रथयात्रा और संवत्सर

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  • धर्म-पथ
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  • 31 October 2024
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श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ ) रथयात्रा का आरम्भ वामन अवतार से हुआ जिनका मनुष्य रूप में विष्णु नाम था। वामनो ह विष्णुरास। उस समय यह पुराने वर्ष का अन्त तथा नये वर्ष का आरम्भ था। अनन्त संवत्सर चक्र भी अदिति का एक रूप है- अदितिर्जातम्, अदितिर्जनित्वम् (शान्तिपाठ, ऋग्वेद, १/८९/१०) अदिति के पुत्र वामन थे। उस समय १७,५०० ईपू में पुनर्वसु नक्षत्र से वर्ष आरम्भ होता था (विषुव संक्रान्ति)। अतः इस नक्षत्र का नाम पुनर्वसु (पुनः बसना या आरम्भ) तथा इसके देवता अदिति हुए। आज तक रथयात्रा या विपरीत यात्रा (बहुला) में कम से कम एक के समय सूर्य पुनर्वसु नक्षत्र में रहता है (प्रायः ५ से १८ जुलाई)। मास की परिभाषा अनुसार आषाढ मास की पूर्णिमा के दिन पूर्व या उत्तर आषाढ नक्षत्र होगा। पूर्वाषाढ़ नक्षत्र होने पर आषाढ शुक्ल द्वितीया रथ यात्रा के दिन चन्द्र भी पुनर्वसु नक्षत्र में ही होगा जैसा इस वर्ष है (१ जुलाई, २०२२)। आषाढ का अर्थ अखाड़ा है, यजुर्वेद में 'ष' का उच्चारण 'ख' जैसा होता है। इस मास में वर्षा का आरम्भ होता है, यदि शून्य अयनांश हो (विक्रमादित्य के समय) जैसा कालिदास ने मेघदूत के आरम्भ में लिखा है- आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्ट सानुः। वर्षा में बाहरी यात्रा बन्द हो जाती है तथा ४ मास के लिए एक स्थान पर रहते हैं, जिसे चातुर्मास कहते हैं। अतः अखाड़ा में व्यायाम होता है। संयोग से १९९२ में लास एंजिलिस के ओलिंपिक का आरम्भ रथ यात्रा दिन ही हुआ था। मनुष्य शरीर रथ है, इसमें हृदय स्थित सूक्ष्म आत्मा वामन है जिसके साक्षात्कार से मनुष्य मुक्त हो जाता है। वाचस्पत्यम् तथा शब्द कल्पद्रुम में रथयात्रा प्रसंग में स्कन्द पुराण, उत्कल खण्ड का श्लोक उद्धृत किया है जो प्रायः रथयात्रा के समय पढ़ा जाता है- दोलायमानं गोविन्दं, मञ्चस्थं मधुसूदनम्। रथस्थं वामनं दृष्ट्वा, पुनर्जन्म न विद्यते॥ यहां संवत्सर या कालचक्र का दोलन गोविन्द रूप है। संसार की क्रिया या सृष्टि क्रम मञ्च है जिस पर मधुसूदन मधु-कैटभ का नाश कर सृष्टि आरम्भ करते हैं। हृदय स्थित वामन रूप जगन्नाथ हमको चला रहे हैं- ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन् सर्व भूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥ (गीता, १८/६१) शरीर रूपी माया यन्त्र (रोबोट) ठीक से चल परम स्थान पहुँचे, इसके लिए वामन ध्यान करना पड़ता है। महाकवि विद्यापति का इस आशय का एक गीत विख्यात है- पिया (ब्रह्म) मोरे बालक, हम तरुणी गे, ------ धैरज धये रहु, मिलत मुरारी॥ इस वाक्य की ख्याति नष्ट करने के लिए स्कन्द पुराण के वर्तमान संस्करणों से इसे हटा दिया है।



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