डॉ. मदन मोहन पाठक (धर्मज्ञ)-
स्मृतियों के अनेकों वचनों का समन्वय करने पर यही निश्चय होता है कि तीनों कालों की संध्या पूर्वाभिमुख होकर करनी चाहिये। ईशान कोण तथा उत्तर दिशा की ओर मुँह करके भी त्रिकाल संध्या की जा सकती है, किंतु यह ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि अर्घ्य, उपस्थान और जप - सूर्य की ओर ही मुँह करके किये जायँ । सारांश यह कि प्रातःसंध्या का तो समस्त कार्य पूर्वाभिमुख होकर ही करना चाहिये। परंतु मध्याह्न-संध्या और सायं-संध्या में अर्घ्य, उपस्थान और जप- सूर्य जिस दिशा में हों, उधर ही मुँह करके करे तथा शेष आचमन आदि कर्म अपनी सुविधा के अनुसार पूर्व, ईशान या उत्तर की ओर मुँह करके करे। किंतु दक्षिण और पश्चिम की ओर मुँह करके किंतु दक्षिण और पश्चिम की ओर मुँह करके आचमन नहीं करना चाहिये।
याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है कि द्विज नित्य शुद्ध स्थान पर बैठकर उत्तराभिमुख अथवा पूर्वाभिमुख हो दोनों हाथों को जानुओं के भीतर करके दाहिने हाथ से ब्राह्मतीर्थ से आचमन करे।
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