भगवान के प्रत्येक अवतार का एक विशिष्ट प्रयोजन होता है। श्रीदत्तात्रेय के अवतार में हमें असाधारण वैशिष्ट्य का दर्शन होता है। वे योगियों के परम ध्येय होने के कारण सर्वत्र गुरुदेव कहे जाते हैं। भगवान दत्तात्रेय का असाधारण कार्य है- अखण्ड रूप से ज्ञान दान करते रहना। इस प्रकार ये गुरु के रूप में अपने भक्तों को अध्यात्म-ज्ञान का उपदेश देकर सांसारिक दुख से मुक्त करके उनकी अविद्या की निवृत्ति करते हैं। ये भक्त के हृदयाकाश में प्रकाशित होकर उसके अज्ञान-रूपी अंधकार को नष्ट कर देते हैं। स्वत:सिद्ध प्रकाश से अपने स्वरूप में विराजमान रहने से ये देव कहलाते हैं।
सद्गुरुदेवदत्तात्रेयअवतार लेने से आज तक प्राणियों पर अनवरत उपकार एवं उनका उद्धार करते चले आ रहे हैं। उनके अवतार का प्रयोजन सृष्टि के अन्त तक विद्यमान रहेगा। मनुष्य का सबसे बडा शत्रु उसका अज्ञान ही है। ब्रह्माण्ड पुराण में वर्णित है कि सत्ययुग में गुरुपदेशपरम्परा के क्षीण एवं श्रुतियों के लुप्तप्रायहोने पर अपनी विलक्षण स्मरण-शक्ति द्वारा इनके पुनरुद्धार एवं वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना हेतु भगवान् श्रीविष्णु दत्तात्रेय के रूप में अवतीर्ण हुए।
कथानक है कि श्रीनारदजी के मुख से महासती अनसूया के अप्रतिम सतीत्व की प्रशंसा सुनकर उमा,रमा एवं सरस्वती ने ईष्र्यावश अपने-अपने पतियों को उनके पातिव्रत्य की परीक्षा लेने महर्षि अत्रि के आश्रम भेजा। सती शिरोमणि अनसूयाने पातिव्रत्य की अमोघ शक्ति के प्रभाव से उन साधुवेशधारीत्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु व महेश) को नवजात शिशु बनाकर वात्सल्य भाव से स्तनपान कराया और तदनन्तर तीनों देवियों की क्षमा-याचना व प्रार्थना पर उन्हें पूर्ववत् स्वरूप प्रदान कर अनुगृहीत किया। अत्रि व अनसूया का भाव समझकर त्रिदेव ने ब्रह्मा के अंश से रजोगुण प्रधान सोम, विष्णु के अंश से सत्त्वगुण प्रधान दत्त और शंकर के अंश से तमोगुण प्रधान दुर्वासा के रूप में माता अनसूया के पुत्र बनकर अवतार ग्रहण किए।
अत्रि मुनि का पुत्र होने के कारण आत्रेय और दत्त एवं आत्रेय के संयोग से दत्तात्रेय नामकरण हुआ। यज्ञोपवीत संस्कार के उपरान्त सोम व दुर्वासा ने अपना स्वरूप एवं तेज दत्तात्रेय को प्रदान कर तपस्या के निमित्त वन-प्रस्थान किया। वे त्रिमुख, षड्भुज, भस्मभूषित अंग वाले मस्तक पर जटा एवं ग्रीवा में रुद्राक्ष माला धारण किए हैं। त्रिमूर्तिस्वरूप में उनके निचले, मध्य व ऊपरी दोनों हाथ क्रमश: ब्रह्मा, महेश एवं विष्णु के हैं। वे योगमार्ग के प्रवर्त्तक,अवधूत विद्या के आद्य आचार्य तथा श्री विद्या के परम आचार्य हैं। इनका बीजमन्त्रद्रां है। सिद्धावस्था में देश व काल का बन्धन उनकी गति में बाधक नहीं बनता। वे प्रतिदिन प्रात:से लेकर रात्रिपर्यन्त लीला रूप में विचरण करते हुए नित्य प्रात: काशी में गंगा-स्नान, कोल्हापुर में नित्य जप, माहुरीपुर में भिक्षा ग्रहण और सह्याद्रि की कन्दराओं में दिगम्बर वेश में विश्राम (शयन) करते हैं। उन्होंने श्रीगणेश, कार्तिकेय, प्रह्लाद, यदु, सांकृति, अलर्क, पुरुरवा, आयु, परशुराम व कार्तवीर्य को योग एवं अध्यात्म की शिक्षा दी।
त्रिमूर्ति स्वरूप भगवान् श्री दत्तात्रेय सर्वथा प्रणम्य हैं: जगदुत्पत्तिकत्र्रे चस्थितिसंहारहेतवे। भवपाशविमुक्तायदत्तात्रेयनमोऽस्तुते॥
भगवान दत्तात्रेय के अवतार-चरित्र का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका आविर्भाव सृष्टि के प्रारंभिक सत्र में ही हो गया था। ब्रह्माजी के मानसपुत्र महर्षि अत्रि इनके पिता तथा कर्दम ऋषि की कन्या और सांख्यशास्त्र के प्रवक्ता कपिलदेव की बहिन सती अनुसूया इनकी माता थीं। भगवान दत्तात्रेय का प्रादुर्भाव महर्षि अत्रि के चरम तप का पुण्यफल तथा सती अनुसूयाके परम पतिव्रता होने का सुफल है। प्राचीन ग्रंथों में ऐसी कथा पढने को मिलती है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश जब परमसती अनसूया की अत्यन्त कठोर परीक्षा लेने उनके आश्रम में पहुँचे तो माता अनुसूया ने उन्हें अपने सतीत्व के तेज से शिशु बना दिया। इसी कारण दत्तात्रेय को त्रिदेवों की समस्त शक्तियों से सम्पन्न माना जाता है।
श्रीमद्भागवत में महर्षि अत्रि एवं माता अनुसूया के यहां त्रिदेवों के अंश से तीन पुत्रों के जन्म लेने का उल्लेख मिलता है। इस पुराण के मत से ब्रह्माजी के अंश से चन्द्रमा, विष्णुजी के अंश से योगवेत्तादत्तात्रेय और महादेवजी के अंश से दुर्वासाऋषि अनुसूया माता के गर्भ से उत्पन्न हुए लेकिन वर्तमान युग में ब्रह्मा-विष्णु-महेशात्मक त्रिमुखी दत्तात्रेय की उपासना ही प्रचलित है। इनके तीन मुख, छह हाथ वाला त्रिदेवमयस्वरूप ही सब जगह पूजा जा रहा है। दत्तमूर्ति के पीछे एक गाय तथा इनके आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं। औदुंबर वृक्ष के समीप इनका निवास बताया गया है। विभिन्न मठों, आश्रमों और मंदिरों में इनके इसी प्रकार के श्रीविग्रहों का दर्शन होता है।
योगियों का ऐसा मानना है कि भगवान दत्तात्रेय प्रात:काल ब्रह्माजी के स्वरूप में, मध्याह्न के समय विष्णुजी के स्वरूप में तथा सायंकाल शंकरजी के स्वरूप में दर्शन देते हैं। तभी तो शास्त्रों में इनकी प्रशंसा में कहा गया है- आदौ ब्रह्मा मध्येविष्णुरन्तेदेव: सदाशिव:।
संसार के बंधन से सर्वथा मुक्त तथा संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार के मूल कारण-स्वरूप भगवान दत्तात्रेय को मेरा नमस्कार है। मूर्तित्रय-स्वरूपायदत्तात्रेयनमोऽस्तुते॥ दिन के प्रारंभ में ब्रह्मा-रूप, मध्य में विष्णु-रूप और अन्त में सदाशिवरूप धारण करने वाले त्रिमूर्ति-स्वरूप भगवान दत्तात्रेय को नमस्कार है।
तन्त्रशास्त्र के मूल ग्रन्थ रुद्रयामल के हिमवत् खण्ड में शिव-पार्वती के संवाद के माध्यम से श्रीदत्तात्रेय के वज्रकवच का वर्णन उपलब्ध होता है। इसका पाठ करने से असाध्य कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं तथा सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। इस कवच का अनुष्ठान कभी भी निष्फल नहीं होता। इस कवच से यह रहस्योद्घाटन भी होता है कि भगवान दत्तात्रेय स्मर्तृ गामी हैं। यह अपने भक्त के स्मरण करने पर तत्काल उसकी सहायता करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ये नित्य प्रात:काशी में गंगाजी में स्नान करते हैं। इसी कारण काशी के मणिकर्णिका घाट की दत्तपादुका इनके भक्तों के लिये पूजनीय स्थान है। वे पूर्ण जीवन्मुक्त हैं। इनकी आराधना से सब पापों का नाश हो जाता है। ये भोग और मोक्ष सब कुछ देने में समर्थ हैं।
प्राचीनकाल से ही सद्गुरु भगवान दत्तात्रेय ने अनेक ऋषि-मुनियों तथा विभिन्न सम्प्रदायों के प्रवर्तक आचार्यो को सद्ज्ञान का उपदेश देकर कृतार्थ किया है। इन्होंने परशुरामजी को श्रीविद्या-मंत्र प्रदान किया था।
त्रिपुरारहस्य में दत्त-भार्गव-संवाद के रूप में अध्यात्म के गूढ रहस्यों का उपदेश मिलता है। ऐसा भी कहा जाता है कि शिवपुत्र कार्तिकेय को दत्तात्रेयजी ने अनेक विद्याएं प्रदान की थीं। भक्त प्रह्लाद को अनासक्ति-योग का उपदेश देकर उन्हें अच्छा राजा बनाने का श्रेय इनको ही जाता है। सांकृति-मुनि को अवधूत मार्ग इन्होंने ही दिखाया। कार्तवीर्यार्जुन को तन्त्रविद्या एवं नार्गार्जुन को रसायन विद्या इनकी कृपा से ही प्राप्त हुई थी। गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायाम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का मार्ग भगवान दत्तात्रेय ने ही बताया था।
परम दयालु भक्तवत्सल भगवान दत्तात्रेय आज भी अपने शरणागत का मार्गदर्शन करते हैं और सारे संकट दूर करते हैं। दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित हैं। इसीलिए उन्हें ‘श्री गुरुदेवदत्त’ भी पुकारते हैं, जिनकी सेवा विभिन्न मार्गों से दत्त भक्तों द्वारा की जाती है, जिसमें गुरुचरित्र का पाठ भी शामिल है, जो मार्गशीर्ष शुद्ध 7 से मार्गशीर्ष 14, यानी दत्त जयंती तक पढ़ा जाता है।
मार्गशीर्ष-पूर्णिमा इनकी प्राकट्य तिथि होने से हमें अंधकार से प्रकाश में आने का सुअवसर प्रदान करती है। इसके कुल 52 अध्याय में कुल 7491 पंक्तियाँ हैं। ‘गुरुचरित्र’ वेदतुल्य माना गया है। इसमें श्री पाद, श्री वल्लभ और श्री नरसिंह सरस्वती की अद्भुत लीलाओं व चमत्कारों का वर्णन है। इस ग्रंथ का वाचन चार तरह से किया जाता है। कुछ लोग प्रतिदिन निश्चित 51 या 100 पंक्तियाँ, तो कुछ केवल 5 पंक्तियाँ ही पढ़ते हैं। कुछ लोग साल में केवल एक बार ही इसे एक दिन में या तीन दिन में पढ़ते हैं जबकि अधिकांश लोग दत्त जयंती पर मार्गशीर्ष शुद्ध 7 से मार्गशीर्ष 14 पर पढ़कर पूरा करते हैं। अधिकांश दत्त मंदिरों और दत्तभक्तों के यहाँ ‘गुरुचरित्र’ का श्रद्धा-भक्ति के साथ पाठ और इसी के साथ दत्त महामंत्र ‘श्री दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा’ का सामूहिक जप भी सुनाई देता है।
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