तस्य कथयामि ते 

अहं पञ्चाननः कान्ते तज्जपादेव सुव्रते ॥१ ॥

अर्थात् हे देवि! इस दुर्गा नाम की महिमा मैं क्या कहूँ। इसी के जप की वजह से मैं पञ्चानन कहा जाता हूँ।

धनी पुत्री तथा ज्ञानी चिरंजीवी भवेद्भुवी । 

प्रत्यहं यो जपेद् भक्त्या शतमष्टोत्तर शुचि ॥२

प्रतिदिन पवित्र होकर भक्तिपूर्वक अष्टोत्तरशत (एक सौ आठ) बार जो कोई इसे जपता है वह धनी, पुत्रवान, ज्ञानी तथा चिरंजीवी होता हैं।

अष्टोत्तरसहस्रं तु यो जपेद् भक्ति संयुक्तः। 

प्रत्यहं परमेशानि तस्य पुण्यफलं श्रृणु ॥३ ॥ 

धनार्थी धनमाप्नोति ज्ञानार्थी ज्ञानमेव च। 

रोगार्तो मुच्यते रोगात् बद्धो मुच्येत् बन्धनात् । ४। 

भीतो भयात्मुच्येत पापान्मुच्येत पातकी। 

पुत्रार्थी लभते पुत्रं देवि सत्यं न संशयः ॥५ ॥

हे देवि ! अष्टोत्तर सहस्र (१००८) कोई भक्ति से प्रतिदिन जपता है, उसके पुण्यफल को सुनो। धनार्थी धन, ज्ञानार्थी ज्ञान प्राप्त करते हैं, रोगात रोग से मुक्त होता है, कैदी बन्धन से मुक्त होता है, डरा हुआ भय से, प्राणी पाप से मुक्त होता है एवं पुत्रार्थी पुत्र प्राप्त करते है।

एवं सत्य विजानीहि समर्थः सर्व कर्मसु। 

अयुतं यो जपेत् भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरि ॥ ६ ॥

 निग्रहानुग्रहे शक्तः स भवेद् कल्पपादपः।

तस्य क्रोधे भवेन्मृत्युः प्रसादे परिपूर्णता ॥७ ॥ 

हे परमेश्वरी! दस हजार जो प्रतिदिन जप करते हैं, वे निग्रहानुग्रह करने में समर्थ हो जाते हैं तथा दूसरे कल्पवृक्ष हो जाते हैं। उसके क्रोध में मृत्यु तथा प्रसन्नता में परिपूर्णता होती है। इसी प्रकार सभी कर्म में वह समर्थ होता है, इसे सत्य ही समझो।

मासि मासि च यो लक्षं जपं कुर्याद् वरानने। 

न तस्य ग्रहपीडा स्यात् कदाचिदपि शांकरि ॥ 

न चैश्वर्यक्षयं याति नच सर्पभयं भवेत्। 

नाग्नि चौरभयं वापि न चारण्ये जले भयम् ॥ 

पर्वतारोहणे नापि सिंह व्याघ्रभयं तथा ।

भूतप्रेतपिशाचानां भयं नापि भवेत क्वचित् ॥ 

न च वैरिभयं कान्ते नापि दुष्टभयं भवेत्। 

परलोके भवेत् स्वर्गी सत्यं वै वीरवन्दिते ॥ 

चन्द्रसूर्यसमो भूत्वा वसेत् कल्पायुतं दिवि। 

वाजपेय सहस्रस्य यत् फलं स्याद् वरानने ॥ 

तत्फलं समवाप्नोति दुर्गा नाम जपात् प्रिये।

न दुर्गा नाम सदृशं नामास्ति जगती तले ॥ 

तस्मात् सर्व प्रयत्नेन स्मर्तव्यं साधकोत्तमैः । 

यस्य स्मरण मात्रेण पलायन्ते महापदः।

अर्थात् हे देवि ! प्रत्येक मास में जो लक्ष संख्या में जप करता है, उसे ग्रहपीड़ा नहीं होती, न उसका ऐश्वर्य ही नष्ट होता है, न उसे सर्प का भय होता है। अग्नि, चोर, अरण्य, जल आदि का भी भय नहीं होता, पर्वतारोहण में सिंह, व्याघ्र, भूत, प्रेत, पिशाच आदि का भय तो उसे होता ही नहीं। शत्रुभय तथा दुष्टभय नहीं होता और वह जापक स्वर्गसुख का भागी होता है। चन्द्र सूर्य के समान कल्पपर्यन्त वह द्यौलोक में रहता है। एक सहस्र वाजपेय यज्ञ करने का फल 'दुर्गा' नाम जप के प्रभाव से उसे मिलता है। दुर्गा नाम के सदृश इस संसार में और कोई नाम नहीं है। इसलिये प्रयत्नपूर्वक साधकों को यह नाम जपनाचाहिये। इसके स्मरण मात्र से सभी आपत्तियां भाग जाती है।

इन उक्त श्लोकों में जो अर्थ दुर्गा नाम के विषय में कहे गये है, वे केवल अर्थवाद या प्रशंसा ही नहीं है, प्रत्युत सर्वथा सत्य एवं अनुभवगम्य है। पुराणों में भी दुर्गा नाम के विषय में ऐसा ही कहा गया है। पद्म पुराण पुष्करखण्ड में लिखा है

'मेरुपर्वतमात्रोऽपि राशिः पापस्य कर्मणः।

कात्यायनी समासद्य नश्यति क्षणमात्रतः ॥'

दुर्गार्चनरतो नित्यं महापातक सम्भवैः ।

दोषैर्न लिप्यते वीरः पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥

मेरु के समान पापराशि भी श्री दुर्गा भगवती के शरण में आने पर नष्ट हो जाती है। दुर्गार्चनरत पुरुष पाप से इस प्रकार निर्लिप्त रहता है जैसे जल में कमल इस कलिकाल मेंनाम जप का बड़ा माहात्म्य है, अन्य साधन कठिन, दुरूह तथा सर्वसामान्य के लिये कष्टसाध्य हैं, उनमें नियमादि की कठिनता होने से सिद्ध सुलभ नहीं है। यह दुर्गा नाम सर्वथा सुलभ और महान फल देने वाला है। इसलिये इसका स्मरण सर्वदा करना चाहिये।

भूतानि दुर्गा भुवनानि दुर्गा, स्त्रियो नरश्चापि पशुश्च दुर्गा।

यद्यद्धि दृश्यं खलु सैव दुर्गा, दुर्गास्वरूपादपरं न किंचित् ॥



0 Comments

Comments are not available.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Post Comment