शृंगि ऋषि ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी
mysticpower-याग जब प्रारम्भ होने लगा तो एक ऋषि ने राजा से एक प्रश्न किया यजमान से, कहा हे यजमान ! यह जो अग्नि में आहुति दी जाती है घृत की ,साकल्य की, यह आहुति कहाँ चली जाती है ?
तो मेरे प्यारे! उस समय यजमान कहता है,हे ब्राह्मण! यह आहुति पृथ्वी में विश्राम करती है। यह तमोगुण में प्रवेश कर जाती है। यह जो साकल्य की आहुति प्रदान करता है यह पृथ्वी के अस्तित्व में प्रवेश कर जाती है।
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उन्होंने कहा हे भगवन्! मैं यह जानना और चाहता हूँ कि जो प्रदीप्त अग्नि में आहुति प्रदान करते हैं वह कहाँ चली जाती है? उन्होंने कहा यह तीन धारा वाली आहुति बनती है।एक पृथ्वी मे प्रवेश कर जाती है वह भी सतोगुण आहुति कहलाती है और एक आहुति अग्नितत्व कहलाती है यह तीन धारा वाली अग्नि में तीन पकार .की धाराएँ आभा में प्रकट हो जाती है। ऋषि कहता है एक-एक आहुति में तीन-तीन धाराएँ स्थापित हो जाती हैं। यह तीन धाराएँ प्रारम्भ होती है और इनमें से तीन-तीन धाराएँ हो करके वेद का ऋषि कहता है, वह जो तीन-तीन धाराएँ प्रारम्भ होती है,एक-एक में से वह धारा जब सूक्ष्म रुप में जाती है तो बहत्तर-बहत्तर तरगें प्रकट होती हैं और वह जो तरगें तीनों में से उत्पन्न होती हैं इनके उपर यदि अनुसन्धान किया जाता तो एक-एक में से निन्यानवे-निन्यानवे तरगों का जन्म हो जाता है और वह वायुमण्डल में प्रवेश कर जाती हैं।
वायु मण्डल में जितनी गति परमाणुवाद की हो रही है, अणुवाद की हो रही है, लोक-लोकान्तर अपनी आभा में परणित हो रहे हैं। वह जो तरगें हैं इन्ही तरगों के आधार पर यह ब्राह्मण्ड अपनी गति कर रहा है। अपनी आभा में रमण कर रहा है।
परिमाण क्या इन वाक्यों का? यह एक सूक्ष्मतम यजमयी स्वरूप माना है।यही विचार बन करके वायु-मण्डल में रहते हैं। हम श्यास लेते हैं। प्राण अपनी गति कर रहे हैं। हम अपने जीवन को ऊँचा बना रहे हैं। मुनिवरो ! देखो राजा का राष्ट्र महान बन गया। राजा ने कहा घन्य हो भगवन्! याग-कर्म करने के पश्चात् यजमान उत्तर दे करके मौन हो गया। उन्होंने कहा यजमान का जो महान् विचार है।
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