विनायक गणेश

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  • महापुरुष
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  • 26 August 2025
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श्री सम्पूर्णानन्द जी -
गणेशजी का एक नाम विनायक है। विनायक का अर्थ है विशिष्ट नायक। जो विशेष रुप से  नयन करता हो, प्रामुख्य से नेतृत्व करता हो, वह विशिष्ट नायक कहला सकता है। नायक के लिए अनेक अनुयायी भी होने चाहिएँ जिनका यह नेता हो । अतः जब हम देवविशेष को विनायक कहते हैं तो यह भी विवक्षित रहता है कि वह किसी प्रकार के समूह का अग्रणी है।

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विनायक का लक्षण है विघ्न करना। सुख, समृद्धि, स्वाध्याय, यज्ञ, पूजा जैसी उपादेय वस्तुओं और क्रियाओं में बाधा डालने वालों, विघ्नकारियों के नेता को विनायक कहते हैं। इसीलिए विनायक को विघ्नेश्वर भी कहते हैं। यह विनायक शब्द‌ का आधिदैविक अर्थ है। इस व्याख्या में यह बात मान ली गयी है कि किसी प्रकार के प्राणिविशेष जो मनुष्य के साथ शत्रुता करते हैं और उसके जीवन को दुःखी तथा उसके अनुष्ठानों को निष्फल बनाने में  यन्नशील रहने हैं। उनका अग्रणी कोई महाशक्ति-शाली परन्तु दुष्ट प्रकृति का सत्त्व है। इस अपदेव का नाम विनायक है। दूसरे विघ्नकर अपदेव उसके गण हैं। इसके सिवाय आध्यात्मिक व्याख्या भी की जा सकती है।  याज्ञवल्क्यकी टीका में विश्वरूपाचार्य कहते हैं कि विनायक का तात्पर्य ब्यानोह या प्राकृत अशुभ कर्मों का समुच्चय, प्राकृत अशुन कर्मों का संस्कार है, जो हमारी स्वेच्छा प्रवृत्ति का विरोध करता है। विरुद्ध क्रियाओं की ओर नयन करने के कारण इसको विनायक कहते हैं।

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गणेशजी के अर्थ में विनायक शब्द‌ का प्रयोग एकवचनान्त होता है। ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि गणेश जी एक व्यक्ति हैं। परन्तु विनायक शब्द सदा एक ही व्यक्ति के अर्थ में नहीं आता था। विनायक बहुसंख्यक थे परन्तु थे सब दुष्ट स्वभाव वाले । विष्णुभागवत के दशम स्कन्ध में पूतना के वध की जो कथा है उसमें डाकिनी, यातुधान, कृष्माण्ड, भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस और विनायक एक साथ गिनाये गये हैं:-

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डाकिन्यो यातुधान्यश्च, कूष्माण्डा येऽर्भकग्रहाः ।

भूतप्रेतपिशाचाश्च,विनायकाः ।। (भागवत, १०-६-२८ )

 

योगदर्शन के 'भुवनज्ञानं स्रय्येसर्येनात सूत्र की टीका में बाचस्पति मिश्र ने भूर्लोक के नीचे निवासियों में कूष्माण्ड, बेताल, नारीच, भैरव, विनायक और ब्रह्मराक्षसों को एक साथ गिनाया है। हरिवंश में रक्षसाश्च पिशाचाश्च्व भूतानि च विनायकाः एक-ही साथ उल्लिखित हैं।

 

विनायकों में चार मुख्य हैं। चाज्ञवल्क्य स्मृतिके आचाराध्याय में इनके नाम मित सम्मित, शाल कटडकट और कुष्मांड राजपुत्र बताये गये हैं और इनको प्रसन्न करने का उपाय भी दिया हुआ है। परन्तु इसी स्थल पर एक और बात देख पड़ती है । यद्यपि चार विनायकों के अलग अलग नाम लिए गये हैं और उनकी शान्ति के लिए युक्ति भी बतायी गयी है परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि चारों के पृथक अस्तित्व के लिए कोई विशेप आग्रह नहीं है। प्रकरण के आरम्भमें 'विनायकः एक बचतान्त प्रयोग है और यह कहा गया है कि रुद्र और ब्रह्ममा ने विनायक को गणों का अधिपत्ति नियुक्त किया। बीच में एक जगह विनायक की माता अम्विका की पूजा करने का विधान है। यहाँ भी एक वचनान्त प्रयोग है। अन्तिम श्लोक में यह बतलाया गया है कि सिद्धि के लिए आदित्य, तिलकस्वामी और महागणपति की सदा पूजा करनी चाहिये। इन प्रयोगो को देखकर ऐसा अनुमान होता है कि 'जब याज्ञवल्क्य स्मृति का यह अंश संकलित हुआ उस समय चारो विनायक एक मुख्य विनायक के विगृह मात्र रह गये थे और यह प्रधान विनायक महागणपति से अभिन्न माने जाते थे।

बाराह पुराण में विनायक की उत्पत्ति के  सम्बन्ध में कथा दी गयी है।



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