ब्रह्मजालसुत्त

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  • धर्म-पथ
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  • 31 October 2024
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मीनाक्षी सिंह (सलाहकार सम्पादक) - Mystic Power -इस सुत्त का आरंभ राजगह और नालन्दा के बीच के रास्ते पर भिक्षु संघ के साथ भगवान बुद्ध की यात्रा के साथ होता है। सुप्पिय परिव्राजक और उसके शिष्य ब्रह्मदत्त में बुद्ध, धर्म और संघ को लेकर वाद-विवाद चल रहा है। एक इनकी निंदा करता है तो दूसरा प्रशंसा । इस प्रसंग को लेकर भगवान भिक्षुओं को समझाते हैं कि यदि कोई व्यक्ति बुद्ध, धर्म और संघ की निंदा करे तो उससे न तो वैर, न असंतोष और न चित्त में कोप करे। ऐसा करने से अपनी ही हानि होती है। बल्कि सच्चाई का पता लगाना चाहिए कि जो कुछ कहा जा रहा है वह ठीक है या नहीं। ऐसे ही यदि कोई व्यक्ति बुद्ध, धर्म और संघ की प्रशंसा करे तो उससे न तो आनंदित, न प्रसन्न और न हर्षोत्फुल्ल होना चाहिए। ऐसा करने से अपनी ही हानि होती है। बल्कि सच्चाई का पता लगाना चाहिए कि जो कुछ कहा जा रहा है वह ठीक है या नहीं। तदुपरांत भगवान यह समझाते हैं कि अज्ञानी लोग तथागत की प्रशंसा छोटे या बड़े गौण शीलों के लिए क रते हैं जब कि उनकी प्रशंसा उन गूढ़ धर्मों के लिए की जानी चाहिए जिन्हें वे स्वयं जान कर और साक्षात्कारक र प्रज्ञप्त किया करते हैं। इस प्रसंग में वे अपने समय में प्रचलित बासठ प्रकार की मिथ्या धारणाओं (दार्शनिक मतों) पर प्रकाश डालते हैं। इनमें से कुछ तो आत्मा और लोक के 'आदि' को और अन्य इनके 'अंत' को लेकर प्रचलित थीं। इनको उन्होंने क्रमशः 'पूर्वांतक ल्पिक' और 'अपरांतक ल्पिक' की संज्ञा दी है।   'पूर्वातकल्पिक धारणाओं के अंतर्गत ऐसी मान्यताएं बतलायी गयी हैं जैसे आत्मा और लोक नित्य हैं, आत्मा और लोक अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य हैं. लोक अंतवान अथवा अनंत है, आत्मा और लोक बिना कारण उत्पन्न होते हैं, इत्यादि। इन वादों को प्रज्ञप्त करने वाले लोग इन्हें या तो अपनी अधूरी चित्त-समाधि के बल पर अथवा के वलतर्कों के आधार पर प्रज्ञप्त कि याक रते हैं।   'अपरांतक ल्पिक' धारणाओं के अंतर्गत ऐसी मान्यताएं बतलाई गई हैं जैसे मरने के बाद भी आत्मा संज्ञी (अर्थात, होश वाली) बनी रहती है, मरने के बाद आत्मा असंज्ञी (अर्थात, बिना होश वाली) हो जाती है, मरने के बाद आत्मा न संज्ञी रहती है न अ-संज्ञी, आत्मा का पूर्ण उच्छेद हो जाता है, इत्यादि ।   भगवान ने स्पष्ट किया है कि मिथ्या धारणाओं का पोषण करने वाले व्यक्ति सदा इंद्रिय क्षेत्र में बने रहते हैं। इनकी छहों इंद्रियों पर उनके विषयों का स्पर्श होते रहने से वे वेदनाओं को अनुभव करते रहते हैं और इन वेदनाओं के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण आसक्ति, आसक्ति के कारण भव भव के कारण जन्म और जन्म के कारण बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, विलाप, दुःख, दौर्मनस्य और क्षोभ की अवस्थाओं में से गुजरते रहते हैं। ये इंद्रिय-क्षेत्र से परे की बात नहीं जानते।   केवल वही व्यक्ति जो वेदनाओं के उदय व्यय, आस्वाद, दुष्परिणाम और इनके चंगुल से बाहर निकलने के उपाय को प्रज्ञापूर्वक यथाभूत जानते हैं,   निर्वाण लाभ कर मिथ्या धारणाओं से परे की बात को जान पाते हैं। यही कारण है कि नाना प्रकार के बाद स्थापित करने वाले लोग वेदनाओं की यथाभूत जानकारी न होने से हमेशा इंद्रिय क्षेत्र में बने रहने के कारण तालाब की मछलियों के समान मानो एक बृहज्जाल (ब्रह्मजाल में फंसे रहते हैं।   'सुत्तसार' में 'सुत्तपिटक' के सुत्तों का सार है।   भगवान बुद्ध की वाणी तीन पिटकों में सुरक्षित है -विनय पिटक, , सुत्त पिटक तथा अभिधम्म पिटक ।‘विनय पिटक' में अधिक तर भिक्षुओं-भिक्षुणिओं के लिए विनय का विधान है, 'सुत्त पिटक' में सामान्य साधकों के लिए दिये गये उपदेशों का संग्रह है और 'अभिधम्म पिटक' में विपश्यना साधना में साधकों के लिए गूढ़ धर्मोपदेश हैं । खूब पके हुए हुए साधको के लिए गूढ़ धर्मोपदेश हैं । 'बुद्ध वाणी में 'सुत्तपिटक' का विशेष महत्त्व है क्योंकि सबसे अधिक सामग्री इसी पिटक में है और हर किसी के लिए उपयोगी भी । विपश्यना साधना सिखाते समय विपश्यनाचार्य श्री सत्यनारायण गोयन्काजी भी इसी पिटक के उद्धरण दे-देकर धर्म समझाते हैं। अभिधम्म पिटक समझने के लिए भी सुत्त पिटक को जानने की जरूरत होती है जैसे छत पर जाने के लिए सीढ़ी की । साभार : सुत्तसार पुस्तक ।



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