स्फोट का विस्फोट!

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  • 31 October 2024
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श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )- भारतीय मनीषा ने शब्द विषय पर एक अन्य अत्यन्त सम्मानित सिद्धान्त की स्थापना की है। इसका श्रेय संस्कृत व्याकरण शास्त्र के विद्वानों को प्राप्त है। इस सिद्धान्त से ध्वनि पर कम पर अक्षरों से निर्मित शब्द, वाक्य तथा इनकी अर्थवाचकता आदि पर अधिक प्रकाश पड़ता है। अतः इसे ध्वनि से थोड़ा अलग, अन्तिम परिच्छेद में स्थान दिया गया है। इस सिद्धान्त में ध्वनि विषय पर लगभग वही अभिमत है, जो न्यायशास्त्र का है। वर्णरूप ध्वनि अनित्य होती है तथा यह स्थान का करण के साथ स्पर्श या अभिघात संयोग से उत्पन्न होती है। महाभाष्यकार के अनुसार 'शब्द करो', 'शब्द मत करो' जैसे प्रयोग इस प्रकार की अनित्य ध्वनि के लिए ही किये जाते हैं। "प्रतीतपदार्थको लोके ध्वनिः शब्द इत्युच्यते। तद्यथा शब्दं कुरु मा शब्द कार्षीः इति ध्वनिं कुर्वत्रेवमुच्यते।"( महाभाष्य, पस्पशाह्निक, पृ. १९) https://www.mycloudparticles.com/ पर अक्षरों से निर्मित शब्दों की क्या प्रकृति होती है? अथवा इन शब्दों में अर्थ- वाचकता किस प्रकार होती है? इस प्रकार के प्रश्न व्याकरण शास्त्र में उत्पन्न होते हैं। सामान्यतः कणों से निर्मित वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं- १. या तो वे कण समूह रूप हों, जिनमें एकवचन आरोपित होता है। २. अथवा एक अवयवीरूप हों, जो अनेक अवयवों से निर्मित एक अतिरिक्त पदार्थ होता है। इनमें प्रथम विकल्प का उदाहरण अनाज का ढेर हो सकता है। यह ढेर अनाज के दानों से भिन्न नहीं है। दानें बहुत हैं, फिर भी इनमें एकवचन का आरोप किया गया है। शास्त्र में सेना, वन आदि ऐसे ही उदाहरण हैं। द्वितीय विकल्प का उदाहरण तन्तु से निर्मित पट हो सकता है, जो कि वस्तुओं से सर्वथा भिन्न, वस्तुतः एकत्व से परिपूर्ण पदार्थ माना जाता है। समूह की परिकल्पना में इन दोनों से भिन्न कोई तीसरा विकल्प नहीं हो सकता। इस दशा में अक्षरों से निर्मित शब्द, वाक्य उपरिलिखित दो प्रकार के ही हो सकते हैं। पर ध्वनि की अपनी विशेष प्रकृति के कारण इन दोनों प्रकारों में कठिनाइयाँ हैं। पहले विकल्प के अनुसार अक्षरों का समूह शब्द हो सकता है। पर इसमें कठिनाई यह है कि अक्षरों के अनित्य होने के कारण इनका समूह बन ही नहीं सकता। महाभाष्यकार के मनोरम शब्दों में-'वाणी क्रमशः एक क्षण में एक अक्षर को सम्पादित करती है'। जिस समय वह 'ग' बोलती है, उस समय 'ओ' अक्षर नहीं है। जब वह 'ओ' बोलती है, उस समय तो 'ग' अक्षर विलुप्त हो चुका। इस प्रकार अक्षरों की उत्पत्ति-विनाशशील होने के कारण कोई अक्षर किसी का सहायक नहीं हो सकता। "एकैकवर्णवर्तिनी वाक्। न द्वौ युगपदुच्चारयति । गौरिति यावद् गकारे वाग्वर्तते, नौकारे, न विसर्जनीये। यावदौकारे, न गकारे, न विसर्जनीये । उच्चरितप्रध्वंसिनः खल्वपि वर्णाः । न वर्णो वर्णस्य सहायः । - पर: सन्निकर्षः संहिता।"- (अष्टाध्यायी सूत्र १.४.१०९ पर महाभाष्य) अतः बाहरी दुनियाँ में इनका मेल सम्भव नहीं है। यहाँ दूसरा विकल्प भी सम्भव नहीं है। क्योंकि जब अक्षरों का एक साथ मेल ही नहीं, तो उनसे निर्मित एक अतिरिक्त शब्द किस प्रकार बन सकता है? जब अतिरिक्त शब्द ही नहीं तो वह किसी अर्थ का वाचक भी किस प्रकार बन सकता है? इस समस्या के समाधान के लिए जिस तत्त्व की स्थापना हुई, उसे व्याकरण के विद्वानों ने 'स्फोट' नाम दिया है। इसका व्युत्पत्तिमूलक अर्थ 'जो ध्वनि के द्वारा प्रस्फुटित अथवा अभिव्यक्त हो', वह स्फोट है। इसके अनुसार अनेक अक्षरों को सुनकर अन्तःकरण में एक विलक्षण आकार का सृजन होता है। यह उन बाहरी अक्षरों से भिन्न केवल एक शब्द' तथा 'एक वाक्य' के स्वरूप का होता है। इससे ही अर्थबोध होता है। इस स्फोट के निरूपण में एक प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार है- " पदे न वर्णा विद्यन्ते वर्णेष्ववयवा न च। वाक्यात् पदानामत्यन्तं प्रविवेको न कश्चन ।।" (वाक्यपदीय, ब्रह्मकाण्ड, श्लोक ७३) अर्थात् इस स्फोट के अन्तर्गत पदों में वर्ण नहीं होते, वर्णों के भी अवयव नहीं होते। वाक्य के मध्य भी अलग-अलग अक्षर तथा शब्द के रूप में कोई भी विभेद उपस्थित नहीं होता। स्पष्टतः यह वर्णन बाहरी दुनियाँ के शब्दों का नहीं हो सकता। अतः मान्य है कि यह अन्तःकरण के उस आकार का विवेचन है, जहाँ अलग-अलग अक्षरों का भेद मिट जाता है। कुछ वैयाकरणों का कहना है कि यह स्फोट अन्त:करण का अन्यों से सर्वथा भिन्न, विलक्षण आकार है। यहाँ महान् दार्शनिक शंकराचार्य का कहना है कि यह स्फोट वर्ण को विषय बनाकर उत्पन्न होने वाली शब्दाकाराकारित वृत्ति ही है। यह अत्यन्त यथार्थ विवरण है। सांख्य तथा वेदान्त में माना है कि बाह्य विषयों का विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्यक्ष के द्वारा बुद्धि में उस आकार की वृत्ति बनती है। इसका ही पुरुष को 'बोध' होता है। यह वृत्ति बाहर अलग-अलग बिखरे पदार्थों को एक बनाकर उपस्थित करके उसके पूरे स्वरूप तथा कार्यों का अवगम कर लेती है। यदि हमें टार्च द्वारा किसी हाथी को क्रम से दिखाया जाय तो भी हमारी बुद्धि उस पूरे हाथी के आकार वाली होकर उसे जान सकती है। यहाँ बुद्धि का यह समूह आकार उस स्वरूप से भिन्न है जो हमें टार्च द्वारा क्रमशः दिखाया गया है। यह उसके उन अवयवों का अलग-अलग सन्निवेश नहीं है। ठीक यही स्थिति शब्दाकार वृत्ति के साथ है। अलग-अलग अक्षरों से निर्मित एक शब्दाकार वृत्ति उन भेद वाले अक्षरों से भिन्न ही है। अतः इस एक वृत्ति में उन अलग-अलग अक्षरों की विभेदकता नहीं है, यह कथन सही सिद्ध होता है। यहाँ व्याकरण के विद्वान् स्फोट को सर्वथा विलक्षण सिद्ध करने के लिए इसे सर्वथा अलग आकार का बताना चाहते हैं। पर शांकरभाष्य में अनेक तर्कों से बताया गया है कि यह अनेक वर्णों को विषय बनाकर उत्पन्न होने वाली बुद्धि की एक शब्दाकार वृत्ति से अलग कुछ नहीं । क्योंकि 'गो' ध्वनि से अभिव्यक्त इस मध्यमा नामक स्फोट में भी 'ग ओ' अक्षर झलकते हैं। यदि यह स्फोट इन अक्षरों से निर्मित बुद्धि की वृत्ति से सर्वथा भिन्न हो, तब जिस प्रकार 'गो' के स्फोट में दकार का अनुवर्तन नहीं होता, उसी प्रकार गकार का अनुवर्तन भी नहीं होना चाहिए। "यतोऽस्यामपि बुद्धौ गकारादयो वर्णा अनुवर्तन्ते, न तु दकारादयः । यदि यस्याः बुद्धेर्गकारादिभ्योऽर्थान्तरं स्फोटो विषयः स्यात्ततो दकारादय इव गकारादयो- ऽप्यस्या बुद्धेर्व्यावर्तेरन्, न तु तथास्ति । तस्मादियमेक-बुद्धिर्वर्णविषयैव स्मृतिः ।" (ब्रह्म-सूत्र १.३.२८ पर शांकरभाष्य, पृ. ३२७) शांकरभाष्य में यह भी कहा है कि स्फोटवादियों के मत में दृष्टहानि तथा अदृष्टकल्पना का दोष आता है। वर्णों की एकाकार वृत्ति बनती है, इस दृष्ट अवधारणा को छोड़ना पड़ता है। साथ ही 'वर्ण सर्वथा भिन्न अतिरिक्त स्फोट को व्यक्त करता है तथा यह स्फोट अर्थविशेष को प्रकट करता है' इस सर्वथा अदृष्ट अनुभव की कल्पना करनी पड़ती है।"स्फोटवादिनस्तु दृष्टहानिरदृष्टकल्पना चा वर्णाश्चेमे क्रमेण गृह्यमाणाः स्फोट व्यंजयन्ति, स स्फोटोऽर्थं व्यनक्तीति गरीयसी कल्पना स्यात् ।"( उक्त सूत्र पर शांकर भाष्य, पृ. ३३०) व्याकरण के अनेक विद्वानों ने भी स्फोट की इस रूप में व्याख्या की है। उनके अनुसार विश्व में अकारादि वर्णों के रूप में सुस्पष्ट वैखरी वाणी है। मन में उसकी तदाकार वृत्ति उसकी मध्यमा वाणी है। इस दशा में मनुष्य को मन में शब्द और अर्थ का अलग-अलग बोध होता है। इसे वेदान्त में मनोमय कोश कह सकते हैं। पुनः इससे सूक्ष्म वृत्ति जिसमें शब्द, अर्थ का अलग बोध क्षीण होने लगता है, उसे पश्यन्ती वाणी कहते हैं। यह विज्ञानमय कोश के लगभग समकक्ष है। इन वृत्तियों से सर्वथा निरुपहित विशुद्ध तत्त्व 'परा' के अन्तर्गत आता है। इस विवेचन से निम्न तथ्य प्रकट होते हैं- १. बाहरी दुनियाँ में अलग-अलग अक्षरों का ही अस्तित्व है। २. इनके द्वारा मन तथा बुद्धि में स्फोट नामक एक शब्दाकार वृत्ति बनती है। ३. इसी मानस शब्दाकार वृत्ति से लोक में अर्थबोध होता है। आधुनिक विज्ञान में स्फोट के समकक्ष व्याख्याएँ - इसमें सन्देह नहीं कि शब्द को लेकर स्फोट की यह व्याख्या अत्यन्त वैज्ञानिक है। बाहरी दुनियाँ में अक्षर-समूह बनाने का कोई उपाय नहीं। अतः मस्तिष्क में निर्मित एकाकार शब्द- संवेदना के द्वारा अर्थ-बोध होता है। पर इस तथ्य को केवल शब्द तक सीमित नहीं रखना चाहिए। क्योंकि लोक व्यवहार में मस्तिष्क की अनेक संवेदनाओं में यही बात दृष्टिगोचर होती है। आकाश में अलग-अलग पक्षियों को देखकर बलाका-पंक्ति का, बिन्दुओं को देखकर रेखा का रेखाओं को देखकर चित्र के अवबोध में यही तथ्य दुहराया जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार रेखा खण्डों से चित्र की अनुभूति बहुत ही सुखद तथा मनोहारी चमत्कार है। अगर ऐसा न होता तो हमारी दुनियाँ अधूरी रहती! एक गणितज्ञ यूलर (Euler) के अनुसार अगर हम अतिरिक्त चित्र की अनुभूति न कर पाते तो चित्रकार की सम्पूर्ण कला बेकार होती। क्योंकि तब तो हम कहते कि अमुक जगह लाल तथा अन्य जगह नीला धब्बा है। यहाँ काली तथा कुछ सफेद लगने वाली रेखाएँ हैं।【If we were used to judge about things as there are in reality then this art would be impossible, it would be as if we are all-blind. In vain the artist would exhaust his skill in colour blending, for we would merely say: there is a red spot on this board, here a blue one, here a black and there several whitish lines !! - (A mahematician 'Euler')】 इस विवरण से प्रकट है कि स्फोट-सिद्धान्त का क्षेत्र बहुत व्यापक है। पर शब्द की व्याख्या के लिए प्रतिबद्ध व्याकरण के द्वारा इसे केवल शब्द तक सीमित रखा गया है। अन्य से अन्य का बोध : एक मौलिक प्रश्न व्याकरण- शास्त्र में अक्षर से शब्द तथा उससे अर्थ-बोध के निरूपण के लिये स्फोट का प्रतिपादन भारतीय दर्शन तथा विज्ञान में एक सर्वथा मौलिक विस्तृत प्रश्न के केवल एक अंग का उत्तर देने का प्रयास है। अन्य दर्शनों में इसके अन्य अंगों से सम्बन्धित प्रश्नों का अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार उत्तर दिया गया है। इन प्रश्नों को इन उपवर्गो में प्रकट किया जा सकता है- १. 'क' का 'ख' के रूप में बोध करना असत्य तथा दोषावह होता है या नहीं। २. 'क' का कभी 'क' तथा कभी 'क' रूप रूषित 'ख' के रूप में बोध होता हो। पर इस प्रकार के 'ख' के रूप में बोध होने पर ही तदनुकूल अर्थक्रिया हो पाती हो, 'क' के रूप में बोध होने पर नहीं। ऐसी दशा में इस 'क' का 'ख' के रूप में बोध कर लेना असत्य तथा दोषावह है या नहीं। ३. 'क' कभी 'क' तथा कभी 'ख' के रूप में बोध होता हो। पर 'ख' के रूप में बोध होने पर भी व्यवहार में नियमित रूप से 'क' के द्वारा सम्पादित होने वाली अर्थक्रिया सम्पन्न हो जाती हो। ऐसी दशा में इस 'क' का 'ख' के रूप में बोध करना असत्य तथा दोषावह है या नहीं। ४. 'क' का नियमतः तथा अनिवार्यतः 'ख' के रूप में ही बोध होता है। ऐसी दशा में इस 'क' का 'ख' के रूप में बोध कर लेना असत्य तथा दोषावह है या नहीं। इन उपवर्गों का विवरण इस प्रकार है- १. इस उपवर्ग के अन्तर्गत सभी एकमत से स्वीकार करते हैं कि ऐसा बोध असत्य भी होगा तथा दोषपूर्ण भी शुक्ति या सीप को देखकर उसे रजत के रूप में बोध करना सर्वथा असत्य है। २. इसके लिये मान लीजिये रेखा शकल से चित्र या अक्षर की अलग-अलग इकाईयों से शब्द का बोध होता है। यहाँ चित्रबोध में रेखाएँ तथा शब्दबोध में अक्षर भी झलकते हैं। बाहरी दुनियाँ में चित्र न होने पर भी इस चित्रबोध तथा शब्दबोध से ही अर्थक्रिया सम्पन्न होती है। अतः यह बोध सत्य है या नहीं। यहाँ अलग-अलग दर्शन की मान्यता अलग-अलग है- (i) न्याय का कहना है कि चित्रबोध सत्य है। अतः मानना होगा कि बाहरी दुनियाँ में रेखा शकल के अलावा एक अतिरिक्त चित्र द्रव्य का अस्तित्व है। क्योंकि किसी बोध की सत्यता का पैमाना ही यह है कि वह उसी रूप में बाहर वर्तमान हो। (ii) व्याकरण का कहना है कि बाहरी दुनियाँ में वर्तमान अक्षर से भिन्न शब्द-बोध सत्य हैं, क्योंकि वह अतिरिक्त स्फोट के रूप में यथार्थतः अस्तित्वशाली होता है। (iii) वेदान्त का कहना है कि चित्र तथा शब्दबोध सत्य तो नहीं हैं, पर वह कदापि दोषावह भी नहीं है। क्योंकि- (क). यह बोध उन्हीं अक्षरों से निर्मित हुआ है। (ख). इस समुदित वृत्ति में वे ही अक्षर झलकते हैं। (ग). इससे अर्थक्रियाकारिता भी सम्पन्न हो जाती है। (iv) विज्ञान का कहना है कि यह चित्रबोध सिद्धान्ततः बाहरी रेखा-शकल के सर्वथा अनुरूप तो नहीं है। फिर भी यही सुखद है, मनोरंजक है तथा दोषावह भी नहीं है। ३. उदाहरण के लिये लोक व्यवहार में शब्द को अर्थ समझकर अथवा रेखा को अक्षर समझकर कार्य किये जाते हैं। यहाँ वास्तव में रेखा उन अक्षरों को संकेत प्रदान करने वाली अर्थात् संकेतक होती है। पर लोग इस संकेतक को ही संकेत्य समझते हुए ऐसा कहते हैं कि 'मैं इन लिखित अक्षरों से ही अक्षर-बोध करता है। यहाँ क्योंकि इन रेखाओं को अक्षर समझने पर भी अक्षर-बोध की अर्थक्रिया नियमित रूप से सही सम्पन्न हो जाती है, अतः इन्हें अक्षर समझना असत्य होने पर भी दोषावह नहीं है। वेदान्त में एक उदाहरण दिया है कि लोग ध्वनि के धर्म ह्रस्व आदि को अकार आदि अक्षरों का धर्म मानकर 'ह्रस्व अकार' ऐसा प्रयोग करते हैं। जिस प्रकार गरम, ठण्डा यह विभेद गुणों का है, द्रव्य का नहीं।' फिर भी लोग 'गरम पानी', 'ठण्डा पानी' इस प्रकार प्रयोग करते हुए पानी द्रव्य में तथा 'हस्व अकार' इस प्रयोग से अकार अक्षर में हस्व धर्म को आरोपित कर देते हैं। इस प्रकार आरोप करते हुए कोई यह कहता है कि मैं 'अजिन' में 'हस्व इकार' तथा 'अजीन' में 'दीर्घ ईकार' का प्रयोग करते हुए अलग-अलग अर्थबोध करता हूँ। यहाँ इसका यह आरोप असत्य तो है, पर दोषावह नहीं। क्योंकि इकार को ह्रस्व के रूप में समझने पर भी अर्थबोध की वह अर्थक्रिया प्राप्त हो जाती है, जो आरोप न करने पर होती। पर अजिन को ही 'अजीन' समझना असत्य और दोषावह दोनों है। क्योंकि इसे दीर्घ समझने से सर्वथा अलग अर्थबोध होता है। इस प्रकार अजिन के अर्थानुरूप क्रिया नहीं हो पाती। "न च ब्रूमः सर्वस्मादसत्यात् सत्यस्योपजनः यतः कुतश्चिदसत्यात् सत्यं कुतश्चिदसत्यम् । यथा दीर्घत्वादेर्वर्णेषु समारोपितत्वाविशेषेऽप्यजीनमित्यतो ज्यानिविरहमवगच्छन्ति सत्यम् अजिनमित्यतस्तु समारोपित दीर्घभावाज्ज्यानि- विरहमवगच्छन्तो भवन्ति भ्रान्ताः !! न चात्र दीर्घसमारोप प्रति कश्चिदस्ति भेदः।"-( ब्रह्मसूत्र २.१.१४ के शांकरभाष्य पर भामती ) 'अजिन' का अर्थ 'चमड़ा' है तथा 'अजीन' का अर्थ 'वृद्ध न होना' यह है। ४. उदाहरण के लिये विज्ञान में प्रकाश तरंगों से रंगों का तथा ध्वनि तरंगों से शब्द का बोध होता है। मनुष्य को पूरे जीवन इसी प्रकार का अनुभव होता है, कभी वैपरीत्य नहीं होता। इस अनुभव को सत्य या असत्य समझने में अलग-अलग मान्यताएँ हैं। जैसे- (i) भारतीय दर्शन का कहना है कि तरंगें कभी भी रंग तथा ध्वनि के समतुल्य नहीं मालूम पड़ती। अतः इन्हें रंग या ध्वनि समझ लेना असत्य है। विश्व में इन तरंगों से सर्वथा भिन्न इस अनुभूति के अनुरूप विषय शब्द गुण को बाह्य रूप से उपस्थित समझना चाहिए। (ii) विज्ञान का कहना है कि क्योंकि तरंगों से अनिवार्यतः शब्द अनुभव होता है, अतः हमें इस संवेदना को सत्य मानना चाहिए। साथ ही इन तरंगों के तद्नुकूल अर्थक्रियाकारी होने के कारण व्यवहार में इन्हें ही शब्द मानना दोषपूर्ण नहीं हो सकता। जैसे नौवें परिच्छेद में प्रस्तुत वेदान्त के उदाहरण में मणिप्रभा को मणि मानना दोषावह नहीं माना गया। पर हमें अपनी इच्छा के द्वारा शब्दानुभूति के समतुल्य किसी अतिरिक्त गुणरूपी शब्द को सत् कहते हुए बाहरी दुनियाँ में बिठाने का अधिकार नहीं है। भौतिकी के नियम तथा मस्तिष्क की भौतिक, रासायनिक प्रणाली हमारी इच्छा से नियन्त्रित नहीं होती। इन नियमों को देखकर तो ऐसा लगता है कि बाहरी दुनियाँ के अनुरूप संवेदना का न होना ही कुछ अधिक स्वाभाविक है। क्योंकि भौतिक संकेतों के बार-बार बदलने की स्थिति में कुछ विसदृशता सम्भावित है। ध्वनि के सन्दर्भ में घण्टा का प्रकम्पन वायु-तरंगों में, ये तरंगें कानों की अस्थि-तरंगों में, ये कर्णावर्त की जल तरंगों में तथा पुनः ये विद्युत् तरंगों के रूप में मस्तिष्क तक जाकर अपने ढंग की व्याख्या प्राप्त करती है।' इस पूरी प्रक्रिया को जान लेने के पश्चात् हम इन अनुभूतियों के बाहरी दुनियाँ से सर्वथा अनुरूप होने की आशा नहीं कर सकते। पर इन कुछ विसदृश अनुभूतियों से भी सभी लोक व्यवहार सही प्रकार से चलने के कारण इन्हें ही सत्य मानने में कोई बाधा नहीं है। भारतीय दर्शन शास्त्र की ध्वनि सम्बन्धी समस्याएँ इन्हीं विकल्पों के चारों ओर घूमती रहती हैं। संस्कृत व्याकरण शास्त्र केवल द्वितीय विकल्प के अन्तर्गत शब्द के सन्दर्भ में अपने ढंग से समाधान देने का उपक्रम करता है। दर्शन तथा विज्ञान के सम्पूर्ण आलोडन के द्वारा इन सभी विकल्पों का व्यापक परिप्रेक्ष्य में सही समाधान सम्भव हो पाता है। संक्षेपतः, मानव की वे सभी संवेदनाएँ चाहे वे बाहरी दुनियाँ के पदार्थों के सदृश हों, या विसदृश हों, यदि वे नियमतः तथा अनिवार्यतः अर्थसंवादी क्रिया करने में सक्षम हों तो वे सत् हैं। व्याकरण शास्त्र बाहरी अक्षरों से भिन्न एक शब्द को स्फोट के रूप में इसकी मान्यता प्रदान करता है तथा आधुनिक विज्ञान रेखा शकल से भिन्न चित्र को सत् बताते हुए तथा सुदूरस्थ रंग, आकृति तथा शब्द को भेजने के लिए केवल प्रकाश तरंगों तथा ध्वनि तरंगों के भेजने की व्यवस्था करते हुए इसी मान्यता से परिचालित होते हैं।



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