वेदों में शान्तिपाठ

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  • धर्म-पथ
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  • 28 December 2024
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डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)-
१. शान्तिपाठ-संस्कृत सम्मेलनों के अन्त में प्रायः यह शान्ति पाठ पढ़ते हैं-

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

इसका तात्पर्य यह मानते हैं कि कार्यक्रम पूर्ण हुआ। पर इसका यह अर्थ नहीं है। उपनिषद् के आरम्भ तथा अन्त-दोनों समय शान्तिपाठ का नियम है। पर कार्यक्रम के आरम्भ में यह शान्ति पाठ नहीं पढ़ा जाता, इसे आरम्भ नहीं केवल पूर्णता मानते हैं।

इस मन्त्र का शाब्दिक अर्थ है-वह (ब्रह्म या अनन्त विश्व) पूर्ण है, यह (दृश्य जगत्, आत्मा) भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण उत्पन्न होता है। पूर्ण से पूर्ण को निकालने पर पूर्ण ही बचता है।

केवल यही शान्ति पाठ नहीं है। ४ वेदों के ५ शान्तिपाठ हैं। यजुर्वेद के २ रूप कृष्ण और शुक्ल के भिन्न भिन्न शान्ति पाठ हैं।

महावाक्य रत्नावली में शान्ति पाठ का क्रम संक्षेप में है-

वाक्पूर्णसहनाप्यायन् भद्रं कर्णेभिरेव च। पञ्च शान्तीः पठित्वादौ पठेद्वाक्यान्यनन्तरम्॥

इसका मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार स्पष्टीकरण है-

ऋग्यजुः सामाथर्वाख्य वेदेषु द्विविधो मतः। यजुर्वेदः शुक्ल कृष्ण विभेदेनात एव च॥१॥

शान्तयः पञ्चधा प्रोक्ता वेदानुक्रमणेन वै। वाङ्मेमनसि शान्त्यैव त्वैतरेयं प्रपठ्यते॥२॥

ईशं पूर्णमदेनैव बृहदारण्यकं तथा। सहनाविति शान्त्या च तैत्तिरीयं कठं च वै॥३॥

आप्यायन्त्विति शान्त्यैव केनच्छान्दोग्य संज्ञके। भद्रं कर्णेति मन्त्रेण प्रश्न-माण्डूक्य-मुण्डकम्॥४॥

इति क्रमेण प्रत्युपनिषद् आदावन्ते च शान्तिं पठेत्।

इन के अनुसार वेदानुसार उपनिषदों के शान्ति पाठ हैं-

ऋग्वेद शान्ति पाठ-

ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रात् संदधाम्यृतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि। तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारमवतु वक्तारम्। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

शुक्ल यजुर्वेदीय शान्ति पाठ-

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

कृष्ण यजुर्वेदीय शान्ति पाठ-

ॐ सहनाववतु॥ सह नौ भुनक्तु॥ सह वीर्यं करवावहै॥ तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

सामवेदीय शान्ति पाठ-

ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्-प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मे अस्तु। तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥



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