डॉ. दिलीप कुमार नाथाणी ''विद्यावाचस्पति''
Mystic Power - हमारे धर्मशास्त्रों में प्रक्षिप्त होने के सन्दर्भ में एक आन्दोलन सा सामाजिक मंच (सोशल मीडिया) पर दिखाई दे रहा है। यह हमारे धर्मशास्त्रों के लिये अत्यन्त ही घातक है। वस्तुत: इस सन्दर्भ में भी हमारा वर्तमान दृष्टिगोचर पाश्चात्य दृष्टिगोचर से अधिक कुछ नहीं है। प्रक्षिप्त है अथवा नहीं है, यदि है तो उसकी मात्रा अथवा परिमाण कितना है; यह सब अत्यन्त ही विचारणीय तथ्य हैं।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवि अथवा धर्मशास्त्रों का शोधन करके उन्हें विशुद्धावस्था में लाने वाले पाखण्डी जिन मुगलों एवं इसाईयों पर षड्यन्त्र पूर्वक प्रक्षेपण का आक्षेप लगा रहे हैं तो मेरा प्रश्न है कि जब वे इतने ही सक्षम थे कि हमारे शास्त्रों को भ्रष्ट करने के लिये उनमें मिलावट की तो वे स्वयं के लिये पृथक् तथा उच्च कोटि का साहित्य अथवा शास्त्र ही नहीं लिखवा लेते? इसका कोई उत्तर पाखण्डियों के पास नहीं है।
इन पर विचार किये बिना केवल प्रक्षिप्त है प्रक्षिप्त है, प्रक्षिप्त है, प्रक्षिप्त है ऐसा कहते हुये किसी भी तथ्य को विचार विश्लेषण से परे करना वस्तुत: मानसिक विक्षप्तता से भिन्न कुछ नहीं है।
पाश्चात्य जगत् कहें अथवा बौद्धिक आन्तकवादिता सभी ने भारतीय सनातन—वैदिक—हिन्दु—धर्मशास्त्र पर अधिकाधिक प्रश्नचिह्न् लगाये हैं। ऐसे में जब—जब विश्व के एक मात्र मानवीय सभ्यता के शास्त्रों पर कोई शंका प्रस्तुत की गयी है तब—तब उत्तर नहीं मिल पाने की स्थिति में तत्काल कह दिया गया है कि ''अरे भाई यह विषय—वस्तु तो प्रक्षिप्त है।''सनातनधर्मावलम्बियों द्वारा दिया गया यह उत्तर वस्तुत: सनातनशास्त्रों के प्रति अनभिज्ञता का ही परिणाम है। वस्तुत: वेद—स्मृति—पुराण में इन शास्त्रों को पृथक् करके उनमें से स्वेच्छारिता करते हुये स्वयं हिन्दू द्रोहियों ने शास्त्रों को अप्रमाणित कहकर शास्त्राध्ययन परम्परा को विच्छिन्न कर दिया।
इस प्रकार हमारे सनातन धर्मशास्त्र को प्रश्नचिह्न के घेरे में लाने का सर्वाधिक कार्य विक्रमार्क समयातित 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध (18 वीं शताब्दी ख्रिस्ताब्द के प्रारम्भ) से प्रारम्भ हुआ। जब तथाकथित वेद—स्मृति—पुराण को शब्द प्रमाण के रूप में न मानने वाले तथाकथित सुधारवादियों के द्वारा मिशनरियों से पोषित सोच को हमारे शास्त्रों पर थोपना प्रारम्भ किया गया।
अस्तु इस शृंखला में ब्रह्मसमाज, थियोसोफिकलसोसायटी, आदि जैसी कई संस्थाएँ जो नाम से अत्यन्त ही आध्यात्मिक प्रतीत होती थीं उन्होंने वेद—स्मृति—पुराण में से चुनाव करके अपने मनोनुकूल विषय—वस्तु को ही सनातन धर्मशास्त्र के रूप में स्वीकार किया। इनमें भी वेद के प्रथम भाष्यकार भगवान् के ज्ञानावतार श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास के जय साहित्य (पुराण—साहित्य, महाभारत) को सर्वथा अस्वीकार कर दिया। विकृतिकरण यहाँ पर थमा नहीं वरन् जिस विषय—वस्तु को स्वीकार किया गया उसका अर्थ, अनुवाद, भावार्थ भी अपने मनोनुकूल किया गया। सन्दर्भ रखा तो संगति हटा दी संगति रखी तो सन्दर्भ को समाप्त कर दिया।
आज से 100—150 वर्ष पूर्व से वर्तमान पर्यन्त जिन जिन संस्थाओं, संगठनों, परिषदों की स्थापना हुई वे सभी आज भी वर्तमान हैं कहीं कहीं उन्होंने कलेवर भी बदल दिया है। वर्तमान में कई संस्थाएँ ऐसी हैं कि वे ''प्रक्षिप्त'' भाव से भी आगे निकल कर अपने पिछलगुओं को यह ज्ञान दे रही है कि धर्मशास्त्र में तो समय समय पर बदलाव होता गया है। वस्तुत: 1935 के बाद एक वेदधर्म विरोधी संगठन की स्थापना एक क्रिप्टो हिन्दू जेसुइट ने की थी। उसने अपने चेलियों चपाटों को जो उपदेश दिये उनमें वर्तमान में परिवर्तन करके पुन: उस विचारधारा के पिछलगुओं का सुनाया जा रहा है। ऐसे में कोई प्रश्न करने लगे कि संस्थापक ने तो यह प्रवचन दिया अब उसमें बदलाव क्यों तो उन्हें समझाया गया कि धर्मशास्त्र समय समय पर बदले जाते हैं।
अब उस संस्था के पिछलगु यही मानते हैं कि विश्व के सभी धर्मशास्त्र समय समय पर बदले जाते हैं। यह विचारधारा ''प्रक्षिप्त'' की नींव पर ही रखी गयी है। यह प्रक्षिप्त के होने न होने के प्रमाण के अभाव में ही धर्मशास्त्र के प्रति दुराव रखते हैं।
इन विकृत वेदधर्म विरोधी संस्थाओं में उन्हें जो सिखाया जाता है उसका पार्श्व प्रभाव (साइड इफेक्ट) यही है कि वे हिन्दू होते हुये भी हिन्दू धर्म की परम्पराओं के विरोधी हैं, धर्मशास्त्र में ''प्रक्षिप्त'' होने की मिथ्या अवधारणा के साथ सनातन शास्त्रों के विरोधी होते हैं, मन्दिरों में पूजनादि के विरोधी, जनेऊ, शिखा धारण करना, विवाहादि के परम्परागत एवं शरीर विज्ञानोपयोगी नियमों की अवहेलना करते हैं।
श्राद्ध तर्पणादि के सन्दर्भ में तथाकथित निराकार वादियों के कुतर्कों को ग्रहण करते हुये सनातन—हिन्दू धर्म के विरोधी होते जाते हैं।
इसका परिणाम यही होता है कि हमारी पीढ़ियाँ अपने ही धर्मशास्त्र के विरोधी होने लगते हैं। यह सम्पूर्ण विकृति इसी ''प्रक्षिप्त'' नामक शब्द का ही परिणाम है। अत: जहाँ ''प्रक्षिप्त'' शब्द का प्रयोग किया जाता है वहाँ अत्यन्त ही अन्वेषण की आवश्यकता है।
वैसे धर्मशास्त्र में वेद—स्मृति—पुराण के सन्दर्भ में जहाँ—जहाँ प्रक्षिप्त कहा गया है। अर्थात् इन धर्मशास्त्रों में जिस विषय—वस्तु के सन्दर्भ में प्रक्षिप्त अस्वीकार किया गया है। उसका कारण उनमें से 70 प्रतिशत अंश तो सहज ही प्रक्षिप्त के आधार के अनुकूल ही नहीं है। शेष के लिये भी तर्क के आधार पर विवेचन की आवश्यकता है। हम केवल वर्तमान में जो दिखाई देता है उसी के अनुरूप आज से सहस्रों वर्षों पूर्व के सामाजिक, आध्यात्मिक जीवन की व्याख्या करते हुये उन सत्यों को नकार देते हैं जो कि वर्तमान में असम्भव है।
इसका एक उदाहरण देखा जाय तो केवल 500 वर्ष पूर्व महाराणा प्रताप का भाला 80 किलो का था जिसे धारण करके वे दिवस पर्यन्त युद्ध करते हैं। इसके विपरीत आज के जो बलशाली हैं वे केवल दो या तीन बार इतने भार को उठाकर रख भर देते हैं तो जब केवल 500 वर्ष पूर्व शारीरिक बल में इतना भेद है तो आध्यात्मिकादि विभिन्न तथ्यों के सन्दर्भ में भी ऐसी कई बाते हैं तो इसे प्रक्षिप्त के आधार पर विवेचित नहीं किया जा सकता है।
महाराणा प्रताप के भाले का उदाहरण देखें अथवा छत्रपति शिवाजी महाराजा की खड्ग (तलवार) का विषय देखें ये सभी तथ्य आज से कुछ शताब्दियाँ पूर्व ही हुईं, किन्तु वर्तमान के सापेक्ष में हमें ये असम्भव प्रतीत होती हैंं तो आज से न्यूनतम 2500—3000 वर्ष पूर्व के शास्त्रों के सन्दर्भ में कहना कि यह विषयवस्तु तो प्रक्षिप्त है, आश्चर्योत्पादक है।
वर्तमान में कुछ लोग जो शारीरिक सौष्ठवादि में प्रवृत्त हैं वे भी कहने लगे हैं कि महाराणा प्रताप का वह 80 किलो का भाला दर्शनीय मात्र है उसका प्रयोग नहीं किया जाता था। अर्थात् शारीरिक सौष्ठव के समूह में महाराणा का 80 किलो का भाला प्रक्षिप्त की श्रेणी में रख दिया गया। कितनी दु:खद बात है कि महाराणा के बल को केवल शास्त्रीय प्रक्षेपण की बात के आधार पर नकारा जा रहा है।
वस्तुत: जिस जिस से 80 किलो का भार नहीं उठाया गया उसने कह दिया कि 'प्रक्षिप्त' है शास्त्र की दृष्टि से इसका तात्पर्य है कि पुराणों आदि के सन्दर्भ में अथवा महाभारत के साठ लाख श्लोकों के सन्दर्भ में जिसका सामर्थ्य, पितृलोक, गन्धर्वलोक तथा स्वर्गलोक को समझने का नहीं है उसने मनुष्यलोक के एकलाख श्लोकों को भी नकार दिया और कह दिया कि प्रक्षिप्त है।
रामायण में भी ऐसे ही अनावश्यक तथ्यों के आधार पर उत्तररामायण को प्रक्षिप्त कह दिया। प्रक्षिप्त है प्रक्षिप्त है प्रक्षिप्त है सभी चिल्लाते हैं पर किस शास्त्र में कब तथा कौनसा अंश जोड़ा गया उसका उत्तर आज तक किसी के पास नहीं है।
यही नहीं माता सीता के चरित्र पर लांछन लगाने वाले उस समय ही नहीं थे वरन् पाखण्डियों में स्वयं को वैदिक कहने वाले कई ऐसे कुण्ठित ब्रह्मचारी भी दिखे जो माता सीता के चरित्र पर आज भी शंका करते हैं।
वस्तुत: अपने ही धर्मशास्त्र के प्रति 'प्रक्षिप्त' भाव रखने वाले समाज में स्वयं ही ऐसे कुकरमुत्ते उग आते हैं जो हमारे ही आदर्शों का अपमान करने के पाप को भी सहजता से कर देते हैं। इन प्रक्षिप्तवादियों की कुण्ठा का ही पार्श्व प्रभाव (साईड इफेक्ट) ही रहा कि पहले मनुस्मृति जलाई गयी फिर उसका दहन दिवस मनाया गया और अब सामान्य जन तक घर घर में राम के आदर्श की स्थापना करने वाली रामचरितमानस को जलाया गया। क्योंकि वेद के नाम पर पाखण्ड फैलाने वालों ने रामचरितमानस को पाखण्ड कहा। अत: जिसने जलाई वह अपराधी नहीं है वरन् वह अपराधी है जो रामचरितमानस को 'पाखण्ड' कहते हैं वे ही वेदवादी, सनातनद्रोही, राम के नाम पर निराकारवादी, अथवा हमारे श्राद्धादि को मूर्त्ति पूजा को पाखण्ड कहने वाले सभी अपराधी हैं।
वस्तुत: अपने ही धर्मशास्त्र के प्रति 'प्रक्षिप्त' भाव रखने वाले समाज में स्वयं ही ऐसे कुकरमुत्ते उग आते हैं जो हमारे ही आदर्शों का अपमान करने के पाप को भी सहजता से कर देते हैं। इन प्रक्षिप्तवादियों की कुण्ठा का पार्श्व प्रभाव (साईड इफेक्ट) ही रहा कि पहले मनुस्मृति जलाई गयी फिर उसका दहन दिवस मनाया गया और अब सामान्य जन तक घर घर में राम के आदर्श की स्थापना करने वाली रामचरितमानस को जलाया गया। क्योंकि वेद के नाम पर पाखण्ड फैलाने वालों ने रामचरितमानस को पाखण्ड कहा। अत: जिसने जलाई वह अपराधी नहीं है वरन् वह अपराधी है जो रामचरितमानस को 'पाखण्ड' कहते हैं वे ही वेदवादी, सनातनद्रोही, राम के नाम पर निराकारवादी, अथवा हमारे श्राद्धादि को, मूर्त्ति पूजा को पाखण्ड कहने वाले सभी अपराधी हैं। अस्तु जिसने भी वेद के नाम पर श्रीरामचरितमानस को पाखण्ड कहा है वह ही व्यक्ति अथवा संगठन या परिषद् ही मनुस्मृति के जलाने का पुन: श्रीरामचरितमानस को जलाने का अपराधी है, सम्भव है इसी क्रम में अगला दहन, श्रीमद्भगवाद्गीता या पुराणों का हो। अब आप स्वयं ही समझ जायें कि वेद के नाम पर शेष सभी ग्रन्थों को पाखण्ड अथवा प्रक्षिप्त कहना कितना बड़ा षड्यन्त्र था।
पूर्वोक्त विश्लेषण के आधार पर हमने देखा कि ''प्रक्षिप्तवाद'' हमारे धर्म, हमारे धर्मशास्त्र, हमारे संस्कार, हमारी संस्कृति, हमारी परम्पराओं आदि के लिये कितना घातक है। यह अत्यन्त ही विचारणीय है। विशेष कर वर्तमान में जब हमारे भीतर सत्य इतिहास, लिखने की विचारणा जाग्रत हो रही है। ऐसे में यदि हम पूर्व के प्रक्षिप्तवाद जो कि वामपंथियों की देन है उसी के आधार पर ही चलेंगे तो किंचित् भी सत्यान्वेषण नहीं हो पायेगा। वरन् वही असत्य का पुनरलेखन अधिक असत्यता के साथ होगा।
यहाँ यह शंका हो सकती है कि वामपंथियों की देन यह ''प्रक्षिप्तवाद'' कैसे हो सकता है? तो इसका समाधान है कि सनातनद्रोही विचारधारा न्यूनतम 200—300 वर्ष आगे की सोच के साथ अपने वर्तमान की स्थापना करते हैं। अत: जो मिथ्या लेखन किया गया यदि उसकी पोल नहीं खुलती तो वह चलता रहता अब पोल खुल गयी तो उसमें यह ''प्रक्षिप्तवाद'' पुन: सत्यालेखन न होकर मिथ्यालेखन ही होगा।
अब यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि तो प्रक्षिप्त कुछ है नहीं क्या?
समाधान:— प्रक्षिप्त है अवश्य है
प्र.— तो फिर समस्या क्या है?
उत्तर — समस्या यह है कि जो सत्य है वह प्रक्षिप्त नहीं है वरन् जो असत्य है वह प्रक्षिप्त है।
प्र. अर्थात्
उत्तर— जिसे प्रक्षिप्त कहकर नकारा जा रहा है वह विषय—वस्तु पूर्वाग्रह के आधार पर शास्त्रों के प्रति किया जाने वाला अतिवाद मात्र है।
प्र.— तो फिर प्रक्षिप्त क्या है?
उत्तर— उसी का समाधान इस लेख में किया जाना है।
अस्तु प्रक्षिप्त के सन्दर्भ में यह जानना आवश्यक है कि यह रोग कहाँ से उत्पन्न हुआ?
द्वितीय प्रक्षिप्त शब्द का वास्तविक तात्पर्य या अर्थ क्या है?
तृतीय 'प्रक्षिप्त' शब्द का अर्थ क्या ले रखा है?
चतुर्थ वर्तमान में 'प्रक्षिप्त' शब्द का जो अर्थ लिया गया है वह क्यों लिया गया है?
प्रथम 'प्रक्षिप्त शब्द का यह रोग कहाँ से प्रारम्भ हुआ?
इसका समाधान संक्षेप में तो इस आलेख के प्रथम भाग में ही दे दिया तथापि संक्षेप में इसकी उत्पत्ति अथवा जिसे कहा जाय कि इसके इतिहास पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। इस रोग की उत्पत्ति कहाँ से हुई तथा क्यों की गयी? तो इसका स्पष्ट उत्तर है कि यह पाश्चात्य जगत् की देन है तथा यह भारत के लिये अथवा जिसे कहा जाय कि सनातन धर्मशास्त्र के विकृतिकरण के लिये ही उत्पन्न किया गया है। जिसे स्पष्ट शब्दों में कहा जाय तो यह एक षड्यन्त्र है। उससे अधिक कुछ नहीं।
परन्तु दुर्भाग्य यह है कि अत्युच्च बौद्धिक क्षमता सम्पन्न भी इस 'प्रक्षिप्त' रोग से संक्रमित होकर अपने ही धर्मशास्त्र के प्रति— यह तो प्रतिलिपि है, उसकी नकल यहाँ है आदि आदि चर्चाओं के द्वारा रामायण, महाभारत, पुराण आदि के परिप्रेक्ष्य में अनर्गल प्रलाप करने लगता है।
हम भारतीयों से पृथक् किसी भी तथाकथित धर्मावलम्बी ने कभी अपने शास्त्र विशेष कर वह शास्त्र जिसे वह अपना धर्मग्रन्थ मानता है उसके विरुद्ध, प्रक्षिप्त है, बाद में षड्यन्त्रपूर्वक जोड़ा गया है, आदि आदि अनर्गल प्रलापों से अपमानित अथवा विकृत करने की कुचेष्टा नहीं की पर भारतीय तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ज्योतिष, विज्ञान, अब पता नहीं कौनसा विज्ञान अथवा कार्बनडेटिंग भाषाविज्ञान आदि कई आधारों के आश्रित होकर एक ही कार्य किया कि लाखों वर्षों के हमारे इतिहास को मात्र 7000—12000 वर्षों के मध्य समेट कर रख दिया है। वस्तुत: यही उद्देश्य पाश्चात्य जगत् का था जिसे उन्होंने सफल किया है।
पाश्चात्य जगत् हमारे इतिहास को येन केन प्रकारेण ईसा से दो अथवा तीन सहस्राब्दि पूर्व तक स्थापित करना चाहता था। हमारे बुद्धिजीवियों ने इसे नकार कर इसे सात से द्वादश सहस्राब्दि पूर्व तक स्थापित करना पारम्भ कर दिया। यही पाश्चात्यमिशनरी चाहता था।
इस प्रकार उन्होंने सर्वप्रथम हमारे युग विभाजन को असत्य ही प्रमाणित कर दिया। जब हम जानते हैं कि मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम का समय त्रेता युग का है तो ऐसे में उनका काल सात या आठ या बारह सहस्राब्दि पूर्व का स्थापित करना अपने ही काल शास्त्र को, पुराणों को रामायण को मिथ्या सिद्ध करना हुआ। यह ही षड्यन्त्र है जो हमें समझना होगा।
वस्तुत: पाश्चात्य जगत् सदा से ही अन्वेषण के एक षड्यन्त्र को चलाता आया है। उनमें भी एक वे हैं जो दानवीय धर्मशास्त्र का अनुसरण करते हैं, तथा दूसरे घोर दानव हैं अथवा जिन्हें कहा जाय कि जो इस दानवीय धर्म के संस्थापक हैं। दूसरे जो घोर दानव हैं वे उन शास्त्रों के बारे में शंकाएँ खड़ी करने का कार्य करते हैं। उनके दानवीय धर्म के लिये रचे गये हैं। इसका उद्देश्य शंकाएँ खड़ी करना नहीं है वरन् अपने सर्वथा झूठे शास्त्रों का कालानुसार विवेचन करते हुये देर सवेर उनके वास्तव में होने का सत्यापन करना है।
इनकी संस्थाएँ हैं जैसे इल्युमिनाटी, आक्ल्ट वर्ल्ड, टेम्पल आफ वैम्पायर आदि। इनकी पूरी एक संस्था है जो यह ही कार्य करती है।
वस्तुत: पाश्चात्य जगत् कहें अथवा भारत से बाहर का वह प्रदेश जहाँ आज से दो सहस्राब्दि पूर्व ही सनातन धर्म का क्षय हुआ। वहाँ ऐसी ही संस्थाएँ हैं जो दानवीय व्यवस्था को लागू करने में दत्तचित्त हैं। उन्हीं सस्थाओं द्वारा बनाये गये अपने धर्म की स्थापना तथा उनके काल्पनिक धार्मिक चरित्रों की स्थापना के लिये वे अपने ही शास्त्रों पर कालादि के सापेक्ष प्रश्नचिह्न खड़े करते हैं। ताकि शास्त्र में दिये गये चरित्रों के होने अथवा न होने पर चर्चा न होकर उनके होने के काल सम्बन्धी चर्चा होवे परिणामत: पूर्ण रूप से काल्पनिक चरित्र भी इतिहास का पात्र बन जाय।
वही कार्य उन्होंने तथाकथित बुद्धिजीवियों के द्वारा भारत को परोसा तथा उसका प्रतिफल हमारे देश की मानवीय सभ्यता एवं एक मात्र मानवीय सनातन धर्म के अधकचरे बौद्धिक अतिवादियों पर पड़ता है। यह सब ''प्रक्षिप्त'' का ही प्रतिफल है।
इस प्रक्षिप्तवादियों के इतिहास की दृष्टि में राम त्रेतायुगीन नहीं हैं। वरन् 7000—12000 वर्ष पूर्व हुये राजा हैं। आजकल कुछ चैनलों पर रामायण दिखाई जा रही है। ऐसा लगता है जैसे कोई ग्रीस अथवा ईजिप्ट देश के ग्लेडियटरों की रामायण हो। जिसमें राम के अलावा किसी को उपनीत (जनेऊ) धारण किया हुआ नहीं दिखाया है। उसमें भी प्रत्येक दृश्य में वे जनेऊ युक्त नहीं होते। यही नहीं राजोचित्त मुकुट आदि अलंकरणों से रहित राम भी हैं तथा सीता आदि राजुकुमारियाँ भी हैं। उनमें दिखाये गये वसिष्टादि ऋषि भी किसी रोमन ड्रामा में वहाँ के दिखाये जाने वाले कोई सेजे आध्यात्मिक व्यक्ति जैसे दिखाई देते हैं। इतनी हास्यास्पद है कि देखने मात्र से मन में से धर्म का भाव समाप्त हो जाय। यही उनका षड्यन्त्र है। जनक का रूप (गेटअप) देखकर लगता है कि कार्लमार्क्स ने जो यूरोप में चर्च, ड्यूकों, लोर्डोंं के द्वारा जनता पर होने वाले अत्याचारों को देखकर जो धर्म को अफीम की गोली बताया उसमें से कोई ऐसा जमींदार हो। देखकर ऐसा लगा मनुष्य हँस हँसकर लोटपोट हो जाय। इस प्रकार बिगाड़ा करना ही अन्तिम लक्ष्य है।
यह परिणाम यहाँ समाप्त नहीं होता। जिस जिसने इतिहास में स्नातकोत्तर (एम.ए. या पीएच.डी) की है वे भी चाहे वे कर्मकाण्डी ब्राह्मण हो या भयंकर ज्योतिषाचार्य वे भी धर्मेत्तर असत्य इतिहास दृष्टिकोण से तर्क देते हुये भगवान् राम के 11000 वर्षीय राज्यकाल को नकार देते हैं। उनमें भी इस मिथ्या शिक्षा का ऐसा बीजारोपण होता है कि वे अपनी सनातन संस्कृति से भिन्न ही विश्लेषण करने लगते हैं।
अस्तु प्रक्षिप्त का परिणाम हुआ कि एक ही व्यक्ति अपने आराध्यों के प्रति दोहरा दृष्टिकोण रखता है। धार्मिक दृष्टिकोण एवं इतिहास परक दृष्टिकोण जिसे कि वह सत्य का दृष्टिकोण मानता है।
यहाँ अहितकारी तथ्य यह है कि इतिहास नामक विद्या जो केवल एक विषय बन गया। इतिहास एक विद्या है वह धर्म से अभिन्न है। अस्तु इतिहास में ही धर्म के सिद्धान्त प्रतिपादित रूप से दिखाई देते हैं। जैसे एक गणितीय सांख्यिकी (मेथेमेटिकल स्टैटिक्स) होती है जिसमें सूत्रों की सिद्धि की जाती है, दूसरी प्रयोज्य सांख्यिकी (एप्लाइड स्टेटिक्स) जिसमें उन गणितीय सांख्यिकि में सिद्ध सूत्रों को सामान्य व्यवहार की दृष्टि प्रयोग में लिया जाता है।
अत: जिन सिद्धान्तों का विधान हमें वेद, स्मृतियों, वेदांगों में किया गया है उनका प्रयोज्य प्रारूप हमें रामायण एवं जय साहित्य (महाभारत, पुराणों) में दिखाई देता है। अत: यह धर्म के प्रयोज्य रूप होने से इतिहास वस्तुत: धर्म का प्रयोज्य रूप ही है।
रामायण में तथा जय साहित्य (महाभारत पुराणों) में राजवंशावलियाँ दी गयी हैं। उनमें एक नहीं कई—कई राजाओं की पीढ़ियों का वर्णन मिलता है। वह जो वर्णन मिलता है वह भी केवल उनका जिन्होंने आदर्श के उच्चतम मानकों को पूरा किया हो। उनमें भी राजा के अन्यान्य भाइयों का वर्णन नहीं दिया गया है। अत: यह कहा जा सकता है कि प्राचीन पुराणों में सभी का पूर्ण विवरण मिलता होगा। इसलिये पुराणों के सन्दर्भ में कहा गया कि शतकोटि प्रविस्तरम् अर्थात् पुराण सौ करोड़ श्लोकों में विस्तृत हैं। तथा महाभारत की रचना 60 लाख श्लोकों में हुई।
इसका दानवों द्वारा लक्षित परिणाम जो वर्तमान में हमारे धर्मानुयायियों में दिखाई दे रहा है कि धर्म के राम त्रेतायुगीन तथा लाखो वर्ष पूर्व में हुये, उनका राज्यशासनकाल 11000 वर्षों का रहा, तथा माता सीता के त्यागादि प्रसंग वाले उत्तरकाण्ड 'प्रक्षिप्त' होने के कारण अमान्य है। यही सभी प्रभाव होने से सनातनी शनै:—शनै: अपने ही धर्मशास्त्र के प्रति अनासक्त होने लगा वह पदार्थवादी या भौतिकवादी (मेटरलिस्टिक) होने लगा। इस पदार्थवाद का परिणाम यह हुआ कि सनातनी अपने धर्मशास्त्रों को इतिहास के परिप्रेक्ष्य में कुछ नहीं मानता।
अस्तु यह जो दोहरे दृष्टिकोण वाले हैं उनकी धार्मिक दृष्टि से राम त्रेतायुगीन हैं 11000 वर्ष के शासनकाल के अन्त में सदेह अपनी प्रजा के साथ सरयू में प्रवेश कर गये। यह केवल धर्म का दृष्टिकोण है। अत: आस्था का विषय है। किन्तु सत्य तो यह है कि राम हुये थे परन्तु त्रेतायुग में नहीं आज से कुछ सहस्राब्दि पूर्व तथा कुछ वर्षों का शासनकाल ही रहा था। तथा वे महामानव थे भगवान् नहीं थे। यह उनके महामानव होने का षड्यन्त्र किसने किया कहने की आवश्यकता नहीं है वेदपाखण्डी, आत्माकुमारी आदि वाले थे। यह सोच प्रक्षिप्त के रोग से ही उत्पन्न हुई है।
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