सनातन तथा अमृत तत्त्व

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  • धर्म-पथ
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  • 31 October 2024
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अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)- (१) श्रेय-प्रेय मार्ग-एक सन्त इसी धर्म के नियमों के अनुसार सन्त बन कर उसका चोला डाले हैं पर सदा सनातन धर्म की संस्थाओं का व्यंग्य-विरोध करते रहते हैं। उनका कहना है कि यह सनातन है तो इस पर खतरा कैसे है? सदा अच्छी चीजों पर ही खतरा रहता है-घर की सफाई बार-बार करते हैं पुनः गन्दा हो जाता है। देव मात्र ३३ हैं, असुर ९९, प्रायः असुर जीत जाते हैं पर उनका मार्ग श्रेष्ठ नहीं है। वैवस्वत यम भारत का पश्चिम सीमा (अमरावती से ९० अंश पश्चिम संयमनी = यमन, सना) के राजा थे। उन्होंने कठोपनिषद् में नचिकेता से दोनों का विवेचन किया है-श्रेय (स्थायी या सनातन लाभ) तथा प्रेय (तात्कालिक लाभ या उसका लोभ)। श्रेय मार्ग पर चलनेवाले सनातनी हैं, उनको सम्मान के लिये श्री कहते हैं। जो हमें प्रेय दे सके वह पीर है या दक्षिण भारत में पेरिया। अन्य अर्थ हैं- (२) सनातन पुरुष की उपासना-सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे (गीता, ११/१८) या भूत-भविष्य-वर्त्तमान में सर्वव्यापी-पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यं (पुरुष सूक्त)। या उसके शब्द रूप वेद की उपासना -भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात् प्रसिद्ध्यति। (मनुस्मृति, १२/९७)। (३) सनातन या अमृत तत्त्व की उपासना-मृत्योर्मा अमृतं गमय आदि। जो निर्मित होता है वह बुलबुला जैसा क्षणभङ्गुर है, वह मूल स्रोत से मुक्त होता है अतः उसे मुच्यु या परोक्ष में मृत्यु कहा है। उसके बदले मूल स्रोत (समुद्र) की ही निष्ठा। स समुद्रात् अमुच्यत, स मुच्युः अभवत्, तं वा एतं मुच्युं सन्तं मृत्य्ः इति आचक्षते (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, १/७) वेद में इसे केवल सनात् भी कहा है- सनादेव शीर्यते सनाभिः। (ऋक्, १/१६४/१३, अथर्व, ९/९/११) अनापिरिन्द्र जनुषा सनादसि (ऋक्, ८/२१/१३, अथर्व, २०/११४/१, साम, १/३९९, २/७३९), सनाद् राजभ्यो जुह्वा जुहोमि (ऋक्, २/२७/१, वाज यजु, ३४/५४, काण्व सं, ११/१२, निरुक्त, १२/३६)। मूल तत्त्व से जो बुद्-बुद् निकलता है उसे द्रप्सः (drops) या स्कन्द (निकलना, गिरना) भी कहा है। आकाशगंगा, तारे, ग्रह-सभी द्रप्सः हैं। स्तोको वै द्रप्सः। (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, २/१२) द्रप्सश्चस्कन्द प्रथमाँ अनु द्यूनिमं च योनिमनु यश्च पूर्वः (ऋक्, १०/१७/११) यस्ते द्रप्सः स्कन्दति यस्ते अंशुर्बाहुच्युतो धिषणाया उपस्थात्। (ऋक्, १०/१७/१२) (४) सनातन यज्ञ-स्वयं यज्ञ द्वारा उत्पादन कर उपभोग करना देवों का कार्य है। इसके विपरीत दूसरों का अपहरण करना असुर वृत्ति है- यज्ञेनयज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकः महिमानः सचन्तः यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ (पुरुष सूक्त, वाज, यजु, ३१/१६) यज्ञ द्वारा इच्छित वस्तु का उत्पादन होता है- अनेन प्रसविष्यध्वं एष वोऽस्तु इष्टकामधुक् (गीता, ३/१०)। लूटा माल खत्म हो जाता है पर यज्ञ का चक्र सदा चलता रहता है- एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः (गीता ३/१६)। अतः यज्ञ को चलाते रहना सनातन धर्म है। केवल इसका बचा भाग लेना चाहिये जिससे यह चक्र बन्द नहीं हो- यज्ञशिष्टामृत भुजः (गीता, ४/३१)  यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः (गीता, ३/१३) यज्ञ चक्र द्वारा सभ्यता को सदा चलाते रहना सनातन है। असुरों द्वारा इसी लूट प्रवृत्ति के कारण सनातन धर्म पर सदा खतरा रहता है। (५) अदिति उपासना-पृथ्वी कक्षावृत्त का २७ नक्षत्रों में विभाजन दिति है पर उस चक्र में निरन्तन गति अदिति है। जैसे सम्वत्सर चक्र सदा चलता रहता है, जिस विन्दु पर एक सम्वत्सर समाप्त होता है वहीं से नया आरम्भ होता है-यह कालचक्र के अनुसार अर्थ है- अदितिर्जातम् अदितिर्जनित्वम् (ऋग्वेद, १/८९/१०) प्राचीन नियम था अदिति का नक्षत्र पुनर्वसु आने पर रथयात्रा होगी। देवों का वर्ष इसी से आरम्भ होता था। पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य आने से वर्ष (अदिति) का अन्त भी होता है और नये वर्ष (अदिति) का आरम्भ भी, अतः कहा गया है-अदितिर्जातम्, अदितिर्जनित्वम्। सूर्य पुनर्वसु नक्षत्र में ५ से १८ जुलाई तक रहता है, इस अवधि में रथयात्रा या बाहुड़ा निश्चय होगा। जो सनातन तत्त्व अदिति की उपासना करता है वह आदित्य या सनातनी है। दिति का अर्थ काटना है। उनके उपासक दैत्य विश्व को दो भागों में काट देते हैं-उनका भगवान् ठीक है बाकी गलत हैं अपने भगवान मत में धर्म परिवर्तन नहीं तो हत्या करना। उनके प्रचारक या पैगम्बर के पहले सभी गलत था। सनातन मत वाले ज्ञान या सभ्यता की निरन्तरता को समझते हैं। (६) अमर-देवों को अमर कहा गया है। तत्त्व रूप में इनके विभिन्न रूप आकाश के विभिन्न भागों में सदा बने रहते हैं। किन्तु मनुष्य रूप में देव अमर नहीं थे। वे भी देव-असुर युद्धों में मरते थे- निर्जीवं च यमं दृष्ट्वा ततः संत्यज्य दानवः (मत्स्य पुराण, १५०/४९) ध्रुव ने भी देवयोनि के लाखों यक्षों का वध किया था जब उन्होंने उनके भाई की हत्या कर दी थी (भागवत पुराण, ४/१०/१८-२० आदि) इन्द्र पद पर भारत के कई राजा रहे हैं, जैसे रजि, नहुष (भागवत पुराण, ९/१८, महाभारत, आदि, ७५/२९ आदि) अमर होने का एक अर्थ तो यहीं स्पष्ट है कि एक इन्द्र के मरते ही नहुष आदि उनका स्थान लेने के लिए तैयार रहते थे। अमरता का मुख्य अर्थ है, व्यक्ति नष्ट होता है पर उसकी परम्परा चलती रहती है। हर व्यक्ति परम्परा की ३ धाराओं का अंश है जिनको ३ ऋण कहते हैं-देव, ऋषि, पितृ ऋण। मनुष्य अपने पूर्व जन्मों के काम को आगे बढ़ाता है, अपनी वंश परम्परा या काम को आगे बढ़ाता है (सन्तान = सम्यक् प्रकारेण तानयति), या समाज को आगे बढ़ाता है। समाज रूप में देखें तो उत्पादन की यज्ञ संस्था, शिक्षा संस्था आदि चलती रहती हैं। शिक्षा, धन अर्जन, व्यक्तिगत तप स्वाधाय आदि भी यज्ञ के ही रूप हैं। गीता (४/२४-३२) में ऐसे १४ यज्ञों का वर्णन है। इन सनातन संस्थाओं से सभ्यता चलती रहती है, किसी पैगम्बर द्वारा सभी पूर्व चीजों का विनाश नहीं करते।  



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