श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
भूमि पूजा में मन्त्र पढ़ा जाता है कि पृथ्वी का विष्णु ने धारण किया है।
पृथिवी त्वया धृता लोकाः, देवि! त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि! पवित्रं कुरु चासनम्॥
यह कई वेद मन्त्रों का सारांश है-
मही द्यौः पृथिवी च इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः॥१३॥
अतो देवा अवन्तु नो, यतो विष्णुर्विचक्रमे। पृथिव्याः सप्त धामभिः॥१६॥
(ऋक्, १/२२/१३, १६)
विष्णोर्नु (नु = निश्चयार्थक, जैसे भोजपुरी में) कं वीर्याणि प्र वोचं, यः पार्थिवानि विममे रजांसि (रजांसि = पृथ्वी से आरम्भ कर ७ लोक)। (ऋक्, १/१५४/१)
त्रिर्देवः पृथिवीमेष एतां वि चक्रमे शतर्चसं महित्वा।
प्र विष्णुरस्तु तवसस्तवीयान्त्वेश्गं ह्यस्य स्थविरस्य नाम॥३॥
वि चक्रमे पृथिवीमेष एतां क्षेत्राय विष्णुर्मनुषे दशस्यन् ॥४॥ (ऋक्, ७/१००/३, ४)
विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा पृथिवी संशितोऽग्नि तेजाः।
पृथिवीमनु वि क्रमेऽहं पृथिव्यास्तं निर्भजामो योऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः।
स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु॥ (अथर्व, १०/५/२५)
सूर्य के कई प्रकार के क्रमों का वर्णन अथर्व सूक्त (१०/५) में है-
क्रमु पाद विक्षेपे (धातुपाठ १/३१९)-
१. आक्रमते, क्रम्यते-निर्भयता से जाना, रक्षण करना, बढ़ना।
२. आक्रम-उगना, उदित होना।
३. उपक्रम-आरम्भ करना।
४. विक्रम-पद गिनते जाना।
५. व्याक्रम-अतिक्रमण करना, आज्ञा भङ्ग करना।
६. अतिक्रम-बाहर जाना।
७. आक्रम-जय पाना, अधिक होना।
८. उत्क्रम-अतिक्रमण करना, आज्ञा भंग करना।
९. उपक्रम-निकल जाना।
१०. निष्क्रम-आगे जाना।
११. पराक्रम-वीरता दिखाना, अन्य को पार करना।
१२. प्रक्रम-निकल जाना, समीप आना।
१३. परिक्रम-घूमना, चक्कर लगाना।
१४. विक्रम-जीतना, ऊपर जाना।
१५. संक्रम-स्थानान्तर करना, अन्य जगह जाना।
सूर्य केन्द्रित चक्रों के रूप में ३ चक्र सौर मण्डल के भीतर हैं, जो विष्णु के ३ पद हैं। प्रथम पद पृथ्वी कक्षा तक है, जो अग्नि या ताप क्षेत्र है। द्वितीय पद यूरेनस कक्षा तक वायु क्षेत्र है। यह सूर्य से ३,००० सूर्य व्यास तक है (मेरा २००० ई. का मेलकोट शोध संस्थान में प्रकाशित लेख)। इसका पता नासा के कासिनी यान द्वारा २००७ में चला। उसके बाद पृथ्वी व्यास के २ घात ३० गुणा तक सौर मण्डल है, जहां तक सूर्य का प्रकाश ब्रह्माण्ड से अधिक है।
(१) ताप क्षेत्र-सौर मण्डल में सूर्य व्यास को योजन कहा है।
शत योजने ह वा एष (आदित्य) इतस्तपति (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद्, ८/३)
स एष (आदित्यः) एक शतविधस्तस्य रश्मयः। शतविधा एष एवैक शततमो य एष तपति (शतपथ ब्राह्मण, १०/२/४/३)
यहां का घोर ताप क्षेत्र रुद्र है-घोरो वै रुद्रः। (कौषीतकि ब्राह्मण, १६/७)
तद्यदेतं शतशीर्षाणं रुद्रमेतेनाशमयंस्तस्माच्छतशीर्षरुद्र शमनीयं शत शीर्षरुद्र शमनीयं ह वै तच्छतरुद्रियमित्याचक्षते परोऽक्षम्। (शतपथ ब्राह्मण, ९/१/१/७)
(२) वायु क्षेत्र-वायु क्षेत्र को इषा कहा गया है-
इ॒षे त्वा ऊर्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ (यजुर्वेद का आरम्भ)।
सौर मण्डल में ईषा दण्ड का क्षेत्र या परिधि १८,००० योजन (योजन = सूर्य व्यास) कहा गया है-
योजनानां सहस्राणि भास्करस्य रथो नव।
ईषादण्डस्तहैवास्य द्विगुणो मुनिसत्तम॥ (विष्णु पुराण, २/८/२)
इसकी त्रिज्या प्रायः ३००० सूर्य व्यास होगी जो यूरेनस कक्षा तक है।
(३) तेज क्षेत्र-३० धाम तक सूर्य की वाक् है जहां तक वह वि-राजते = अधिक प्रकाशित है-
त्रिं॒शद्धाम॒ वि रा॑जति॒ वाक् प॑त॒ङ्गाय॑ धीयते । प्रति॒ वस्तो॒रह॒ द्युभिः॑ ॥
(ऋक्, १०/१८९/३, साम, ६३२, १३७८, अथर्व, ६/३१/३, २०/४८/६, वा. यजु, ३/८, तैत्तिरीय सं, १/५/३/१)
पृथ्वी से आरम्भ कर हर धाम क्रमशः २-२ गुणा बड़े हैं। अतः सौर मण्डल का व्यास पृथ्वी व्यास का २ घात ३० गुणा है। ...द्वात्रिंशतं वै देवरथाह्न्यन्ययं लोकस्तं समन्तं पृथिवी द्विस्तावत्पर्येति तां समन्तं पृथिवीं द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति..... (बृहदारण्यक उपनिषद्, ३/३/२)
(४) तीनों क्षेत्र-अग्नि वायु रविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थं ऋज्-यजुः साम लक्षणम्॥ (मनु स्मृति, १/२३)
इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥ (ऋक्, १/२२/१७)
(५) विष्णु रूपी सूर्य का परम पद सूर्यों का समूह (ब्रह्माण्ड, गैलेक्सी) सूरयः है। सूरयः का अर्थ विद्वान् भी है क्योंकि ब्रह्माण्ड में जितने नक्षत्र हैं, उतने मनुष्य शरीर में लोमगर्त्त (कलिल, cell) हैं (शतपथ ब्राह्मण, १०/४/४/२, १२/३/२/५)।
तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥ (ऋक्, १/२२/२०)
ख व्योम ख-त्रय क-सागर षट्क नाग व्योमाष्ट शून्य यम-रूप नगाष्ट चन्द्राः।
ब्रह्माण्ड सम्पुटपरिभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरा दिनकरस्य कर प्रसाराः॥ (सूर्य सिद्धान्त, १२/९०)
शिव क्षेत्र-सूर्य से तेज निकलना उसका रुदन है; सौर मण्डल का क्षेत्र रोदसी मण्डल है। ब्रह्माण्ड के खर्व संख्यक नक्षत्रों के सम्मिलित रुदन को क्रन्दन कहते हैं; और वह क्षेत्र क्रन्दसी मण्डल है। उसके बाहर विश्व के अनन्त विस्तार में रुदन या क्रन्दन से कोई अन्तर नहीं होता, वह संयती मण्डल या क्षेत्र है।
यदरोदीत् (प्रजापतिः) तदनयोः (द्यावा-पृथिव्योः) रोदस्त्वम् । (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/२/९/४)
(वाजसनेयी यजुर्वेद, ११/४३,१२/१०७)
इमे वै द्यावापृथिवी रोदसी । (शतपथ ब्राह्मण, ६/४/४/२, ६/७/३/२, ७/३/१/३०)
इमे ( द्यावापृथिव्यौ) ह वाव रोदसी । (जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण, १/३२/४)
द्यावापृथिवी वै रोदसी । (ऐतरेय ब्राह्मण, २/४१)
यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने (ऋग्वेद, १०/१२१/६, वाजसनेयी यजुर्वेद, ३२/७, तैत्तिरीय संहिता, ४/१/८/५)
यं क्रन्दसी संयती विह्वयेते (ऋग्वेद, २/१२/८)
सूर्य से पृथ्वी कक्षा तक घोर ताप है, वह रुद्र भाग है। उसके बाद शिव क्षेत्र में शान्त तेज का आरम्भ होता है जहां जीवन सम्भव है।
या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा ऽपापकाशिनी। तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्तामि चाकशीहि॥
(वाजसनेयी सं. १६/२, श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३/५)
स्रोत को शीर्ष कहते हैं (द्रव गतिकी में हेड, या गीता १५/१-ऊर्ध्वमूलं अधः शाखं अश्वत्थं प्राहुरव्ययम्)। पृथ्वी चन्द्र कक्षा के केन्द्र में है, अतः शिव के ललाट पर चन्द्र है।
शत योजने ह वा एष (आदित्य) इतस्तपति (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद्, ८/३)
स एष (आदित्यः) एक शतविधस्तस्य रश्मयः । शतविधा एष एवैक शततमो य एष तपति (शतपथ ब्राह्मण, १०/२/४/३)
सूर्य से १००० व्यास दूरी तक अधिक शान्त शिवतर क्षेत्र है।
नमः शिवाय च शिवतराय च (वाजसनेयी सं. १६/४१, तैत्तिरीय सं. ४/५/८/१, मैत्रायणी सं. २/९/७)
उसके बाद सौर मण्डल की सीमा तक शिवतम क्षेत्र है।
यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। (अघमर्षण मन्त्र, वाजसनेयी सं. ११/५१)
सौर मण्डल के बाहर सदा शान्त रूप सदाशिव है। वह ब्रह्माण्ड के अप् की तरङ्ग (अम्भ) से मिल कर साम्ब-सदाशिव हो जाता है।
सदाशिवाय विद्महे, सहस्राक्षाय धीमहि तन्नो साम्बः प्रचोदयात्। (वनदुर्गा उपनिषद्, १४१)