श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ)-
Mystic Power- १. "अञ्जते व्यञ्जते समजते, क्रतुं रिहन्ति मध्वाभ्यञ्जते ।"
(साम० १६१४)
यज्ञकर्ता यज्ञ को संस्कृत, अभिव्यक्त और प्रशस्त करते हुए उसे अपनाते से सिक्त करते हैं ।
२. "अथो यज्ञस्य यत् पयः ।"
( साम० ६०२)
मुझे यज्ञ का रस (सार) प्राप्त हो ।
३. "अबोध्यग्निः समिधा जनानाम् ।"
(साम० ७३ )
लोगों द्वारा दी गई समिधाओं से अग्नि प्रदीप्त हुई ।
४. "अयं स होता यो द्विजन्मा ।"
(साम० १७७६)
द्विज ही होता (यज्ञकर्ता) होता है ।
५. "आघा ये अग्निमिन्धते, स्तृणन्ति बर्हिरानुषक् ।
येषामिन्द्रो युवा सखा ।"
(साम० १३३, १३३८)
जो प्रतिदिन अग्नि प्रदीप्त करते हैं (यज्ञ करते हैं), आसन बिछाते हैं, नित्य युवा इन्द्र (परमात्मा) उनका मित्र होता है ।
६. "आ जुहोता हविषा मर्जयध्वम् ।"
(साम० ६३ )
हव्य से यज्ञ करो और यज्ञभूमि को स्वच्छ रखो ।
७. "आयुर्दधद् यज्ञपतावविरुतम् ।"
(साम० ६२८ )
परमात्मा यज्ञकर्ता को अक्षत आयु देता है ।
८. "इष्टा होत्रा असृक्षत ।"
(साम० १५१ )
विद्वानों ने अभीष्ट साधक यज्ञों को जन्म दिया ।
९. "उपप्रयन्तो अध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये ।"
(साम० १३७९)
यज्ञ में जाकर अग्नि देव के लिए मन्त्र बोलें ।
१०. "ऋषीणां सुष्टुतीरुप यज्ञं च मानुषाणाम् ।"
(साम० १०३०)
ऋषियों की स्तुतियों और मनुष्यों के यज्ञ में देव आते हैं ।
११. "एष ब्रह्मा य ऋत्वियः ।"
(साम० ४३८, १७३८ )
ऋतुओं के अनुसार यज्ञ करने वाला ब्रह्मा होता है ।
१२. "कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे ।"
(साम० ३२)
यज्ञ में क्रान्तदर्शी और सत्यनिष्ठ अग्नि की स्तुति करो ।
१३. "तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि ।"
(साम० ६६१)
विद्वान् समिधा और घी से अग्नि को दीप्त करते हैं ।
१४." त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हितः ।"
(साम० २)
हे अग्नि ! तुम यज्ञ के प्रसारक और लोकहितकारी हो ।
१५. "देवमादनः क्रतुरिन्दुर्विचक्षणः ।"
(साम० १३१५ )
यज्ञ देवों का आह्लादक, सोम्य और ज्ञानी है ।
१६. "देवाँ देवयते यज ।"
(साम० १०० )
हे अग्नि ! तुम देवभक्तों के लिए देवों को लाओ ।
१७. "देवा यज्ञं नयन्तु नः ।"
(साम० ५६ )
देवता हमारे यज्ञ को स्वीकार करें ।
१८. "देवा हविरदन्त्वाहुतम् ।"
(साम० १०६६)
देवता प्रदत्त आहुति खावें (स्वीकार करें) ।
१९. "धर्ता दिवो भुवनस्य विश्पतिः ।"
(साम० १८४५ )
यज्ञ द्युलोक का धारक और संसार का स्वामी है ।
२०. "प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे ।"
(साम० १६)
हे अग्नि ! तुम्हें इस सुन्दर यज्ञ में सोम-पान के लिए बुलाते हैं ।
२१. "ब्रह्मा देवानां पदवी: कवीनाम् ।"
(साम०९४४)
सोम (ईश्वर) देवों का ब्रह्मा (राजा) और कवियों का मार्गदर्शक है ।
२२. "भद्रो नो अग्निराहुतः ।"
(साम० १११, १५५९ )
आहुति दिया हुआ अग्नि हमारे लिए शुभ हो।
२३. "भरामेध्मं कृणवामा हवींषि ।"
(साम० १०६५ )
हम यज्ञ में समिधा और हवि डालते हैं।
२४. "मही यज्ञस्य रप्सुदा ।"
(साम० १६०२)
यज्ञ की महान् प्रतिष्ठा है ।
२५." यजस्व जातवेदसम् ।"
(साम०१०३)
अग्नि में यज्ञ करो ।
२६. "यजा देवाँ ऋतं बृहत् ।"
( साम० १५३७)
हे अग्नि ! तुम हमारे लिए देवों को और महान् सत्य को लाओ ।
२७. "यजा स्वध्वरं जनं मनुजातम् ।"
(साम० ९६)
हे अग्नि ! तुम यज्ञकर्ता मनुष्य का आदर करो ।
२८. "यज्ञ इन्द्रमवर्धयत् ।"
(साम०१२१, १६३९)
यज्ञ इन्द्र (मेघ) को बढ़ाता |
२९. "यज्ञस्य हि स्थ ऋत्विजा ।"
(साम० १०७३)
हे इन्द्र और अग्नि ! तुम यज्ञ के ऋत्विज् हो ।
३०. "यज्ञैः परि भूषत श्रिये ।"
(साम० ५६८)
समृद्धि के लिए यज्ञों से (गृहादि को) अलंकृत करो ।
३१. "यज्ञो जिगाति चेतनः ।"
(साम०६७०)
चेतन यज्ञ (ईश्वर) चारों ओर जाता है (व्याप्त है)
३२. "यदि वीरो अनु ष्याद् अग्निमिन्धीत मर्त्यः ।"
(साम० ८२ )
जो वीर पुरुषार्थ करता है और यज्ञ करता है, उसे दिव्य सुख मिलता है।
३३. "यद् भूमिं व्यवर्तयत् ।"
(साम० १२१, १६३९ )
यज्ञ भूमि में चारों ओर फैल जाता है ।
३४." विश्वे देवा. मम शृण्वन्तु यज्ञम् ।"
(साम० ६१० )
सारे देव मेरे यज्ञ को सुनें (स्वीकार करें) ।
३५. "शर्म भक्षीय दैव्यम् ।"
(साम० ८२ )
यज्ञकर्ता को दिव्य सुख मिलता है ।
३६." सहस्रदाः शतदा भूरिदावा ।"
(साम० १८४५)
यज्ञ अत्यधिक और सहस्रों रूप में सुख देता है।
३७. "सुब्रह्मा यज्ञः सुशमी वसूनाम् ।"
(साम० ७५० )
यज्ञ श्रेष्ठ ब्रह्मा (वेदज्ञ) और वसुओं को शान्ति देता है ।
३८. "सुभग भद्रो अध्वरः ।"
(साम० १११, १५५९ )
श्रेष्ठ यज्ञ सौभाग्य के लिए हो ।
३९. "सूरो न हि द्युता त्वं कृपा पावक रोचसे ।"
(साम० ८३)
हे अग्नि ! तुम अपनी ज्योति से सूर्य की तरह चमकते हो ।
४०. "सूर्यस्य भानुं यज्ञो दाधार ।"
(साम० १८४५ )
यज्ञ सूर्य की किरणों को धारण करता है ।
४१. "होतारं त्वा वृणीमहे ।"
(साम० ४२०)
हे अग्नि ! देवों को लाने वाले तुमको हम चुनते हैं ।
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