अथर्ववेद में आचार्य महिमा

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )- Mystic Power- भारतीय संस्कृति में आचार्य को बहुत महत्त्व दिया गया है। वह ज्ञान का दाता है, आचार का शिक्षक है और जीवन का निर्माता है। वह विद्यार्थी को तपस्यारूपी अग्नि में डालकर लोहे से सोने के रूप में परिवर्तित करता है। माता-पिता केवल भौतिक शरीर के जनक हैं, परन्तु आचार्य सूक्ष्म और दिव्यज्ञानमय शरीर का जनक है। जिस प्रकार अग्नि में डाली हुई समिधा अग्नितुल्य हो जाती है, उसी प्रकार ज्ञानरूपी अग्नि में पड़कर विद्यार्थी भी ज्ञानी, तपस्वी और वर्चस्वी बन जाता है। वेदों, स्मृतियों आदि में आचार्य की महिमा का वर्णन प्राप्त होता है । प्राचीन परम्परा के अनुसार उच्चशिक्षा के लिए कठिन परीक्षा ली जाती थी, जो इस कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे, उन्हें ही उच्च शिक्षा दी जाती थी उच्च शिक्षा के लिए आवश्यक था कि शिक्षार्थी में ज्ञान-पिपासा हो, जिज्ञासु वृत्ति हो और कठिन साधना की क्षमता हो। ये गुण आचार, संयम, तपस्या और एक लक्ष्य-निष्ठता से आते हैं। आचार्य इन गुणों की सृष्टि करता था, अतः आचार-शिक्षक को आचार्य कहा गया है। निरुक्तकार आचार्य यास्क का कथन है कि.... "आचार्यः कस्मात् ? आचार्य आचारं ग्राहयति । आचिनोति अर्थान्, आचिनोति बुद्धिम् इति वा ?"               ( निरुक्त १.४ )   जो आचार की शिक्षा देता है, जीवनोपयोगी विषयों का संकलन करता है और वृद्धि को विकसित करता है, उसे आचार्य कहते हैं। अथर्ववेद का कथन है कि जो स्वयं संयमी जीवन बिताते हुए छात्रों को संयम की दीक्षा देता है, वह आचार्य है।   "आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते।"       (अथर्ववेद  ११.५.१७ ) अथर्ववेद कांड ११ सूक्त ५ में आचार्य और विद्यार्थी के कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन किया गया है। विद्यार्थी भावी राष्ट्र का निर्माता है। राष्ट्र के निर्माण और विकास का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व उस पर होता है। अतः वह जितनी कठोर तपस्या और साधना की ऑग्न से निकला होगा, उतनी ही अधिक तेजस्विता उसमें होगी वह राष्ट्रीय विकास में उतना ही महत्वपूर्ण योग दे सकेगा। अतएव अथर्ववेद का कथन है कि ब्रह्मचारी अपनी तपस्या और पुरुषार्थ से सारे लोकों को तृप्त करता है-   "ब्रह्मचारी समिधा मेखलया श्रमेण लोकान् तपसा पिपर्ति ।"             (अथर्व० ११.५.४)   गुरु के समीप रहकर ज्ञान-विज्ञान, आचार-विचार और संयम की शिक्षा प्राप्त करने के कारण विद्यार्थी को अन्तेवासी कहा जाता था। बृहस्पति स्मृति में व्यावहारिक, प्रयोगात्मक और संगीत आदि से संबद्ध विषयों के अध्ययन के लिए गुरु के समीप रहकर प्रशिक्षण प्राप्त करना अनिवार्य बताया गया है।   प्राचीन परम्परा के अनुसार आचार्य कुलपति होता था वह १० हजार छात्रों को प्रशिक्षण देता था। वह अवैतनिक होता था। मनु ने शिक्षकों के तीन भेद किए हैं- आचार्य, उपाध्याय और गुरु । वेदों और शास्त्रों के शिक्षक को आचार्य कहते थे। वेद और वेदांगों के किसी विशेष अंश को पढ़ाने वाले को उपाध्याय कहते थे। वह वैतनिक अध्यापक होता था। विविध संस्कारों के कराने वाले तथा विविध विषयों को पढ़ाने वाले को गुरु कहते थे। यह भेद बाद में लुप्त हो गया और शिक्षकमात्र के लिए गुरु शब्द का प्रयोग होने लगा।   आचार्य को पिता और माता से उच्च स्थान इसलिए दिया गया है, क्योंकि आचार्य ही ज्ञानदाता है, चरित्र-निर्माता है और भावी जीवन का प्रकाश स्तम्भ है। महाभारत में कहा गया है कि.   "गुरुर्गरीयान् पितृतो मातृतश्चेति मे मतिः।"   गुरु का स्थान माता और पिता से उत्कृष्ट है पिता-माता और आचार्य ये तीनों देववत् पूज्य हैं, अतएव तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि-   "मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव ।"              ( तैत्ति० १.११.२ )   मनु का कथन है कि इन तीनों का सदा आदर करना और इनकी सेवा परम तप है।   "तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा ।  तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्व समाप्यते ।"               (मनु० २.२२८)   मनुष्य में मनुष्यत्व की शिक्षा देने वाला, जीवन के लक्ष्य को बताने वाला, कर्तव्य और अकर्तव्य का बोध कराने वाला, शास्त्रीय और व्यावहारिक विषयों की शिक्षा देकर ब्रह्मतत्त्व तक का ज्ञान कराने वाला केवल गुरु ही है। वही अज्ञान के गर्त से मानव का उद्धार करता है, पापों से बचाता है, सत्कर्मों की शिक्षा देता है, दुर्गुणों दुर्व्यसनों और दुर्विचारों से पृथक् करके सद्गुणों की ओर अग्रसर करता है, संसार के घोर अंधकार में ज्ञान का प्रकाश देता है और जीवन की भयंकर समस्याओं से मुक्त करते हुए जीवन के चरम लक्ष्य अमरत्व तक पहुंचाता है। अतएव आचार्य और गुरु के लिए सभी मनीषियों ने अपनी प्रणामांजलि अर्पित की है।   "अज्ञानान्धस्य लोकस्य, ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ||  गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः ।।"   शास्त्रीय भाषा में ज्ञानहीन को बालक कहा गया है और ज्ञानदाता को पिता । आचार्य वेदों का ज्ञान देता है, अतः उसे पिता भी कहा गया है। मनु का कथन है कि-   "अज्ञो भवति वै बालः, पिता भवति मन्त्रदः।  अनं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम्।।"             ( मनु० २.१५३)   वेदप्रदानादाचार्य पितरं परिचक्षते । मनु० २.१७१ पुरुषोत्तम रामचन्द्र को तेजस्वी और यशस्वी बनाने का श्रेय वाल्मीकि ऋषि को है। गुरुकृपा से ही आरुणि ब्रह्मवेत्ता हुआ और एकलव्य महान् धनुर्धर हुआ । गुरु विरजानन्द की कृपा से स्वामी दयानन्द परम सुधारक हुए। श्री रामकृष्ण परमहंस के आशीर्वाद से स्वामी विवेकानन्द योगी और यशस्वी हुए देश और विदेश के सभी महात्माओं के प्रेरणास्त्रोत उनके गुरु रहे हैं। सभी कवि, संगीतज्ञ, राजनीतिज्ञ, विद्वान् विचारक, अन्वेषक और तत्त्वज्ञ अपने गुरुओं की प्रेरणा से ही अपने-अपने क्षेत्र में अपना नाम अमर कर गए हैं।   आचार्य की चारित्रिक पवित्रता ही उसे इतना ऊँचा स्थान प्रदान कर सकी है। दीक्षान्तोपदेश में आचार्य स्वयं कहता है कि हमारे सद्गुणों का ही तुम जीवन में आचरण करना, अन्यों का नहीं। जीवन में शुभ गुणों को ही अपनाना, दुर्गुणों को नहीं।   "यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि ।  यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि ।।"              ( तैत्ति० १.११.२ )   यह जीवन की पवित्रता ही छात्रों को प्रभावित करती थी। यह अनुशासन की शिक्षा आचार्य से प्राप्त होती थी। निष्काम सेवा, निष्काम भाव से विद्या का प्रसार, निःस्वार्थ भाव से छात्रों से प्रेम, छात्रों की ज्ञानोन्नति में हार्दिक प्रसन्नता की अनुभूति और 'शिष्यादिच्छेत् पराभवम्' शिष्य से पराभव की कामना जैसी विशुद्ध भावना, उसे आचार्यत्व से देवत्व तक पहुंचाती है। अनुशासित आचार्यों के शिष्यों ने ही संसार में धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्रान्तियां की हैं। आचार्यों के कठोर अनुशासन ने ही विश्व को देशभक्त, क्रान्तिकारी, समाजसेवी, आत्मबलिदानी व्यक्ति दिए हैं। आचार्य का महत्त्व जितना भी वर्णन किया जाए, थोड़ा है। आचार्य क्रान्तदर्शी, तत्त्वज्ञ, विचारक और युग-निर्माता है। वह भावी पीढ़ी का प्रेरणास्त्रोत है। अतएव मनु ने कहा है कि आचार्य ब्रह्म की मूर्ति है और पिता प्रजापति की मूर्ति है।   "आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः, पिता मूर्तिः प्रजापतेः ।।"               ( मनु० २.२२६)  



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