भक्ति की महामहिमा निर्वचन नारद भक्ति सूत्र द्वारा

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  • धर्म-पथ
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  • 31 October 2024
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डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)- भक्ता एकान्तिनो मुख्याः । एकान्त भक्त ही मुख्य (श्रेष्ठ ) है ( एकान्त – जिसका प्रेम केवल भगवान के लिए हो ) ॥६७॥ *कण्ठावरोधरोमञ्चाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ।* (ऐसे महापुरुष ) कण्ठावरोध, रोमाञ्च तथा अश्रुपूर्ण नेत्रों से परस्परसम्भाषण  करते हुए अपने कुलों तथा पृथ्वी को पवित्र करते हैं ॥६८॥ *तीर्थिकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मी कुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रिकुर्वन्ति शास्त्राणि ।* ऐसे महापुरुष ) तीर्थों को सुतीर्थ, कर्मों को सुकर्म तथा शास्त्रों को सत्  शास्त्र करते हैं ॥६९॥ *तन्मयाः ।* वह तन्मय है (उसमें प्रभु के गुण परिलक्षित होने लगते हैं ) ॥७०॥ *मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवतः सनाथा चेयं भूर्भवति ।* (ऐसे महापुरुष के होने पर )पितर प्रमुदित होते हैं, देवता नृत्य करने लगते हैं तथा पृथ्वी सनाथ हो जाति है ॥७१॥ *नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादि भेदः ।* उन में जाति, विद्या, रूप, कुल, धन तथा क्रियादि का भेद नहीं होता ॥७२॥ *यतस्तदीयाः ।* क्योंकि सभी भक्त भगवान के ही हैं ॥७३॥ *वादो नावलम्ब्यः ।* वाद विवाद का अवलम्ब नहीं लेना चाहिए ॥७४॥ *बाहुल्यावकाशत्वाद अनियतत्त्वाच्च* । क्योंकि बाहुल्यता का अवकाश है तथा वह अनियत है ( विवाद भक्ति के लिएनहीं  , प्रतिष्ठा के लिए होते हैं ) ॥७५॥ *भक्तिशस्त्र्राणि मननीयानि तदुद्बोधकर्माणि करणीयानि ।* (अब प्रधान सहाय्य )। भक्ति शास्त्रों का मनन, तथा उदबोधक कर्मों को करना ॥७६॥ *सुखदुःखेच्छालाभादित्यके प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्धमपि व्यर्थ न नेयम् ।* सुख दुख, इच्छा, लाभ, आदि का त्याग हो जाए, ऐसे समय की प्रतीक्षा करते हुए आधा क्षण भी व्यर्थ नहीं गवाना चाहिए ॥७७॥ *अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्रयाणि परिपालनीयानि ।* अहिंसा, सत्य, शौच, दया, आस्तिकता, आदि का परिपालन ॥७८॥ *सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तैः भगवानेव भजनीयः ।** सर्वदा, सर्वभावेन, निश्चिन्त, भगवान का ही भजन करना चाहिए ॥७९॥ *स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवत्यनुभावयति भक्तान् ।* वह (भगवान) कीर्तित होने पर शीघ्र ही प्रकट होते हैं ( तथा भक्तों को ) अनुभव  करा देते हैं ॥८०॥ *त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी भक्तिरेव गरीयसी ।* तीनों सत्यों में भक्ति ही श्रेष्ठ है ( सत्य स्वरूप प्रभु को मन वाणी तथा  तन से भक्ति ही प्राप्त करा सकती है ) ॥८१॥ *गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति-स्मरणासक्ति-दास्यासक्ति- सख्यासक्ति-वात्सल्यसक्ति -कान्तासक्ति-आत्मनिवेदनासक्ति-तन्मयतासक्ति-परमविरहासक्ति  रूपा एकधा अपि एकादशधा भवति ।* एक होते हुए भी (भक्ति ) ग्यारह प्रकार की है । गुणमहात्म्यासक्ति ( जगत को  भगवान का प्रकट रूप जान कर उसमें आसक्ति), रूपासक्ति ( इन्द्रियातीत,  चैतन्यस्वरूप, आनन्दप्रद, सत् रूप में आसक्ति), पूजासक्ति,स्मरणासक्ति, दास्यासक्ति (स्वयं को प्रभु का दास मान कर), साख्यासक्ति (प्रभु सबके मित्र हैं ऐसा जानकर उसमें आसक्ति), कान्तासक्ति(एक प्रभु ही पुरुष हैं, बाकि सब  प्रियतमा हैं), वात्सल्यासक्ति(प्रभु को सन्तान मान कर ), तन्मयासक्ति (प्रभु में तन्मय , उनसे अभिन्नता का भाव ),आत्मनिवेदनासक्ति (प्रभु में सर्वस्व  समर्पण कर देने में आसक्ति )। परमविरहासक्ति (प्रभु से वियोग का अनुभव करके,  उनसे पुनः मिलन के लिए तड़प के प्रति आसक्ति)। ॥८२॥ *इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भयाः एकमतः  कुमार व्यास शुख शाण्डिल्य गर्ग   विष्णु  कौण्डिन्य शेषोध्दवारुणि बलि  हनुमद  विभीषणादयो भक्त्याचार्याः ।* सभी भक्ति के आचार्य, जगत निन्दा से निर्भय हो कर, इसी एक मत के हैं। (सनत् )  कुमारादि, वेदव्यास, शुकदेव, शाण्डिल्य, गर्ग, विष्णु , कौडिन्य, शेष, उद्धव,  आरूणि,  बलि, हनुमान, विभीषण ॥८३॥ *य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रध्दते स भक्तिमान् भवति सः प्रेष्टं लभते सः प्रेष्टं लभते ।* जो इस नारद कथित शिवानुशासन में ( अर्थ यह शिव से शुरु हुई विद्या है,नारद  केवल ईसका कथन कर रहे हैं ) विश्वास तथा श्रद्धा रखता है वह प्रियतम को पाता  है, वह प्रियतम को पाता है ॥८४॥ 1: वास्तव में अध्यात्म पथ निष्ठ साधक इस उद्देश्य से कम बताते हैं कि दूसरे को ज्ञान हो वरन वे तो आत्म बोध के स्मरण हेतु द्वितीय व्यक्ति का आत्मवत आलंबन लेकर पुनः पुनः आत्म विमर्शन करते हैं । जैसे कोई व्यक्ति दर्पण का आश्रय लेकर आत्म दर्शन ही करता है चाहे वह कितनी भी भाव भंगिमा बदले उसका उद्देश्य अपने प्रतिबिम्ब को , स्वयं को दिखाना नहीं होता बल्कि वह प्रतिबिम्ब में आत्म दर्शन कर मुग्ध होता है । इस प्रकार आत्मा का आनंद लेते हैं जिस प्रकार प्रतिबिम्ब में परिवर्तन हेतु प्रतिबिम्ब में कुछ भी परिवर्तन करना संभव नहीं बल्कि बिम्ब में परिवर्तन से प्रतिबिंब में सारे परिवर्तन हो जाते हैं । बिना प्रतिबिम्ब को स्पर्श किये । उसी प्रकार भक्त जन समस्त  सृष्टि को प्रभु का प्रतिबिम्ब मानते हुए प्रभु या आत्मा  को ही सुनाते हैं नकि किसी व्यक्ति को ।



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