दीक्षान्त उपदेश

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  • धर्म-पथ
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  • 31 October 2024
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श्री कृष्णदत्त जी महाराज - Mystic Power - इसी प्रकार मुनिवरों! देखो, उनका बारह वर्षों का विद्या काल पूर्णता को प्राप्त हो गया। विद्यालय में अपनी सक्षम ब्रह्मे उत्तीर्ण करके, आचार्य के चरणों में विद्यमान हो गये। आचार्य ने कहा-हे ब्रह्मचारी! आज मानो देखो, तुम्हारा विद्या काल समाप्त हो गया है। अब मैं तुम्हें विद्यालय से अवकाश देने के लिए तत्पर हूँ। आज तुम्हारा दीक्षांत उपदेश होगा। तो मेरे पुत्रो! देखो, ब्रह्मचारी अपने-अपने आसन पर विद्यमान हो गये, वहाँ मानो देखो, कुछ माताएँ निमन्त्रण के अनुसार और उस समय जो राजा थे सोमवृत्तिका, वे मेरे पुत्रो! देखो, महाराजा अश्वपति के वंशलज में थे। 

जब राजा सोमवृत्तिका ब्रहे मेरे पुत्रो! देखो, वह भी एक पंक्ति में विद्यमान है वहाँ, नाना ऋषिवर देखो, महर्षि वैशम्पायन, महर्षि प्रवाहण, शिलक और दालभ्य और मुनिवरों! देखो, स्वतः महर्षि तत्त्वमुनि महाराज सब पंक्तिबद्ध हो गये। और पंक्ति लगने के पश्चात आचार्य ने अपने ब्रह्मचारी से अपना दीक्षांत उपदेश दिया। उन्होंने कहा-हे ब्रह्मचारी! आज तुम इस विद्यालय को त्याग रहे हो, यह हमारा बड़ा सौभाग्य है। आज हम उसमें प्रतिभाषित है, हमारी यह इच्छा है, कि अब तुम इस विद्यालय को त्याग रहे हो, विद्यालय को त्यागते समय हृदय में तुम्हें यह स्मरण रहना चाहिए कि जिस विद्यालय के प्रांगण में मानो देखो, जिस स्थली पर तुमने विद्या का अध्ययन किया है, मानो देखो, यह विद्या तुम्हारी मानं ब्रहे परिपक्व तुम्हारे हृदय में है इसके प्रति तुम्हारे हृदय में श्रद्धा बनी रहे। और यह भूमि तुम्हारे अंतर्हृदय में मानो देखो, इसका वास हो जाए। जिससे यह विद्यालय पनपता रहे और विद्यालय में समय-समय पर देखो, अपने क्रियाकलापों की प्रतिभा का दर्शन होता रहे।  

ब्रह्मचारी का अभिप्राय तो मेरे प्यारे! देखो, आचार्य ने यह उपदेश दिया। आचार्य की पत्नी ने कहा सम्भवा बा्रह्मणं ब्रहे हे ब्रह्मचारी! मानो देखो, मैनें भी इस विद्यालय में अध्ययन किया है और अध्ययन के पश्चात मैंने अपने मार्ग को चुनौती प्रदान की है। आज मेरा एक ही दीक्षान्त उपदेश है कि मानो देखो, संसार के लिए तुम्हारा यह कर्त्तव्य है कि तुम ब्रह्मचारी हो। ब्रह्मचारी उसे कहते है जो ब्रह्म और चरी को अपने में धारण कर लेता है। देखो, ब्रह्म कहते है परमपिता परमात्मा को और चरी कहते है इस प्रकृति को। मानो प्रकृति, ब्रह्म दोनों को अंग और उपांगों से जानने का नाम ही हमारे यहाँ ब्रह्मचरिष्यामि कहा गया है। वह ब्रह्मचारी है। और ब्रह्मचारी का कर्त्तव्य है कि ब्रह्म को अपने में धारण करता हुआ मानो संसार में जितने भी जिज्ञासु है मानो देखो, मातृवत् है उनको माता की दृष्टि से पान करना तुम्हारा यह कर्तव्य है, तुम्हारी यह प्रतिभा है। 

तो मेरे पुत्रो! देखो, आचार्य के प्रांगण में ब्रह्मचारी ने माता के चरणों को स्पर्श करके कहा-धन्य है, मातेश्वरी! मानो मेरा यही कर्त्तव्य रहेगा। महर्षि वैशम्पायन का उद्बोधन उसके पश्चात वह इतना वाक् उच्चारण करके मौन हो गएं इतने में बेटा! महर्षि वैशम्पायन बोले-हे ब्रह्मचारी! अब तुम विद्यालय को त्याग रहे हो। मेरा तो एक ही मन्तव्य रहता है, कि जिस विद्या का तुमने अध्ययन किया है, मैंने श्रवण किया है कि तुमने परमाणु विद्या का अध्ययन किया है। इस परमाणु विद्या पर तुम्हारा अधिपथ्य होना चाहिए और परमाणु विद्या को ले करके तुम्हारी लोक लोकान्तरों में उड़ान होनी चाहिए। इस प्रकार की मानो तुम्हारी विज्ञानशाला हो, यज्ञशाला हो और उस शाला में विद्यमान हो करके तुम्हारा विज्ञानमयी पूर्ण क्रियाकलाप होना चाहिए। 

मेरे प्यारे! देखो, ऋषि वैशम्पायन यह उच्चारण करके मौन हो गएं और मौन हो जाने के पश्चात उन्होंने कहा ब्रह्म वर्णों ब्रह्म वाच प्रह्वाः वज्रो ब्रह्मणं लोकाम् हे ब्रह्मचारी! अपने में अपनेपन का बेटा! जैसे सूर्य अपनी आभा का प्रकाश देता रहता है इसी प्रकार ब्रह्मचारी को अपनी आभा में प्रकाशित रहना चाहिए और उसी प्रकाश में प्रकाशवान् हो करके अपने में महानता का दर्शन होना चाहिए। मेरे प्यारे! देखो, ब्रह्मचारी ने यह वाक् स्वीकार कर लिया और ऋषि भी अपना संक्षिप्त उपदेश दे करके अपने आसन पर विद्यमान हो गये। तपस्या में महानता इतने में बेटा! महर्षि व्रेतकेतु महाराज उपस्थित हुए और व्रेतकेतु ने कहा -हे ब्रह्मचारी! तुम इस विद्यालय को त्याग रहे हो, विद्यालय को त्यागते समय तुम्हें यह विचार करना चाहिए कि तुम्हें तप करना है बिना तपस्या के संसार में कोई भी मानव अपने में सफलता को प्राप्त नहीं होता है जैसे माता ब्रह्मचर्यत्व में पनपती रहती है और मानो वह तपस्या करती है तो उसके पश्चात वह ममतामयी को प्राप्त होती है जैसे देखो, आचार्य अपने में तपोमयी बनता हुआ ब्रह्मचारियों को तपस्वी बनाता है, जैसे राजा तपने के पश्चात अपने राष्ट्र को तपस्वी बना देता है जैसे मानो तुमने इस विद्या का अध्ययन किया है तुम्हें भी तप करना है जैसे परमपिता परमात्मा ने सृष्टि की जब रचना की तो उन्होंने भी तप किया और तप के पश्चात उसकी उग्र क्रिया बनी और उग्र रूप बन करके ही इस संसार की रचना हो गई। इसी प्रकार जब तक कोई मानव तपस्वी नहीं बनता है तब तक मुनिवरों! देखो, उसका जीवन महान नहीं बना करता है। 

हे ब्रह्मचारी! तुम तपस्वी हो, महान हो, परन्तु तुम्हें अपने में महान बनने के लिए सदैव तत्पर रहना है। तो मेरे प्यारे! ब्रह्मचारी ने यह स्वीकार कर लिया कि प्रभु! मैं तपस्वी भी बनूँगा। मेरे प्यारे! देखो, वह तपश्चं ब्रह्म इतने में महर्षि प्रवाहण जी ने अपने दो शब्द उच्चारण किए। महर्षि प्रवाहण बोले -कि देखो, जब हम माता की लोरियों का पान करते थे जब प्रबल हुए तो माता हमें शिक्षा देती रहती थी और यह कहती थी कि तुम ब्रह्मवेत्ता बनो और विज्ञानवेत्ता बनो। तो विज्ञानवेत्ता और ब्रह्मवेत्ता दोनों बनने का हमने संकल्प किया। मानो देखो, ब्रह्मवेत्ता जो बन जाता है वह विज्ञानवेत्ता स्वतः बन जाता है। परन्तु देखो, उसे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं होती। वह जो आत्मवेत्ता होता है जब वह ब्रह्मवेत्ता हो जाता है तो आत्मवेत्ता बन करके वह विज्ञान मार्ग से हो करके जाता है। 

देखो, उसे पाँच ज्ञानेन्द्रियों में जो संसार समाहित रहता है, जो विज्ञान समाहित रहता है, उस विज्ञान को अपने में धारण करता हुआ, वह विज्ञानवेत्ता बन जाता है। तो मेरे प्यारे! देखो, ऐसा वाक् उच्चारण करके महर्षि प्रवाहण ने कहा-तुम मन और प्राण दोनों को अपने में एकाग्र करने का प्रयास करके अणु और परमाणु को जानने वाले विज्ञानवेत्ता बनो। मेरे प्यारे! देखो, यह उपदेश जब उन्होंने दिया तो ब्रह्मचारी ने ऋषियों के चरणों को बारी-बारी स्पर्श करके कहा-धन्य है, प्रभु! अब मुझे आज्ञा दीजिए मानो मैं भयंकर वनों में जा रहा हूँ। मेरे पुत्रो! देखो, आचार्यों की आज्ञा पा करके और अपने में व्रत्यं ब्राह्मणः वाच प्रहे। 

आचार्य के तीन उपदेश मेरे पुत्रो! देखो, वहाँ से वेदों का उद्घोष करते हुए ब्रह्मचारी ने विद्यालय को त्याग दिया और ब्रह्मवर्चोसि मानो उन्होंने विचारा कि मानो ब्रह्मचारी कौन है? आचार्य ने मुझे तीन प्रकार के उपदेश दिए है। ब्रह्मचारी कौन है, ब्रह्म की चरी को कौन चरता है? और ब्राह्मण कौन है? मेरे पुत्रों! देखो, ऋषि अपने में विचार रहा है और ब्रह्मचारी आगे को भ्रमण करता हुआ भयंकर वनों में पहुँचा। कजली वनों में जा करके यह चिन्तन करने लगा कि मुझे आचार्यजनों ने तीन उपदेश दिए है ब्रह्मचारी कौन है? ब्राह्मण कौन है? और देखो, ब्रह्म की चरी को कौन चरता है? मेरे पुत्रो! देखो, विचारते-विचारते यह आया, कि ब्राह्मण तो वह है जो एक-एक कण में, अपने प्रभु का दर्शन करता है वह ब्राह्मण कहलाता है। मेरे पुत्रो! देखो, ब्रह्मचारी कौन है? जो प्रत्येक श्वास को ब्रह्म सूत्र में पिरो देता है वह ब्रह्मचारी कहलाता है। मेरे पुत्रो! देखो, ब्रह्म की चरी को कौन चरता है? जो विज्ञानवेत्ता है और विज्ञान के मार्ग से हो करके आध्यात्मिकवाद में प्रवेश करता है। आत्मा के आश्रित हो जाता है, आत्मा को ही सर्व संसार में दृष्टिपात करता है वह ब्रह्म की चरी को चरने वाला है। 

मेरे पुत्रो! देखो, ब्रह्मचारी ने यह विचार-विनिमय करके, अपने चिन्तन में लग गये, मनन करने लगे। तो बेटा! उनके द्वार महर्षि पनपेतु अप्रेत ब्रह्मचारी आ गये। दोनों का चिन्तन प्रारम्भ होने लगा। तो मेरे प्यारे! मैं विशेष चर्चा तो तुम्हें प्रगट करने नहीं आया हूँ, मैं कोई व्याख्याता नहीं हूँ। केवल परिचय देने के लिए आया हूँ, और वह परिचय क्या है मेरे पुत्रो! देखो, इस संसार में अपने में मानव मानवीयता का दर्शन कर लेता है। तो मेरे प्यारे! देखो, उद्दालक गोत्र में इस प्रकार के विचारवेत्ता ऋषि और विचार-विनिमय करने वाले विद्यालयों में ब्रह्मचारी, आचार्य और विज्ञान की उड़ाने उड़ने वाले आध्यात्मिकवाद में मानो उनकी प्रतिष्ठा रही है। तो विचार क्या मुनिवरों! आज मैं यह विचार दे रहा था कि परमपिता परमात्मा मानो जड़वत् और चैतन्यवत् दोनों में विद्यमान रहता है। परमपिता परमात्मा ही विष्णु बन करके हमारा पालन कर रहा है। माता मानो देखो, ममता को प्राप्त होती रहती है। वही रजोगुण, तमोगुण और सतोगुण में सदैव एक ब्रह्म का दर्शन, अनुशासन का हमें दर्शन होता रहता है। तो मेरे पुत्रो! आज का विचार क्या कि हम परमपिता परमात्मा की महती अथवा उसकी अनुपमता, उसका ज्ञान और विज्ञान अपने में धारण करके बेटा! इस संसार सागर से पार हो जाए।



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