श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)
Mystic Power- शिव धनुष का वास्तविक अर्थ, इसका संवत्सर से सम्बन्ध तथा विष्णु द्वारा भंग-ये सभी अज्ञात रहस्य हैं।
शिव का अपना धनुष पिनाक या अजगव था। त्रिपुर वध प्रसंग में कहा है कि महादेव यज्ञ में निर्मित संवत्सर उनका धनुष था और सावित्री उसकी प्रत्यञ्चा बनी। उसके बाण की गांठ अग्नि, भल्ल (फाल) चन्द्रमा तथा उसकी नोक विष्णु थे। पृथ्वी सहित तीनों लोक, दिशा नक्षत्र, वेद, ऋषि आदि उनके रथ थे (महाभारत, कर्ण पर्व, ३४/१६-४९)।
२ बार शिव धनु का भङ्ग विष्णु द्वारा हुआ है-राम तथा कृष्ण अवतार द्वारा। भगवान् राम द्वारा जनक के धनुष यज्ञ में तथा भगवान् कृष्ण द्वारा कंस के धनुष यज्ञ में। जनक राजर्षि थे, किन्तु कंस असुर अवतार था। जनक के पूर्वज देवरात (निमि की ६ठी पीढ़ी) को शिव का धनुष मिला था (रामायण, बालकाण्ड, ६६/८-१०)।
कंस के पूर्वज राजा यदु को परशुराम जी ने शिव धनुष दिया था (गर्ग संहिता, मथुरा खण्ड, ६/२६-३०)। इसकी पूजा चतुर्दशी के दिन होती थी। कंस की २ पत्नियां जरासन्ध की पुत्री थीं। वे कंस वध के बाद जरासन्ध के मूल स्थान चली आयीं। पश्चिम ओड़िशा के बरगढ़ जिले में जीरा नदी है, जो जरा (सन्ध) का अपभ्रंश लगती है। वहां आज भी धनुष मास के बाद पौष शुक्ल ६ से पूर्णिमा तक धनुष यात्रा होती है जब कंस का दरबार लगता है। जनक का धनुष यज्ञ मार्गशीर्ष मास में हुआ था, तथा विवाह पञ्चमी शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को होती है। यह धनुष मास में होता है।
वेद के अनुसार प्रणव धनुष है जो शिव रूप है। उसका बाण विष्णु रूप है। उसके द्वारा लक्ष्य वेध से ब्रह्म साक्षात्कार होता है।
धनुर्गृहीत्वौपनिषदं महास्त्रं, शरं ह्युपासानिशितं सन्धयीत।
आयम्य यद् भावगतेन चेतसा, लक्ष्यं तदेवाक्षर सोम्य विद्धि॥
(मुण्डकोपनिषद्, २/२/३)
उपनिषद् में वर्णित प्रणव रूप महान् अस्त्र धनुष ले कर उपासना द्वारा तीक्ष्ण किया हुआ शर चढ़ाये। फिर भाव पूर्ण चित्त द्वारा उस बाण को खींच कर अक्षर पुरुष रूपी लक्ष्य को बेधे।
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥४॥
प्रणव (ॐ) ही धनुष है, आत्मा ही सर है और ब्रह्म ही उसका लक्ष्य है। प्रमाद रहित मनुष्य उसे बीन्ध सकता है। शर की तरह उसमें तन्मय होना चाहिए (ब्रह्म में लीन)।
प्रणवैः शस्त्राणां रूपं (वाज. यजु, १९/२५)
वक्ष्यन्तीवेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियं सखायं परिषस्वजाना।
योषेव शीङ्क्ते वितताधि धन्वं ज्या इयं समने पारयन्ती। (ऋक्, ६/७५/३)
इस मन्त्र का ज्या देवता है। यह वेद कहती है। यह धनुष में लग कर स्त्री की तरह प्रिय सखा के कान के निकट (परिषस्व = पड़ोस में) जाती है (गनीगन्ति- अंग्रेजी में गन जो बाण या गोली छोड़ता है)। यह समन को पार कराती है। समन = संयमित मन। स्थिर बुद्धि से युद्ध जीतते हैं। स्त्री अर्थ में समन = स्वयंवर में प्रिय के पास ज्या = माला ले कर जाती है। आत्मा रूपी स्त्री अपने प्रिय ब्रह्म या परमात्मा के पास जाती है।
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