श्रीमती चेतना त्यागी (सलाहकार संपादक )
पवित्रतम प्रेम-सुधामयी श्रीराधा ने प्रियतम प्रेमार्णव श्रीश्यामसुन्दर के दर्शन करके सर्वसमर्पण कर दिया। अब वे आठों पहर उन्हीं के प्रेम-रस-सुधा-समुद्र में निमग्न रहने लगीं। श्यामसुन्दर मिलें-न-मिलें- इसकी तनिक भी परवा न करके वे रात-दिन अकेले में बैठी मन-ही-मन किसी विचित्र दिव्य भावराज्य में विचरण किया करतीं। न किसी से कुछ कहतीं, न कुछ चाहतीं, न कहीं जातीं आतीं। एक दिन एक अत्यन्त प्यारी सखी ने आकर बहुत ही स्नेह से इस अज्ञात विलक्षण दशा का कारण पूछा तथा यह जानना चाहा कि वह सबसे विरक्त होकर दिन-रात क्या करती है।
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यह सुनकर श्रीराधा के नेत्रों से अश्रुबिन्दु गिरने लगे और वे बोलीं- 'प्रिय सखी! हृदय की अति गोपनीय यह मेरी महामूल्यमयी अत्यन्त प्रिय वस्तु, जिसका मूल्य मैं भी नहीं जानती, किसी की दिखलाने, बतलाने या समझाने की वस्तु नहीं है; पर तेरे सामने सदा मेरा हृदय खुला रहा है। तू मेरी अत्यन्त अन्तरङ्गा, मेरे ही सुख के लिये सर्वस्वत्यागिनी, परम विरागमयी, मेरे राग की मूर्तिमान् प्रतिमा है, इससे तुझे अपनी स्थिति, अपनी इच्छा, अभिलाषा का किंचित् दिग्दर्शन कराती हूँ। सुन-
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'प्रिय सखी! मेरे प्रभु के श्रीचरणों में मैं और जो कुछ भी मेरा था, सब समर्पित हो गया। मैंने किया नहीं, हो गया। जगत् में पता नहीं किस काल से जो मेरा डेरा लगा था, वह सारा डेरा सदा के लिये उठ गया। मेरी सारी ममता सभी प्राणी-पदार्थ-परिस्थितियों से हट गयी, अब तो मेरी सम्पूर्ण ममता का सम्बन्ध केवल एक प्रियतम प्रभु से ही रह गया। जगत्में जहाँ कहीं भी, जितना भी, जो भी मेरा प्रेम, विश्वास और आत्मीयता का सम्बन्ध था, सब मिट गया। सब ओर से मेरे सारे बन्धन खुल गये। अब तो मैं केवल उन्हीं के श्रीचरणों में बँध गयी। उन्हों में सारा प्रेम केन्द्रित हो गया। उन्हीं का भाव रह गया।
यह सारा संसार भी उन्हों में विलीन हो गया। मेरे लिये उनके सिवा किसी प्राणी-पदार्थ-परिस्थिति की सत्ता ही शेष नहीं रह गयी, जिससे मेरा कोई व्यवहार होता। पर सखी! मैं नहीं चाहती मेरी इस स्थिति का किसी को कुछ भी पता लगे। और तो क्या, मेरी यह स्थिति मेरे प्राणप्रियतम प्रभु से भी सदा अज्ञात ही रहे। प्यारी सखी! मैं सुन्दर सरस सुगन्धित सुकोमल सुमन से (सुन्दर मन से) सदा उनकी पूजा करती रहती हूँ, पर बहुत ही छिपाकर करती हूँ; मैं सदा इसी डर से डरती रहती हूँ, कहीं मेरी इस पूजा का प्राणनाथ को पता न चल जाय।
मैं केवल यही चाहती हूँ कि मेरी पवित्र पूजा अनन्त कालतक सुरक्षित चलती रहे। मैं कहीं भी रहूँ, कैसे भी रहूँ, इस पूजा का कले अन्त न हो और मेरी यह पूजा किसी दूसरे को - प्राण-प्रियतम को भी आनन्द देने के उद्देश्य से न हो, इस मेरी पूजा से सदा-सर्वदा में ही आनन्द-लाभ करती रहूँ। इस पूजा में ही मेरी रुचि सदा बढ़ती रहे, इसी से नित्य ही परमानन्द की प्राप्ति होती रहे। यह पूजा सदा बढ़ती रहे और यह बढ़ती हुई पूजा ही इस पूजा का एकमात्र पवित्र फल हो। इस पूजा में मैं नित्य-निरन्तर प्रियतम के अतिशय मनभावन पावन रूप-सौन्दर्य को देखती रहूँ। पर कभी भी वे प्रियतम मुझको और मेरी पूजा को न देख पायें। वे यदि देख पायेंगे तो उसी समय मेरा सारा मजा किरकिरा हो जायगा। फिर मेरा यह एकाङ्गी निर्मल भाव नहीं रह सकेगा। फिर तो प्रियतम से नये-नये सुख प्राप्त करने के लिये मन में नये-नये चाव उत्पन्न होने लगेंगे।'
'यों कहकर राधा चुप हो गयीं, निर्निमेष नेत्रों से मन-ही-मन प्रियतम के रूप-सौन्दर्य को देखने लगी।
हुआ समर्पण प्रभु-चरणों में जो कुछ था सब, मैं, मेरा।
अग-जगसे उठ गया सदा को चिरसंचित सारा डेरा ।।
मेरी सारी ममता का अब रहा सिर्फ प्रभु से सम्बन्ध ।
प्रीति, प्रतीति, सगाई सबही मिटी, खुल गये सारे बन्ध ॥
प्रेम उन्हीं में, भाव उन्हींका, उनमें ही सारा संसार।
उनके सिवा, शेष कोई भी बचा न, जिससे हो व्यवहार ।।
नहीं चाहती जाने कोई, मेरी इस स्थिति की कुछ बात ।
मेरे प्राणप्रियतम प्रभुसे भी यह सदा रहे अज्ञात ॥
गीता प्रेस के श्री राधा चिंतन से साभार:
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