स्त्री पुरुष महात्म्य

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  • 31 October 2024
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श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )- mysticpower -पुरुष को कुण्डली में सप्तम भाव स्त्री का है। स्त्री हर प्रकार से पुरुष की सेवा करती है। इसलिये, स्त्री =श्री स्त्री की कुण्डली में सप्तम भाव पुरुष का है। पुरुष भी स्त्री की सेवा करता है। इसलिये, पुरुष = श्री। अतः श्री = सेविका / सेवक। स्त्री का सेवक होता है, पुरुष पुरुष की सेविका होती है, स्त्री। जिस पुरुष के पास श्री स्त्री सेविका है, वह श्रीमान् है। जिस स्त्री के पास श्री= पुरुष = सेवक है, वह श्रीमती है। जो श्रीमान् है, यह सुखी है जो श्रीमती है, वह सुखी है जो सुखी नहीं है, वह श्रीमान/श्रीमती नहीं है। विवाहित / युगल रूप में होते हुए भी वह नाममात्र का श्रीमान् / श्रीमती है। कौन श्रीमान् है ? जिसके पास सेवा करने वाली सुख देने वाली हर प्रकार से तुष्ट करने वाली स्त्री है, वह श्रीमान है। कौन श्रीमती है ? जिसके पास सेवा करने वाला, सुख देने वाला हर प्रकार से तुष्टि देने वाला पति है, वह श्रीमती है। जिस पुरुष के पास स्त्री नहीं है, वह श्रीमान् नहीं है। जिस स्त्री के पास पुरुष नहीं है, वह श्रीमती नहीं है। यहाँ श्रीमान/श्रीमती का अर्थ है-सुखी जो सुखी नहीं है, वह पुरुष श्रीमान् नहीं है तथा वह स्त्री श्रीमती नहीं है भले ही ये विवाहित/ दाम्पत्य युक्त हों। क्या अविवाहित/ अकेले पुरुष-स्त्री श्रीमान्-श्रीमती नहीं है ? क्यों नहीं ? जो अपने आप में अपनी स्थिति से सन्तुष्ट है वह पुरुष निश्चय हो श्रीमान है। शंकराचार्य कहते हैं 'श्रीमांश्च को ? यस्य समस्त तुष्टः ।' ( प्रश्नोत्तरी) ऐसे ही स्त्री के विषय में समझना चाहिये। जो असन्तुष्ट नहीं है, पूर्ण सन्तुष्ट है अपने जीवन से, वह श्रीमान् वा श्रीमती है। श्रीमान/श्रीमती होने का अर्थ है, सुखी होना। कहा गया है- 'सन्तोष परमम् सुखम्।' श्री का अर्थ है- धन, सम्पत्ति जिसके पास धन सम्पत्ति है, यह श्रीमान/श्रीमती है। 'धनात् धर्मः ततः 1 । धन से धर्म होता है। धर्म से सुख मिलता है। धनवान् पुरुष श्रीमान् है। धनवती स्त्री श्रीमती है। सुखम् धन से पुरुष, स्त्री प्राप्त करता है। धन से ही पुरुष वस्त्राभूषणों से स्त्री की सेवा करता है। धन से ही स्त्री. पुरुष को पाती है। जो धनी नहीं है, वह चाहे स्त्री हो वा पुरुष, उसका विवाह नहीं होता, उसके घर नहीं होता, उसके नौकर-चाकर नहीं होते। अतः वह सुखी नहीं होता। ऐसे पुरुष-स्त्री श्रीहीन किंवा दरिद्र होते हैं। सबसे बड़ा धन है, आत्मा जो श्रीधरः श्रीकरः श्रीमान् (श्रीधरी श्रीकरी, श्रीमती) है। ऐसे जन को मेरा प्रणाम । श्री कहते हैं, उपस्थ (लिंग व योनि) को पुरुष अपने उपस्थ से स्त्री की सेवा करता है, स्त्री को सन्तुष्ट रखता है। इसी प्रकार, स्त्री अपने उपस्थ से पुरुष की सेवा करती है, पुरुष को संतुष्ट रखती है। इसलिये उपस्थ = श्री। जिसके पास उपस्थ नहीं है, वह श्रीहीन है, शोभाहीन है, अनाकर्षक है। पण्ड वा नपुंसक जातक श्रीविहीन होता है, तुच्छ होता है, असम्मान्य होता है। उपस्थ का होना और उसका सक्रिय वा जागृत रहना महत्वपूर्ण है। इसमें पुरुष और स्त्री दोनों की शोभा है। उपस्थ की शिथिलता/निष्क्रियता के साथ हो पुरुष स्त्री का सौन्दर्य जाता रहता है- दोनों श्रीहीनता को प्राप्त होते हैं। कृष्ण नहीं तो कुछ नहीं। यह उपस्थ कृष्ण है। यह सबको संकर्षित करता है। तस्मै संकर्षणाय नमः । "उपस्थ का अर्थ है- उपनिषद् । इस प्रकार सप्तम भाव उपनिषद् हुआ। यह कैसे ? उप + स्थ= उप + निषद् । स्था + क = स्थ। इसका अर्थ है- विद्यमान, वर्तमान, ठहरने वाला, खड़ा रहने वाला। नि + सद् निपद इसका अर्थ है- विश्राम करना, नीचे बैठना, लेटना, ठीक से स्थित होना।" "इस उपसर्ग का अर्थ निकटता / समीपता से है। उपस्थ का अर्थ हुआ- समीप ठहरना, निकट रहना, संटे रहना, लग्न होना, लगे रहना। उपनिषद् का भी यही अर्थ है-निकट बैठना, समीप स्थित होना ।" 【अतएव, उपस्थ = उपनिषद्। उपनिषद् नाम ब्रह्मविद्या का ब्रह्मविद्या गुह्यज्ञान है।】 निकट आने से गुह्य ज्ञान होता है। यहाँ निकटता का तात्पर्य हृदय की निकटता अर्थात् प्रेम से है। शिष्य को जब गुरु का सामीप्य प्राप्त होता है तो उसे ब्रह्मविद्या का बोध होता है। पुरुष व स्त्री जब एक दूसरे के हृदय में प्रवेश करते हैं तो उन्हें गुह्यज्ञान होता है। उपनिषद् जितना गूढ़ है, उतना ही गूढ़ उपस्थ है। जी उपनिषद को जानता है, वह उपस्थ को जानता है। जो उपस्थ को जानता है, वह उपनिषद् को जानता है। जो उपनिषद् का अधिकारी है, वह उपस्थ का अधिकारी है। जो उपस्थ का अधिकारी है, वह उपनिषद् का अधिकारी है। दोनों में आनन्द है। यह आनन्द दोनों में प्रच्छन्न रूप से विद्यमान है। उपनिषद् में उपस्थ की चर्चा है। वेद में उपस्थ का वर्णन है। उपस्थ का आनन्द ही उपनिषद् का आनन्द है। तस्मै आनन्दाय नमः । जब किसी की यज्ञस्थली में कोई दूसरा होम करे तो उस यज्ञस्थल के अधिपति श्रोत्रिय को क्या करना चाहिये ? उपनिषद् कहता है... "अथ यस्य जायायै जारः स्यात्तं चेविष्यादामपात्रेऽग्निमुप- समाधाय प्रतिलोमं शरबर्हिस्तीव तस्मिन्नेताः शरभ्रष्टः प्रतिलोमाः सर्विषाक्ता जुहुयान्मम समिद्धेऽहीषीः प्राणापानौ त आददेऽसाविति मम समिद्धहौषीः पुत्रपशूं स्त आददेऽसाविति मम समिद्धेऽहौषीरिष्टासुकृते त आददेऽसाविति मम समिद्धेऽहौषीराशायराकाशौ त आददेऽसाविति वा एष निरिन्द्रियो विसुकृतोऽस्माल्लोकात्यैति यमेवं विद्ब्राह्मणः शपति तस्मादेवंविच्छ्रोत्रियस्य दारेण नोपहासमिच्छेदुत हि एवं वित्परो भवति ।" (बृहदारण्यक उपनिषद् ६ । ४ । १२ ) अथ यस्य जायायै जारः स्यात् तम् चेत् द्विष्यात् । आमपात्रे अग्निम् उप-समाधाय प्रतिलोमम् शरबर्हिः तीर्त्वा तस्मिन् एताः शरभृष्टीः प्रतिलोमाः सर्पिषा अक्ताः जुहुयात् । 【और यदि जिसकी भार्या का कोई गुप्त प्रेमी/भोक्ता होवे तो वह उससे द्वेष करे। मिट्टी के कच्चे पात्र में अग्नि को स्थापित कर प्रदीप्त कर, शररूप नुकीले कुशा को फैला कर उस (अग्नि) में इन शरभृष्टियों (सरकण्डे/ कुशा की अधजली तीलियों) को उल्टी ओर से (फैलाकर) घी से तर कर के हवन करे ।】 १. मम समिद्धे अदोषी: प्राण-अपानी ते आददे असौ इति [मेरी प्रदीप्त अग्नि (भार्या की योनि में) जिसने हवन किया (वीर्यपात किया है, उस (अमुक व्यक्ति पुरुष) के प्राण और अपान को मैं खींचता हूँ । 'ते' पद के स्थान पर जार का नाम लेवे तथा 'असौ' पद के स्थान पर अपना नाम लेवे ॥] २. मम समिद्धे अहौषीः पुत्र पशून् ते आददे असौ इति 【मेरी प्रदीप्त यज्ञशाला की अग्नि में अर्थात् ऋतुस्नाता मेरी भार्या की योनि में तूने अपने वीर्य का हवन किया है, इसलिये मैं तेरे पुत्र एवं पशुओं को लेता (मारता हूँ। यह कह कर अग्नि में उन तिनकों की दूसरी आहुति दे।】 ३. मम समिद्धे अहोचीः इष्टा सुकृते ते आददे असौ इति । [उस तूने मेरी प्रदीप्त अग्नि में होम किया है-मेरी भार्या का भोग किया है, उसके दण्ड में मैं तेरे यज्ञ और पुण्यकर्म को लेता हूँ, नष्ट करता हूँ। यह कहकर उन कुशों की तीसरी आहुति दे।] ४. मम समिद्धे अहौषीः आशा पराकाशी ते आददे असौ इति । 【 उस तू ने मेरी प्रदीप्त अग्नि में हवन किया है-मेरी भार्या के साथ व्यभिचार किया है, उसके दण्ड में तेरी आशा और प्रतीक्षा (आकांक्षा) दोनों को लेता हूँ, ध्वस्त करता हूँ। यह कह कर कुशखण्डों से तीसरी आहुति डाले】 सः वै एषः = वही यह व्यभिचारी। निरिन्द्रियः =इन्द्रिय बल से रहित। विसुकृतः = पुण्यफल से वंचित । अस्मात् लोकात् = इस लोक से। प्रैति (प्र + एति) = चला जाता/मर जाता है। यम्= जिसको ।एवंविद् = इस प्रकार (की प्रक्रिया को) जानने वाला। ब्राह्मण = श्रोत्रिय ब्राह्मण। शपति =शाप देता है। [ वह ही यह व्यभिचारी जार, जिसको ऐसा जानने वाला ब्राह्मण शाप देता है, इन्द्रियहीन (निर्बल) और शुभकर्म रहित होकर इस लोक से चला जाता है-मर जाता है।] तस्मात् = इसलिये । एवंवित् श्रोत्रियस्य= इस रहस्य वा प्रक्रिया को जानने वाले वेदज्ञ ब्राह्मण की। दारेण = पत्नी से ।न = नहीं। उपहासम् = अश्लील हंसी विनोद। इच्छेत् = (करने की इच्छा करे। उत हि = क्योंकि। एवंवित्= ऐसा ज्ञानी ब्राह्मण ।परः अत्यधिक पराया (शत्रु)। भवति = हो जाता है। 【 इस कारण ऐसे ज्ञानी वेदपाठी की पत्नी से (कोई व्यक्ति) उपहास की इच्छा न करे, न सोचे। क्योंकि निश्चय ही ऐसा ज्ञानी ब्राह्मण पर श्रेष्ठ / उत्कृष्ट / सामर्थ्यशाली होता है। बलशाली से शत्रुता नहीं करना चाहिये। यह नीति है।】 पूर्व वर्णित बृहदारण्यक उपनिषद् के इस मन्त्र समुच्चय में एक प्रक्रिया बतायी गयी है। इसका ज्ञान एक श्रोत्रिय ब्राह्मण को होना चाहिये। जब कोई किसी गृहस्थ का सुख छीनता है-उसकी भार्या को बहला फुसला कर उसका भोग करता है-उसकी जाया को लोभ लालच देकर अपना भोग्य बनाता है-उसकी पत्नी को भयभीत करते हुए उसका शील लूटता है-उसकी दारा के साथ बलात्कार करता है-उसकी अर्धांगिनी का अपहरण कर उसके साथ व्यभिचार करता है-उसका मान भङ् करता है-उसकी योनि की पवित्रता को नष्ट करता है तो वह गृहस्थ इसे सहन नहीं करता । श्रोत्रिय ब्राह्मण के पास बाहुबल नहीं होता, धनबल नहीं होता, केवल बुद्धिबल होता है और वह इसी का प्रयोग अपने उस सुखहर्ता जार पर करता है। इस प्रयोग से लाठी भी नहीं टूटती, साँप भी मर जाता है। पत्नी का जार पति का शत्रु होता ही है। अपने शत्रु को ध्वस्त करना नीति है। प्रकृति एवं सामर्थ्य के अनुसार इस नीति को अपनाना धर्म है। इसलिये शत्रु को समूल उखाड़ फेंकने के लिये उपनिषद्कार ऋषि ने इस आभिचारिक प्रयोग का निदेशन किया है। यह ऋषिनिदेशित प्रशस्त मार्ग करणीय है। जब जातक की कुण्डली में सप्तम भाव और उसका कारक दूषित हो तो उसकी पत्नी निश्चय ही उपपति (जार) रखेगी- व्यभिचारिणी होगी। जब पत्नी की कुण्डली में व्यभिचारपरक योग हो तो वह स्वी निश्चय ही स्वभाव से जार प्रिया होगी। ऐसी दशा में जातक पति को चाहिये कि वह यह प्रयोग न करे। अपितु पत्नी को त्याग दे, उसके जार को दे दे। किन्तु, यदि ऐसा योग न हो सचमुच उसकी पत्नी को ठगा जा रहा और उसे धोखे में रखा जा रहा हो तो उसे यह प्रयोग अवश्य करना चाहिये। अपने शत्रु पर यह प्रयोग एक अप्रत्यक्ष प्रहार है और नितान्त निरापद है। संत्रस्त गृहस्थ इसे अवश्य करे। 【अब पूर्वोक्त अभिचार कर्म का स्पष्टीकरण करता हूँ। 】 जिस गृहस्थ विद्वान की पत्नी का कोई उपपति हो और वह गृहस्थ उसके उपपति से द्वेष करता हो तो उसे उस जार के सर्वनाश के लिये अभिचार कर्म का समारंभ करना चाहिये। इसके लिये वह मिट्टे के कच्चे वर्तन में संस्कारपूर्वक अग्नि स्थापित करे। अग्नि स्थापित करके सारी क्रिया विपरीत क्रम से करे। यथा- ईशान से अग्नि कोण की ओर दक्षिणाम या पश्चिमाम भाव से बर्हियों का परिस्तरण करे। अर्थात् कुश, कास वा सरपत (करकण्डों) का नुकीला भाग दक्षिण वा पश्चिम दिशा की ओर करके उन्हें फैलावें । उस प्रस्थापित अग्नि में इन बाणाकार नुकीली सरकण्डों की सीकों का प्रतिलोम (दक्षिणाप वा पश्चिमाप) भाव से ही रखते हुए घी में भिगो कर उनकी आहुति दे आहुति देते समय इस प्रकार का भाव मन में रखे ... अमुक नाम वाले हे जार !!! सम्भोग के योग्य रूप यौवन से युक्त मेरी पत्नी की योषाग्नि में तूने अपने वीर्य की अहुति दी है, अतः अमुक नाम वाला मैं तेरे प्राण और अपान का हरण करता हूँ-तेरे श्वास-प्रश्वास की गति का उच्छेद करता हूँ-तुम्हें निर्जीव करता हूँ। पहिली आहुति में ऐसा कहे। इसी प्रकार, दूसरी तीसरी और चौथी आहुतियों में क्रमशः यह कहें मैं तेरे पुत्र और पशुओं का हरण करता हूँ; मैं तेरे इष्ट और सुकृत का हरण करता हूँ; मैं तेरी आशा और प्रत्याशा का हरण करता हूँ। इन चार आहुतियों के चार मंत्र ये हैं । १. मम समिद्धेऽहौषीः प्राणापानौ त आददे। २. मम समिः पुत्रस्त आददे । ३. मम समिद्धेषी अष्टाक्ते आददे । ४. मम समिद्धे$हौषी आशापंराकाशौ त आददे। इन मंत्रों को पढ़ कर 'फट्' शब्द का उच्चारण करके आहुतियाँ डालें। प्रत्येक आहुति के अन्त में 'असौ मम शत्रु' कहें। असौ पद के स्थान पर शत्रु का नाम लें। ऐसी अभिचार क्रिया को जानने और करने वाला विद्वान जारकर्मा व्यभिचारी के लिये पराया वा शत्रु होता है। अतः ऐसे व्यक्ति की भार्या से समागम करने की बात तो दूर हास-परिहास भी नहीं करना चाहिये। क्योंकि ऐसा विद्वान जिसे शाप देता है, वह विसुकृत- पुण्यकर्मशून्य हो इस लोक से चल बसता है। अतः परस्त्रीगमन के ऐसे भीषण परिणाम को जानने वाला पुरुष कभी भी श्रोत्रिय ब्राह्मण की पत्नी की ओर आँख उठाकर देखे तक नहीं। इसी में उसका भला है। 【 इस अभिचार कर्म में मात्र चार उपकरण हैं ।】 १. समिद्ध अग्नि = प्रज्ज्वलित/ प्रदीप्त अग्नि । २. श्रोत्रिय ब्राहम्ण = वेदज्ञ/विद्वान् ब्राह्मण । ३. सर्पिस / सर्पिषु = पिपलाया हुआ घी। ४. बर्हिस्/बर्हिष्= नोकदार/ तीक्षण कुशा =। ये चारों पवित्र हैं। पवित्र अग्नि की ज्वाला में पवित्र श्रोत्रिय द्वारा पवित्र घृत युक्त/ सिक्त कुशा की आहुति से यह कर्म पवित्र उद्देश्य से किया जाता है। अतः अभिचार होते हुए भी यह प्रशस्त है, धर्म सम्मत है, ऋषि-स्वीकार्य है। इसीलिये यह उपनिषद् में संग्रहीत है, प्रस्थापित है। परदारागमन करने वाले पुरुष को मारने के लिये अभिचार के प्रयोग का प्राविधान शास्त्र करता है। परन्तु परपुरुषगमिनी स्त्री को मारने की अनुमति शास्त्र नहीं देता। शास्त्रों में स्त्री को सदैव अवध्य कहा गया हैं। स्त्री को रत्न माना गया है। इसकी यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये। परपुरुष द्वारा दूषित स्त्री ऋतुस्नान के बाद शुद्ध समझी जाती है। स्त्री से वंश परम्परा चलती है। इसमें परपुरुष के वीर्य की आहुति पड़ने से जो सन्तान उत्पन्न होती है, उससे कुल धर्म नष्ट हो जाता है। अतः कुल धर्म की रक्षा के लिये उसी वर्ण वा कुल के श्रेष्ठ पुरुष द्वारा नियोग की अनुमति शास्त्र देता है। कुल का क्षय नहीं होने देना चाहिये। क्योंकि, 'कुलक्ष्ये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः। धर्मे नष्टे कुलं कृलनमधर्मोऽभिभवत्युत ॥' (-गीता १। ४०) [कुल के नाश से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं। धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है।] अधर्म (पाप) के अधिक हो जाने का फल क्या होता है ? "अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः । स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥" ( गीता १ । ४१) 【 हे कृष्ण । पाप के अधिक हो जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं। स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर उत्पन्न होता है।】 वर्णसंकरता का परिणाम बड़ा भयानक होता है ... 'दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः । उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ " (गीता १ । ४३) [ इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं।] - कुलधर्म के नाश का फल शुभ कैसे हो सकता है ? 'उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन। नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ ( -गीता १।४४ ) 【हे जनार्दन । जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चितकाल तक नरक में वास होता है ऐसा सुनता हूँ।】 यदि पुरुष दूषित होता है- वेश्यागामी होता है तो इससे उसके कुल में वर्णसंकरता नहीं आती। किन्तु यदि स्त्री दूषित होती है तो इससे कुल में वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है। इससे सनातन धर्म का क्षयन होता है। इसलिये भली प्रकार से स्त्रियों को दूषित होने से बचाने के लिये हर संभव उपाय करना चाहिये। इस कलयुग में इससे बचना कठिन है। स्त्रियाँ दूषित हो रही हैं। वर्णसंकर उत्पन्न हो रहे हैं। कुलधर्म नष्ट हो रहे हैं। धर्म से आस्था उठ रही है। लोग दुःखी हो रहे हैं। सर्वत्र अशांति है। यद्यपि भौतिक समृद्धि है। पूरी तरह समाज के वर्ण संकर हो जाने पर कल्कि अवतार होगा।



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