डॉ. दिलीप कुमार नाथाणी -विद्यावाचस्पति
Mystic Power- सनातन धर्मशास्त्र में मन के सभी संवेगों को बहुत ही अच्छे से प्रस्तुत किया है। वह संवेग, केवल भक्ति ही नहीं है वरन् लौकिक परिप्रेक्ष्य में विरह भी है तथापि उन सभी संवेगों में वासना को कोई स्थान नहीं दिया गया है।
वर्तमान युग में जब भी कोई बिछुड़ता है विशेष कर यदि बिछुड़ने वाले परस्पर विपरीत लिंग हों तो ओ हो! पता नहीं कैसे कैसे पद्यों को जोड़ जोड़ कर मन की वासना को ही प्रस्तुत करने की मानो होड़ सी लग जाती है। परन्तु जब हम गोसाई तुलसीदास जी की 'रामचरितमानस' को सुनते हैं तो ज्ञात होता है कि उसमें विरह को कितने सहज, सरलता से प्रस्तुत किया है किन्तु उनमें जो मन को प्रतीत होने वाले संवेग है उसका स्तर अत्युच्च है।
आज में सुन्दर काण्ड सुन रहा था तो उसमें कुछ चौपाइयाँ आई हैं जो भगवान् राम एवं सीता के विरह के उदात्त भाव को प्रकट करती हैं उनके प्रेम एवं बिछुड़ने पर जो विरह है उसके सन्ताप को जो उन्होंने सहन किया है बिना किसी प्रदर्शन के उन भावों को तुलसी बाबा ने कितने ही सुन्दर एवं संयमित शब्दों में कहा है—
जब हनुमान् जी ने भगवान् राम के आदेशानुसार शत्रु के बल को आँका साथ ही जितना उसे नष्ट करना था वह सब भी किया उसके उपरान्त लौटने से पूर्व जब वे माता सीताजी के निकट गये तथा प्रमाण रूप में उनसे उनका कोई चिह्न मांगा तब माता सीता के शब्दों में जो विरह तुलसीदास जी ने प्रकट किया है, माता सीता के मन में भगवान् के प्रति जो प्रेम था उसे प्रकट किया है वह उन्हीें के शब्दों में —
मात मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा।।
चूड़मनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ।।
हनुमान् जी ने कहा हे माता! मुझे कोई चिह्न दीजिये जैसे रघुनाथजी ने मुझे दिया था। तब सीताजी ने चूड़ामणि उतारकर दी थी। हनुमान् जी ने उसे सहर्ष ले लिया।
इसके उपरान्त माता सीता जी ने जो संदेश दिया है वह उनके मन में भगवान् राम के प्रति जो अनन्य प्रेम है उसे दर्शाता है—
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।
माता जी कहती है कि हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना— हे प्रभु! आप सब प्रकार से पूर्णकाम ( आपको किसी की कामना नहीं है।) तथापि दीनों एवं दुखियों पर दया करना आपका विरद (आपके द्वारा ग्रहण किया गया अलंकार ) है अत: उस विरद को याद करके हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिये।
यहाँ इन पंक्तियों में माताजी ने उनके पराक्रम से स्वयं को अनजान न बताते हुये एक प्रकार से दु:ख व्यक्त किया है कि सभी के दु:ख दूर करने में सक्षम आपको मेरा अपनी धर्मपत्नी का दु:ख दिखाई नहीं दिया। अत: आप अपने उस सामर्थ्य को स्मरण में रखकर मुझे एक साधारण दीन समझ कर दु:ख से उभारिये।
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु।।
मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा।।
हे तात! इन्द्रपुत्र जयन्त के द्वारा काग भाव में रहते हुये मेरे पाँव में चोंच मारने तथा आप सर्वसामर्थ्यशाली द्वारा सीक में बाण का संधान करना तथा त्रिलोक में सुरक्षा न पाकर पुन: जयन्त का आपकी शरण में आना ऐसे प्रतापी आपको अब मेरा ज्ञान हो गया है अत: अब यदि एक मास में मुझे लेने नहीं आए तो मैं जीवित नहीं रहूँगी।
यहाँ पुन: माता सीताजी ने भगवान् को अपने संदेश में उनके सामर्थ्य को ही प्रकट किया है।
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना।
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती।।
हे हनुमान्! कहो, मैं किस प्रकार प्राण रखूँ! हे तात! तुम भी अब जाने को कह रहे हो। तुमको देखकर तो मन में शांति आई थी पर अब मुझे पुन: वहीं दिन और वही रात सहने हैं।
यहाँ अपने आराध्य अपने स्वामी के सेवक को देखकर भी माता सीता को जो परमहर्ष हुआ है वह बताया है कि वे कह रही हैं कि अब तुम भी जाओेगे तो बताओं स्वयं को कैसे संभालूँ अपने प्राणों को कैसे सुरक्षित रखूँ।
तुलसीदास जी ने माता जी के इस विरह संदेश को दो भागों में कहा है एक जो माता सीताजी के मुख से स्वयं कहलवाया द्वितीय हनुमान् जी ने जब भगवान् को संदेश दिया है तब उनके मुख से माताजी के संदेश को दिया है।
माता सीता जी के विरह के संदेश शेष हैं किन्तु उन्हें सुनते हुये समय भगवान् के जो भाव हैं उनकी जो भंगिमाएँ हैं उन्हें तुलसीबाबा कहते हैं कि —
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए।
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की।।
कृपानिधि ने हनुमान् की सफलता को सुनकर उन्हें अपने हृदय से लगा लिया क्योंकि हनुमान् उनकी प्रिय सीता जी का संदेश लाए हैं। तदुपरान्त पूछा कि बताओ कि सीता जी कैसे रहती हैं? कैसे अपने प्राणों की रक्षा करती हैं?
इन प्रश्नों में भगवान् के भाव व्याप्त हैं भगवान् जानते हैं कि उस अधम स्थल पर रहना उनके लिये सम्भव नहीं किन्तु वे जीवित हैं तो केवल मुझसे पुन: मिलने के लिये इस लिये ही तो उन्होंने प्राणों को धारण कर रखा है अस्तु अब हनुमान् तुम बताओ
हनुमान् कहते हैं कि—
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।
आपका नाम दिन—रात पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किंवाड है। नेत्रों को अपने चरणों में लबाये रहती हैं, यही ताला लगा है, फिर प्राण जायँ तो किस मार्ग से।
हनुमान् जी ने माता सीता जी के विरह व्यथा में भी स्वयं को भगवान् अपने स्वामी के प्रति लगाए रखा है उनसे मिलने की आस में मरी नहीं किन्तु स्वयं को उन्हीें के आश्रित जीवित रखा तो उसकी विधि हनुमान् जी ने भगवान् के समक्ष उपस्थित की है।
आगे कहते हैं—
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाए सोई लीन्हीं।
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी।।
प्रभु! उन्होंने चलते समय मुझे यह चूड़ामणि दी उसे देखते ही भगवान् ने उस चूड़ामणि को अपने हृदय से लगा लिया। सबने देखा आगे हनुमान् जी कहते हैं कि प्रभु! माता सीता जी ने अपने नेत्र युगलों में जल भरकर अर्थात् गद्गद् कण्ठ से कुछ वचन कहे—
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरन।।
मन क्रम वचन चरन अनुरागी। केहि अपराध नाथ हौं त्यागी।।
छोटे भाई सहित प्रभु के चरण पकड़ना और कहना कि आप दीनबन्धु है शरणागत के दु:खेां को हरने वाले हैं और मैं तो मन, वचन और कर्म से आपके चरणों की अनुरागिणी हूँ फिर भी हे स्वामी! आपने मुझे किस अपराध से त्यागा।
यहाँ माता सीता ने जो अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना कहा है उसमें वह बात है कि स्वर्णमृग के समय लक्ष्मण द्वारा बारम्बार माता जी को यह कहना कि कोई भी त्रिलाकी में ऐसा नहीं है जो भगवान् को इस प्रकार सहायता माँगने के लिये विवश करे तथापि ने माता ने लक्ष्मण जी को बहुत ही बुरे वचन कह उन्हें वहाँ से जाने के लिये विवश किया अस्तु माता जी ने अपने विरह की परास्थिति में भी अपने विवेक बुद्धि को खोया नहीं वरन् धर्म एवं विवेक के आश्रय होकर ही अपनी व्यथा कही है। आज कल के ...क्या कहूँ।
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत *प्रान न कीन्ह पयाना।।
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहि हठि बाधा।।
माताजी आगे कहती हैं मेरा एक अपराध अवश्य है कि आपसे बिछुड़ने के उपरान्त भी मेरे प्राण मेरी देह में अटके हुये हैं यह ही बस एक अपराध है किन्तु हे नाथ! ये तो नोत्रों का अपराध है जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं
यहाँ विरह की पराकाष्ठा कही है कि यह मेरा अपराध है कि आपके वियोग में भी प्राणों ने देह का त्याग नहीं किया। परन्तु मन में जो भगवान् की छवि को पुन: देखने की प्रबल इच्छा है वह प्राणों को धारण किये हुये है। अर्थात् देह का नहीं केवल और केवल प्राणों का ही अस्तित्व है। वस्तुत: माता सीता के लिये जो वियोग है वह अत्यन्त ही दु:सह है किन्तु मिलन की अथवा अपने प्रिय को पुन: देखने की प्रबल इच्छा के कारण देह शेष है बस शेष आगे कहती हैं—
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी।।
विरह की अग्नि है तथा देह तो मानो रुई का ढेर और श्वास पवन है इस प्रकार अग्नि और पवन का संयोग होने से शरीर क्षण में जल सकता है, किन्तु नेत्र अपने हित के लिये अर्थात् प्रभु के शरीर के दर्शन के सुख के लिये सदा आँसू बरसाते हैं जिससे विरह की आग से भी दे जल नहीं पाता।
इसके उपरान्त हनुमान् जी कहते हैं कि उनकी विपत्ति तो अति विशाल है न ही कहूँ तो ठीक है आप से सुनी नहीं जाएगी।
यहाँ माता सीता जी का विवेक पूर्ण विरह का भाव समाप्त करके तुलसीदास जी एक ही पंक्ति् में भगवान् की मन की पीड़ा को कह रहे हैं
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना।।
सीताजी के दु:ख को सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया।
विरह का एक पक्ष माता सीताजी हैं किन्तु द्वितीय पक्ष जो अत्यन्त दृढ़ है, पूर्णकाम हैं, कहीं कही धर्म के पालन में रत रहने के कारण माता कौशल्यादि के द्वारा भी निष्ठूर तक कहे गये हैं ऐसे सभी आवेगां सभी संवेगों में भी स्वयं को संयत रखने में सक्षम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के कमल समान नेत्रों में जल भर आया।
अहो यह सनातन प्रेम की पराकाष्ठा है जिसे आज को वासनासुखेच्छी कभी समझ नहीं सकता ।
अब इसके सापेक्ष वर्तमान काल में किसी बिछड़े हुये देहभोगी पुरुष जो कि अपने एक पक्षीय वासनाजन्य प्रेम को ढाई आखर बताने की दृष्टता करता हुआ शास्त्रों को भी अपनी वासना के समक्ष तुच्छ समझता हुआ वह वासना का कीड़ा कहता है कि— ... बाद मरने के मेरी आँखें खुली थीं ये मेरे कि पता नहीं तेर इंतजार की हद थी।
रामचरित के विवेकपूर्ण विरह एवं तदजन्य प्रेम के संवेगों का प्रदर्शन के उपरान्त इस वासना के कीड़े के मुगलई वाक्य सुनकर हँसी आना स्वाभाविक है।
जय श्री राम
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