श्री सुमेरू प्रसाद दर्शनाचार्य- Mystic Power-क्या आपके जीवन का लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति बन गया ? वेद, दर्शन, उपनिषद् आदि ग्रन्थों को पढ़कर या सुनकर प्रमाणों से परीक्षा कर लेने पर पता चला कि कोई बात ५% समझ में आई है; किन्तु व्यक्ति प्रमाणों से परीक्षा किये बिना प्रायः यह मान लेता है कि हमने उस बात को १००% अर्थात् पूर्णरूप से समझ लिया है। परन्तु यह उसकी भूल है। यही भूल प्रायः यहाँ भी होती है। जीवन का लक्ष्य लोकप्राप्ति रहती है परन्तु व्यक्ति सूक्ष्मता से परीक्षण किये बिना मान लेता है कि मेरे जीवन का लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति बन गया है।
कोई व्यक्ति कहता है सत्य आदि व्रत जो कि सभी स्थितियों में पालन करने योग्य है; ऐसा मैं पूर्णतः स्वीकार करता हूँ। परन्तु वही व्यक्ति व्यवहार में सत्यादि का पालन ५% या नाम मात्र करता है। जानबूझकर इनका भङ्ग भी करता है । वैदिक परम्परा में यह माना जाता है, प्रायः लोग कहते हैं, प्रवचन, उपदेश में सुनते हैं, लेखों में लिखते-पढ़ते हैं कि "मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य ईश्वर-प्राप्ति है ।"
पर देखा जाता है कि उसी वैदिक परम्परा के अनुयायी, वक्ता, लेखक आदि के मन, वाणी और शरीर के व्यवहार से उक्त बात की साम्यता नहीं है। कहीं ज्ञानपूर्वक, कहीं अज्ञानतावशात् इस उद्देश्य के साधनभूत नियमों का भङ्ग करते हैं। कहीं साधन के अभाव में उल्लंघन होता है, कहीं संस्कार-वशात् विपरीत आचरण होता है।
यह सब होता है परन्तु देखा जाता है कि व्यक्ति प्रायः बुद्धिपूर्वक भी इसके साधक नियमों को तोड़ता रहता है। ऐसे ही एक ओर स्वयं को पूर्ण अहिंसक भी मानता है और दूसरी और द्वेष भी करता रहता है ।
सम्मान को विषतुल्य और अपमान को अमृत के तुल्य समझना चाहिए यह एक शाख प्रसिद्ध बात है परन्तु सहस्रों में कोई एक भी दिखाई नहीं देता जो यह कहता हो कि मुझे थोड़ा भी सम्मान नहीं चाहिए किन्तु ऐसा सभी चाहते हैं कुछ न कुछ, नाममात्र ही सही, सम्मान मिलना तो चाहिए (न कहें भिन्न बात है) । जैसे दर्शन, व्याकरण आदि पढ़े हुए लोग सोचते है - हमने इतना पढ़ा है तो लोगों को कम से कम हमारा इतना तो सम्मान करना चाहिए, कुछ तो सेवा-सुविधा का ध्यान रखना चाहिए ।
ईश्वरप्राप्ति लक्ष्य की दृष्टि से ये सब बातें दोषपूर्ण हैं, अन्याय भी है। ये सब बातें जो कि अपनाई जाती है; ईश्वरप्राप्ति के नियमों के विपरीत हैं। जिसके कारण हम अपने सम्मान की इच्छा कर रहे हैं उसका आधार कौन है ? ईश्वर ही तो है। इसलिए सम्मान तो ईश्वर को मिलना चाहिए। उसके रहते हम कैसे सम्मान के अधिकारी हुए ? इस विषय में तो मन में यह भाव सतत रखना पड़ेगा कि ईश्वर ही सब का आधार है, उसकी सहायता के बिना कोई भी उत्तम कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। यदि बात समझ में नहीं आई, ऐसा स्वीकार नहीं करते हैं तो समझना चाहिये कि अभी हमारे जीवन का लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति नहीं बना है ।
Comments are not available.