प्रलय का जल बेरखा नदी-तट पर बसी सुषा नगरी तक नहीं पहुंचा था। फिर भी लोग कुछ मर गए, कुछ छोड़कर चले गए। सुषानगरी, जो मन्युपुरी भी कहाती थी, उजाड़ और वीरान बहुत दिन तक पड़ी रही। उसपर पांच फुट मोटा धूलि-स्तर जम गया। इसके बाद जब स्वायंभुव मनु के अन्तिम प्रजापति दक्ष का अधि-कार समाप्त हुआ, तब दक्ष की पुत्री अदिति का पुत्र वरुण; सूर्य का सबसे बड़ा भाई, सुषानगरी में आया। उसने उसे खुदवाकर साफ किया-धूल-मिट्टी दूर की। ऊंची-नीची भूमि समतल की। रुके हुए जलों को नहर खुदवाकर समुद्रों में बहा दिया और सुषा-प्रदेश और मेसोपोटामिया में आदित्यों की बस्तियां बसाई ।
ज्ञात हो, अदिति से मरीचि को बारह पुत्र हुए, जो आदित्य कहाए। वरुण उनमें सबसे बड़े और सूर्य सबसे छोटे थे। परन्तु आगे चलकर जैसे सूर्यकुल ने आर्य जाति का निर्माण किया, उसी प्रकार वरुण ने सुमेर जाति को जन्म दिया। यह सुमेर जाति - सुमेर-सभ्यता की प्रस्तारक और ईरान की प्राचीनशासक हुई। संसार के पुरातत्वविद् डाक्टर के कफोर्ट और लॅग्डन आदि कहते है कि प्रोटोइलामाइट सभ्यता का ही विकसित रूप सुमेरु-सभ्यता है; अर्थात् प्रोटोइलामाइट सभ्यता से ही सुमेरु-सभ्यता का जन्म हुआ। प्रोटोइलामाइट जाति प्रलय के कारण स्वदेश वापस चली गई और वहां इसकी सभ्यता का विकास हुआ। इस विकसित सभ्यता का ही नाम सुमेरु-सभ्यता हुआ। सुमेरु जाति फिर प्रोटोइलामाइट लोगों के निवास स्थान पर इलाम और मेसोपोटामिया में वस गई। प्रोटोइलामाइट जाति का स्वदेश कौन था और वह प्रलय के बाद कहां चली गई, तथा कहां से पुनः सुमेरु-सभ्यता को लेकर मेसोपोटामिया में आ गई, संसार के पुरातत्वविद् अभी इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाए हैं। परन्तु इस प्रश्न का उत्तर हमारे पुराणों में है, और वह यह कि जिसे प्रोटोइलामाइट जाति कहा गया है वह चाक्षुष जाति थी, जिसके छः महारथियों ने बलोचिस्तान और ईरान होते हुए इलाम और मेसोपोटामिया को जय करके अपने राज्य स्थापित किए थे तथा वह भारतवर्ष के ही दक्षिण-पश्चिम इलाके में उससे पूर्व विकसित हुई थी। तथा सुमेरु-सभ्यता के संस्थापक-एक प्रकार से दुबारा नई सृष्टि रचने वाले - सूर्य के ज्येष्ठ भाई वरुण थे, और उन्हें ही ब्रह्मा के नाम से विख्यात किया गया है। यह एक मार्के की बात है कि केवल सूर्य के ही वंशधर भारत में आर्य जाति में संगठित हुए। परन्तु शेष ग्यारहों आदित्य ईरान, मिश्र, पैलेस्टाइन, अरब और चीन, तिब्बत तक फैल गए। इन सबने देव जाति का संगठन किया। संक्षेप में देव का अर्थ है- आदित्य । मन्युपुरी वरुण के काल में सुषा के नाम से विख्यात रही, पीछे इन्द्रपुरी अमरावती के नाम से विख्यात हुई ।
पाश्चात्य जन वरुण को लार्ड क्रियेटर कहते हैं जिसका अर्थ है देवकर्तार ब्रह्मा । अवेस्ता में वरुण को अरूंज्द कहा है। इलोहिम - इलाही भी वरुण ही को कहते थे। इलाही या इलोहिम का अर्थ है इलावत के उपास्य देव- वरुण। शत-पथब्राह्मण में और जैनेसिस के इतिहास में समान रूप से कहा गया है कि वरुणदेव ने पृथ्वी और आकाश को सम किया। वरुण ने प्रलय के रुके हुए जलों को समुद्र से नहीं खुदवाकर बहा दिया- समुद्रों की सीमा बांधी- जल को अधिकार में किया
- पृथ्वी को सूखी, नम और उपजाऊ बनाकर उसमें बीज बोए। इसी से वरुण को जलों का देव कहते हैं।
उन दिनों अरब और फारस के बीच का सारा इलाका सुषा स्थान कहाता था। इसीको छल देश- चल्डिया कहते थे। वरुण का एक नाम अवेस्ता में 'उरमज्द' भी प्रसिद्ध है। नवीन सृष्टि रचने और देवों का - आदित्यों का ज्येष्ठ पुरुष होने से वरुण को ब्रह्मा कहा जाता है, तथा जल का विभाजन करने से नारायण कहा गया है। जल को संस्कृत में नारा भी कहते हैं। श्रीनार क्षीर-सागर-सिरी का समुद्र - पशिया की खाड़ी और उरमजसागर का नाम था। मत्स्य-पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने ब्रह्माण्ड के अर्थात् अपने राज्य के दो खण्ड किए - एक ऊपर का पार्वत्य प्रदेश-खण्ड, दूसरा नीचे का भूमिखण्ड। ऊपर का खण्ड स्वर्ग और नीचे का भूमि कहाया। ठीक इसी पुराण के अनुसार ही, जैनेसिस आदि पाश्चात्य पुराण-शास्त्री भी कहते हैं। वरुण या अवेस्ता में ब्रह्मा को 'उरमज्द' कहा गयाहै। यह 'उर महाध्य' का बिगड़ा नाम है जो पुराणों में आया है। पुराणों में ब्रह्म-संकट का उल्लेख है। यह वह घटना है जब ब्रह्मा ने जलों को दो समुद्रों में विभाजित किया। अंग्रेज इतिहासकार जैनेसिस कहता है- 'इलाही ने कहा है कि जल से जल पृथक होना चाहिए ।' इसके लिए एक शब्द अंग्रेजी का है Ordeal; इस शब्द का अर्थ कोष में लिखा है- जल और अग्नि की परीक्षा । जैनेसिस कहता -है- 'इलाही ने कहा- स्वर्ग के जलों को एक जगह एकत्र होने दो और शेष पृथ्वी को सूखने दो ।'
प्राचीन ईरानी इतिहासकार और अवेस्ता दोनों ही में स्वीकार किया गया है कि वरुण लोग वरुण को हो सृष्टि का रचयिता मानते हैं। प्राचीन ईरान के कापाडोसिया प्रान्त में इन्द्र और वरुण की शपथ के शिलालेख मिले हैं। वरुण के इस समूचे साम्राज्य का नाम पहले अमरदेश था और सुषा का नाम अमरावती भी था । अब भी वहां के प्राचीन अमरों के वंशघरों की अमरेह जाति वसती है। पीछे मनुपुत्री इला के नाम पर इस प्रदेश का नाम एलम या इलावर्त हुआ। आज-कल यह प्रदेश किरमान इलाका कहाता है यही सुमेरु-सभ्यता का केन्द्र सुमेरु-साम्राज्य था। यह स्थान फारस की खाड़ी के ऊपर है। जैनेसिस ने पशिया के इतिहास में इसे शीनार भूमि - शीशतान कहा है। पुराणों में इसे श्रीनार लिखा है। फारस की खाड़ी ही क्षीर-सागर कहाती थी। जोरास्टर वरुण के उपासक थे। इनके समय में पशिया में वरुण ही महाराज, महाउपास्य, देव, विधाता कहे जाते थे। इसी धर्म को इरानी लोग अनइटांरियानिज़्म कहते थे ।
वरुण ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा और भृगु हुए, जो देर्वाष तथा याजक कुलों के संस्थापक हुए । अंगिरांपुत्र बृहस्पति देवों के याजक हुए। भृगु को दैत्यपति हिरण्यकश्यप ने अपनी पुत्री दिव्या दी और दानवराज पुलोम ने अपनी पुत्री पौलोमी । दिव्या से भृगु को शुक्र-काव्य-उशना प्रसिद्ध पुत्र हुआ, जो दैत्य-दानव-कुल का याजक हुआ । शुक्रका एक पुत्र अत्रि हुआ। उसका पुत्र चन्द्र । चन्द्र प्रसिद्ध चन्द्रवंश का मूल पुरुष हुआ। दूसरा पुत्र त्वष्टा हुआ जिसका पुत्र प्रसिद्ध शिल्पी हुआ। देवों में उसका नाम विश्वकर्मा और दैत्यों में मय प्रसिद्ध हुआ । पौलोमी की संतानों में च्यवन, ऋचीक, जमदग्नि और परशुराम हुए ।
साभार: आचार्य चतुरसेन द्वारा लिखित वयं रक्षामः से
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