छान्दोग्योपनिषद् और श्रीकृष्ण

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  • महापुरुष
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  • 31 October 2024
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( महात्मा नारायण स्वामीजी) Mystic Power-  छान्दोग्योपनिषद् में वर्णित है कि- तद्वैतद् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकी पुत्रापोक्त्वोवाचाऽपिपास एव स बभूव, सोऽन्तवेलायामेतत्रव प्रतिपद्येताक्षितमस्यच्युतमसि प्राणसः शितमलीति । (छान्दो० प्र० ३ खण्ड १७) अर्थात् देवकी पुत्र श्रीकृष्ण के लिये आङ्गिरस घोर ऋषि ने शिक्षा दी कि जब मनुष्य का अन्त समय आवे तो उसे इन तीन वाक्यों का उच्चारण करना चाहिये- (१) त्वं अक्षितमसि –ईश्वर! आप अविनश्वर हैं (२) त्वं अच्युतमसि - आप एकरस रहने वाले हैं (३) त्वं प्राणसंशितमसि - आप प्राणियोंके जीवनदाता हैं। श्रीकृष्ण इस शिक्षा को पाकर अपिपास हो गये अर्थात् उन्होंने समझा कि अब और किसी शिक्षा की उन्हें जरूरत नहीं रही। यहाँ स्वाभाविक रीति से एक शंका होती है और वह यह है कि एक बात अन्त के समय करने के लिये कही गयी थी, फिर और शिक्षाओं से श्रीकृष्ण अपिपास क्यों हो गये ? इस प्रश्नके उत्तर के लिये हमारी दृष्टि एक वेद मन्त्र पर पड़ती है, वह मन्त्र इस प्रकार है- वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तः शरीरम् । ॐ क्रतो स्मर कृतःस्मर क्रतो स्मर कृतःस्मर । (यजु० ४० । १७) मन्त्र का आशय यह है कि शरीरों में आने- जाने वाला जीव अमर है परन्तु यह शरीर केवल भस्म- पर्यन्त है। इसलिये उपदेश दिया गया है कि जब इन दोनों के वियोग का समय हो तो हे क्रतो (जीव) बल- प्राप्ति के लिये ओ३म्का स्मरण कर और अपने किये हुए (कर्म) का स्मरण कर । मनुष्य का जीवन दो हिस्सों में बँटा हुआ होता है- (१) एक भाग उस समयतक रहता है जबतक मनुष्य मृत्युशय्यापर नहीं आता— जीवनके इस हिस्सेमें मनुष्यको कर्म करनेकी स्वतन्त्रता होती है (२) दूसरा भाग वह है जिसमें मनुष्य मृत्युशय्यापर होता है इस हिस्से में।कर्मस्वातन्त्र्य नहीं रहता अपितु पहले हिस्सेमें किये हुए ।कर्म इस हिस्सेमें प्रतिध्वनित होते हैं - अर्थात् इस दूसरे हिस्सेको पहले हिस्सेकी चित्र (फोटो) खींचने वाली अवस्था कह सकते हैं। जीवनके पहले भागमें जिस ।प्रकारके भी कर्म मनुष्य करता है, जीवनका दूसरा भाग उसका चित्र खींचकर उन्हें संसारके सामने रख दिया करता है। यदि एक मनुष्य ने वितैषणा में जीवन व्यतीत किया है तो अन्त में, महमूद की तरह उसे धन के लिये ही रोते हुए, संसारसे जाना पड़ेगा। इसी प्रकार पुत्रैषणा और लोकैषणावालोंका अनुमान कर लें, मन्त्रमें पहली शिक्षा ओ३म्का स्मरण कर, यह उपदेशरूप में है अर्थात् मनुष्योंको यत्न करना चाहिये कि जीवन के पहले हिस्से में ओ३म् (ईश्वर) का स्मरण और जप करें, जिससे अन्त समय में भी उनके मुख से ओ३म् (ईश्वरका नाम) निकल सके। यदि कोई चाहे कि पहला भाग नास्तिकता और ईश्वर से विमुखता के कार्यों में व्यतीत करके अन्त में मक्कारी से लोगों को दिखाने के लिये ईश्वरका नाम उच्चारण करें तो यह असम्भव है। इसी भाव को श्रीतुलसीदासजी ने बही उत्तम रोति से वर्णन किया है। कोटि कोटि मुनि यतन कराहीं । अन्त राम कहि आवत नहीं ।। इसीलिये मन्त्र की दूसरी शिक्षा कि 'अपने किये हुए का स्मरण कर' नियमरूप में है और अटल है। अर्थात् अन्त में मरते समय मनुष्य के मुंह से वही मानें निकलेंगी, उसकी आकृति से वही भाव प्रकट होंगे, जिनमें उसने जीवन का पहला भाग व्यतीत किया है। इस नियम के समझ लेने के बाद अब सुगमता के साथ उस शंका का समाधान हो सकता है जो श्रीकृष्ण महाराज के अन्य शिक्षाओं से अपिपास होने के सम्बन्ध में उत्पन्न हुई थी। कृष्णजी ने समझा कि अन्त की बेलामें 'त्वं अक्षितमसि इत्यादि वाक्य तभी उच्चारण किये जा सकते हैं जब कि उनका जीवनके पहले भागमें जप और अभ्यास किया हो; अतः स्पष्ट है कि आङ्गिरस घोर ऋषि की शिक्षा, यद्यपि अन्त के समय की एक शिक्षा थी, परन्तु था वह वास्तव में सारे जीवन का प्रोग्राम। इसलिये कृष्ण महाराज का अपिपास होना स्वाभाविक था । कृष्णजी ने अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए इस शिक्षा का भी उपदेश किया है- ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥ (गीता ८। १३) अर्थात् जो अविनश्वर ओ३म् ब्रह्मका उच्चारण और ।मेरा स्मरण करता हुआ इस शरीरको छोड़कर संसारसे जाता है वह परमगतिको प्राप्त होता है। उपनिषद् या गीतामें कृष्ण महाराजकी दी हुई यह शिक्षा उपादेय और आचरितव्य है।    



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