ब्रह्म का त्रयी विभाजन

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 23 June 2025
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श्री अरुण कुमार उपाध्याय ( धर्मज्ञ )-

परब्रह्म हमारी कल्पना से परे है, अतः उसे ३ विभागों में वर्णन करते हैं। हर प्रकार से विभाजन करने पर कुछ अज्ञेय रह जाता है, अतः कई प्रकार के विभाजन है। इनका सारांश गायत्री मन्त्र के ३ पाद हैं, चतुर्थ अव्यक्त पाद को अदृश्य परोरजा (लोक से परे) कहते हैं (बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/१४/३)।

प्रथम पाद स्रष्टा रूप, द्वितीय पाद क्रिया या यज्ञ रूप, तृतीय पाद ज्ञान रूप है। या इनको आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक विश्व का वर्णन कह सकते हैं। 

प्राण रूप को देव और क्षेत्र रूप को देवी कहा गया है। देवों के गायत्री मन्त्र अनुसार त्रिविध विभाजन इस प्रकार हैं-

ब्रह्मा रूप-सृष्ट पदार्थ, अप् में मातरिश्वा (गति) द्वारा सृष्टि क्रिया, ज्ञान रूप वेद। प्रतीक -पलास दण्ड से निकले ३ पत्र। इसी प्रकार मूल अथर्व वेद से ऋक्, यजु, साम निकलने पर अथर्व भी बचा रहा।

विष्णु रूप-सृष्टि के लिए इक्षा (क्रियात्मक इच्छा), सृष्टि यज्ञ, व्यक्तिगत चेतना। प्रतीक अश्वत्थ वृक्ष, जिसके पत्ते स्वतन्त्र रूप से हिलते हैं, जैसे हर मनुष्य का मन प्रायः स्वतन्त्र है।

शिव रूप-मूल चेतना, तेज और उसका अनुभव, आन्तरिक ज्ञान। प्रतीक वट वृक्ष है। जैसे गुरु शिष्य को ज्ञान दे कर अपने जैसा बना देता है, उसी प्रकार वट की वायवीय शाखा भूमि से लग कर वैसा ही वृक्ष बनाती है।

हनुमान् रूप-वृषाकपि द्वारा पहले जैसी सृष्टि (क = जल का पान करने वाला कपि, उससे ब्रह्माण्ड, तारा रूप विन्दु बरसाने वाला वृषा), गति रूप मारुति, ज्ञान रूप मनोजव। भागवत में वृषाकपि को ब्रह्म रूप ही कहा है-

तत्र गत्वा जगन्नाथं वासुदेवं (देवदेवं) वृषाकपिं। 

पुरुषं पुरुष सूक्तेन उपतस्थे समाहिताः॥ (भागवत पुराण, १०/१/२०)

देवी रूप-महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती।

महाकाली रूप-मूल अव्यक्त अज्ञात विश्व, व्यक्त विश्व में नित्य काल से परिवर्तन रूप जिसके बाद मूल रूप कभी वापस नहीं आता, काल का अनुभव या ज्ञान। 

महालक्ष्मी रूप-अव्यक्त से दृश्य जगत् की उत्पत्ति, आकाश में अलग अलग रूप या आकार के पिण्ड, निकट की दृश्य वतुओं का ज्ञान, दृश्य वाक् या लिपि। 

महासरस्वती रूप-रस समुद्र का अनन्त विस्तार,  ब्रह्माण्ड का सरस्वान् समुद्र, मस्तिष्क के भीतर समुद्र (मानसरोवर)। 

गणेष रूप-उच्छिष्ट गणपति (निर्माण के बाद पुरुष के बचे ३ पाद), महागणपति (ब्रह्माण्ड और उसके १०० अरब कण), गणनात्मक ज्ञान।

कार्तिकेय (सुब्रह्म)-मूल सरिर् या सलिल रूप, तारा संहति को ब्रह्माण्ड रूप में देखना, कणों का समूह पिण्ड रूप में देखना। 



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