यद्यपि गोस्वामीजी एकनिष्ठ राम के भक्त थे-
एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास । एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास ॥
किन्तु उन्होंने शिवजी को भी रामके ही रूपमें देखा है। उन्होंने राम और शिव में किसी प्रकार का कोई भेद नहीं माना है-
संकर-प्रिय मम द्रोही, सिव-द्रोही मम दास । ते नर करहिं कलप भरि, घोर नरक मुँह बास ।।
विनयपत्रिकाके प्रारंभमें यद्यपि उन्होंने सब देवताओं में अपनी अत्यन्त विनयपूर्ण श्रद्धा दिखलाई है किन्तु अन्त में सबसे याचना 'रामचरणरति' की ही की है। वे सारी सृष्टि को ही 'सियाराममय' मानते थे इसलिये उनके सामने कोई पराया रह ही नहीं गया था। इसी रूप में उन्होंने भक्ति का लोकमंगलकारी स्वरूप स्थापित किया
सियाराम मय सब जग जानी। करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥
किन्तु साथ-साथ विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त का भी उन्होंने आभास दे दिया था कि सीताजी तो प्रकृति (अचित्) हैं और राम साक्षात् ब्रह्म (चित्) हैं। ये चित् और अचित् दोनों एक ही हैं-
गिरा अरथ जल बोचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न । बन्दों सीता-राम पद, जिनहिं परम प्रिय खिन्न ।।
गोस्वामीजीके बहुत अन्ध प्रसिद्ध हैं किन्तु बारह अन्य ही उनके मान्य समझे जाते हैं- दोहावली, कवित्तरामायण, गीतावली, रामचरित-मानस, रामाज्ञा-प्रश्नावली, विनयपत्रिका, रामलला नहछू, पार्वतीमंगल, जानकी मंगल, बरवै-रामायण, वैराग्य-संदीविनी और कृष्ण-गीतावली। इनके अतिरिक्त शिवसिंहसरोजमें रामसतसई, संकटमोचन, हनुमानबाहुक, रामशलाका, छन्दावली, छप्पय-रामायण, कड़खा-रामायण, झूलना-रामायण और कुंडलिया-रामायण का नाम भी गिनाया गया है।
गोस्वामी तुलसीदास जी के सम्बन्ध में बहुत-सी कथाएँ भी प्रचलित हैं कि उन्होंने किसी स्त्री के मृत पति को जिला दिया था, हनुमान्जी ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिया था और चित्रकूट में राम-लचमण के दर्शन कराए थे, जिसके कारण यह दोहा प्रचलित हो गया -
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन को भीर । तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर ॥
कहा जाता है कि एक बार जहाँगीर ने उन्हें बुलवाकर चमत्कार दिखाने को कहा। न दिखाने पर जब वे बन्दी कर लिए गए तब सारे दुर्ग में बन्दर ही बन्दर छा गए और उन्होंने दुर्ग में रहने वालों को संत्रस्त कर दिया। यह भी कथा है कि गोस्वामी तुलसीदास काशी में जहाँ रहते थे वहाँ रात को एक बार चोर आए और उन्होंने देखा कि धनुप-बाण धारण किए हुए दो राजकुमार उनका पहरा दे रहे हैं। यह कथा सुनकर तुलसीदासजी ने अपने पास का सब कुछ बाँट दिया। एक बार जब डकैतों ने उन्हें घेरा तय उन्होंने कहा-
बासरि ढासनि के ढका, रजनी चहुँ दिसि चोर । दलत दयानिधि देखिए, कपि-केसरी किसोर ॥
[ हे हनुमान्जी ! दिन में तो धूतों और रात को चोरों से पीड़ित मुझ –तुलसीदास की रखवाली कृपा करके कीजिए । ]
इस पर हनुमानजी प्रकट हो गए और उन्हें देखते ही डकैत मूच्छित होकर गिर पड़े। कहा जाता है कि घर छोड़ने के थोड़े दिन पश्चात् एक बार वे अपनी ससुराल गए जहाँ उनकी पत्नी ने कहा-
कटिकी खीनी कनक-सी, रहत सखिन सेग सोय । मोहिं फटे को डर नहीं, अनत कटे डर होय ॥
[ में तो रूपवती और सुन्दरी होने पर भी अपनी सखियों के साथ सोकर समय बित्ता लेती हूँ इसलिये मुझे तो अपने हृदय फटने का डर नहीं है। पर डर यही है कि आपकी रात कहीं और न कटने लगे ।]
इस व्यंग्य पर तुलसीदासजी ने कहा-
घंटे एक रघुनाथ संग, बाँधि जटा सिर केस । हम तौ चाखा प्रेम-रस, पत्नी के उपदेस ॥
इस प्रकार एक बार वृद्धावस्था में भी ये अपनी ससुराल गए किन्तु इन्होंने वृद्धा पत्नी को नहीं पहचाना। उस समय इनकी पत्नी ने अपना परिचय देते हुए कहा-
खरिया खरी कपूर लौ, उचित न पिय तिय त्याग । के खरिया मोहिं मेलिकै, अचल करौ अनुराग ॥
[ जैसे आपने अपनी खरिया (झोली) में खड़िया और कपूर तक को स्थान दे दिया वैसे ही हे प्रिय! आप स्त्री का भी त्याग न कीजिए और या तो मुझे भी खरिया में रख लीजिए या सब कुछ छोवकर अब भगवान् का प्रेम ही अन्चल कर लीजिए । ]
यह सुनकर तत्काल उन्होंने वह झोली भी एक ब्राह्मण को दे दी।
कहा जाता है कि भाषा में रामचरित मानस लिखने पर काशी के पंडितों ने उन्हें बड़ा त्रस्त किया किन्तु जब साक्षात् विश्वनाथजी ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए तब वह प्रमाण मान लिया गया। उन्होंने स्वयं कहा है-
का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच । काम जो यावहि कामरी, का ले करें कुमाँच ॥
तुलसीदास जी एक बार वृन्दावन गए। वहाँ साधुओं की पंगत हो रही थी। वहाँ भीड़ होने के कारण तुलसीदास जी जूनों के पास जा बैंटे। जब लोग उन्हें परसने लगे तो उनसे पूछा- 'आप किस पात्र में लेंगे ?' उन्होंने एक महात्मा का जूता उठाकर कहा- 'इसी में दे दीजिए' । इस विनयशीलता पर नाभादासजी ने उन्हें अपने गले लगा लिया। इसी प्रसंग में जब वे कृष्णजी के मन्दिर में दर्शन करने गए और वहाँ कृष्ण की त्रिभंगी मूर्ति देखी तो कहा-
का बरनों छवि आपकी, भले बने ही नाथ । तुलगी मम्तक तब नर्व, धनुष-बान लो हाथ ॥
इस पर कहा जाता है कि मृत्ति ने मुरली छोड़कर धनुप-बाण धारण कर लिया। यह घटना सत्य हो या न हो किन्तु इसका तात्पर्य यही है कि गोस्वामी जी अपने इष्टदेव को सदा ऐसा शक्ति-समन्वित देखना चाहते थे जो शत्र हाथ में लेकर अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार कर सके। अपने इष्टदेव को वे जिस रूप में मानते थे वह उन्हीं के शब्दों में सुनिए-
राम हैं मातु पिता गुरु बन्धु औ संगी सखा सुत स्वामि सनेही ।
रामकी सौंह भरोसो है रामको राम रंग्यो रुचि राच्यो न केही ॥
जीयत राम मरे पुनि राम, सदा गति रामहिकी एक जेही ।
सोइ जिये जगमे तुलसी, नतु डोलत और मुए धरि देही ॥
इस प्रकार लगभग एक शताब्दितक अपने पुण्य शरीर से लोक-मंगल करते हुए वे रामचरितमानस के रूप में जो अपना यशःशरीर छोड़ गए हैं वह भारत को ही नहीं विश्व भर को सदा सर्वदा के लिये उत्साह और नवजीवन प्रदान करता रहेगा। इसलिये रहीम ने उनके लिये ठीक ही कहा था-
गोद लिए हुलसी फिरे तुलसी सो सुत होय ।
आचार्य पंडित सीताराम चतुर्वेदी