तुलसीदास जी और श्री हनुमान चालीसा

img25
  • धर्म-पथ
  • |
  • 31 October 2024
  • |
  • 0 Comments

  श्री सुशील जालान Mystic Power- गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान जी की प्रेरणा से श्रीरामचरितमानस की रचना की थी। कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उन्होंने लगभग सन् 1600 ईस्वी में हनुमान चालीसा की रचना भी की जिसमें हनुमान जी के जन्म और मुख्य कार्यों का वर्णन किया गया है।   हनुमान चालीसा -   "रामदूत अतुलित बल धामा , अंजनि पुत्र पवनसुत नामा।" "शंकर सुवन केसरी नंदन , तेज प्रताप महा जग वंदन।"   शंकर शंकर/संकर दो या दो से अधिक भिन्न प्रजातियों के संयोग से प्रकट जीव को कहते हैं, जिनमें इन प्रजातियों के गुणों का समायोजन होता है।   दिति और महर्षि कश्यप की संतान हैं दैत्य तथा अदिति और महर्षि कश्यप से आदित्य/देवता प्रकट हुए। इड़ा नाड़ी में दैत्यों का  और पिंगला नाड़ी में देवों का वास है। इन दोनों के गुणों का समायोजन होता है शंकर/संकर में। इस समायोजन से अग्नि तत्त्व प्रकट होता है मणिपुर चक्र में जिसे हृदयस्थ अनाहत चक्र में स्थिर किया जाता है।   केसरी   सुषुम्ना नाड़ी वाहक है अग्नि तत्त्व की आदि काल से। ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में अग्नितत्त्व प्रधान महर्षि अंगिरा से उद्भूत होते हैं समस्त सृष्टि के अवयव, जब महर्षि क्रतु के साथ इनका योग होता है। अग्नि का वर्ण लाल है, भानु का स्वर्णिम पीत। दोनों वर्णों का योग है केसरिया, जो महर्लोक से ऊर्ध्व जनर्लोक में होता है। इस केसरी से, जनर्लोक से, हनुमान जी का जन्म हुआ अंजना के संयोग से।   अंजना   अंजना का पदविच्छेद है, अं + ज (ज् + अ) + ना (न् + आ) अं,  है अनुस्वार बिन्दु, सगुण ब्रह्म का द्योतक, ज्,  है जनर्लोक, अ स्थायित्व के लिए, न्,  है बहुवचन, आ दीर्घ काल तक के लिए।   अर्थ हुआ, -  इस सगुण ब्रह्म बिंदु को केसरी [अंगिरा + क्रतु ] में स्थित कर जिस जीवात्मा के दीर्घ आयु [ चिरंजीवी ] तक, कल्पांत तक, प्रकट होकर रहने की कामना की गई, उसके प्राकट्य पर, उसे वायुपुत्र कहा गया है। वायुपुत्र इसलिए कि अनाहत चक्र में वायुतत्त्व विद्यमान है, वायुपुत्र वायु जैसे बलशाली है।    सुवन   सुवन योग-तांत्रिक संस्कृत का शब्द है, पदच्छेद है,   सु ( स् + उ/विसर्ग) + (व् + अ) + (न् +अ)   -  स् है मूलाधार चक्र में स्थित वर्ण, स्त्रीलिंग, धारण करने के संदर्भ में, -  उ है विसर्ग (:), कर्म प्रधान, -  व् है स्वाधिष्ठान चक्र का कूट बीज वर्ण, भवसागर का द्योतक, -  अ है स्थायित्व के लिए, -  न् है बहुवचन, -  अ है स्थिर करने के लिए।   अर्थ हुआ, मूलाधार चक्र से चेतना को ऊर्ध्व कर विभिन्न भावनाओं को धारण कर उन्हें कर्म में परिवर्तित करना।   शंकर सुवन केसरी नंदन का अर्थ हुआ,   हृदयस्थ अनाहत चक्र में स्वाधिष्ठान चक्र के भवसागर के विभिन्न भावों को धारण करने वाले संकर जीव को केसरी से प्रकट किया गया है अंजना के संयोग से, जो उन भावनाओं को कर्म में परिवर्तित करने की क्षमता रखता है, वायु तत्त्व के वेध से।   इस वायुपुत्र वानर हनुमान में अष्टमहासिद्धियों का तेज व्याप्त है, जो महर्लोक में, अनाहत चक्र में, महेश्वर से प्रकट होती हैं। महेश्वर की शक्ति विशेष उमा भी हनुमान जी को उपलब्ध हुई है। उमा कुंडलिनी शक्ति है, चौंसठ योगिनियों की स्वामिनी है। इन शक्तियों के कारण जगत् हनुमान जी का वंदन करता है। हनुमान जी षट्कर्मों का भी उपयोग करते हैं।   महर्लोक में स्थित महेश्वर के प्रमुख गण होने के कारण, उनकी शक्तियों, सिद्धियों को धारण करने के कारण, उनका निस्वार्थ सेवा भाव से उपयोग करने के कारण, हनुमान जी को महाराज, महावीर, बजरंगी (वज्र + अंगी) आदि उपाधियों से विभूषित किया जाता है।   हनुमान जी महेश्वर की कुंडलिनी शक्ति का दुरुपयोग करने लगे थे ऋषियों को तंग करने में, वानर योनि में स्थित होने के कारण, योनि सापेक्ष चांचल्य गुण के कारण। इसलिए ऋषियों ने श्राप दिया कि हनुमान को अपनी महेश्वर प्रदत्त शक्तियों विस्मृत हों और केवल निस्वार्थ सेवा भाव में ही वह उनका उपयोग कर सकेंगे।   निस्वार्थ भाव से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम की सेवा में तत्पर रहने से हनुमान जी को उनकी महेश्वर शक्तियां पुनः उनके उपयोग के लिए उपलब्ध हो गईं। इसलिए हनुमान जी रामभक्त, रामदूत कहलाए और जो भी भगवान् श्रीराम की पूजा उपासना करता है, स्वयं हनुमान जी उसकी विपदा आपदा को हर लेते हैं।   गोस्वामी तुलसीदास जी हनुमान चालीसा में आगे लिखते हैं,   "जुग सहस्त्र योजन पर भानू, लील्यो ताहि मधुर फल जानू।"   -  यहां भानु/सूर्य को लीलने का अर्थ है पिंगला नाड़ी के सूर्य के प्रकाश से, जाग्रत पिंगला नाड़ी से, लीला करना, जो मधुर फल है आध्यात्मिक साधना का।   -  पुरुष [पुर् + उष ] में यह सूर्य का तेज (उषा) प्रकट होता है हृदयाकाश में। इस तेज से प्रकृति वश में होती है साधक के। जैसे सूर्य से जगत् के सभी अवयव क्रियाशील होते हैं, वैसे ही साधक पुरुष इस तेज का उपयोग करता है आध्यात्मिक सिद्धि के रूप में।   -  जुग सहस्त्र का अर्थ है युक्त स: अस्त्र, यानि अस्त्र के साथ प्रयोग के लिए युक्त होना, योजन का अर्थ है योग से, योजना से, जन्म लेना, प्रकट होना। भानु कहते हैं भाल पर प्रकट हुए सूर्य सम प्रकाश को। यह भानु महर्लोक में, अनाहत चक्र में, प्रकट होता है। भानु के प्रकट होने पर अस्त्र का, आध्यात्मिक शक्ति का, प्रयोग करना संभव होता है।   *  गोस्वामी जी आगे लिखते हैं,    "भूत पिशाच निकट नहीं आवै  महावीर जब नाम सुनावै।"   -  भूत प्रेत पिशाच आदि अशरीरी जीवात्माएं हैं जो अपनी अतृप्त वासनाओं की पूर्ति हेतु शरीरधारी मनुष्यों पर आवेशित होती हैं। इन निशाचरों को भानु के बल से परास्त किया जाता है, विवश किया जाता है कि वह मुक्त करे अपने आवेशी बंदी को।   -  महावीर वह पुरुष है जिसमें भानु प्रकट होता है हृदय में, अनाहत चक्र में, महर्लोक में, सूर्य के तेज जैसा, योग साधना से, देवी के अनुग्रह से, इष्टदेव की कृपा से, सक्षम योगी गुरु के शक्तिपात से। सभी निशाचर व अन्य जीव योनियां इस महावीर योगी के अनुगत होती हैं महादेव के आशिर्वाद से।   गोस्वामी जी कहते हैं,    "अष्ट सिद्धि नव निधि के धाता, असबर दीन्हि जानकी माता"।   इड़ा और पिंगला नाड़ियों को 'सम' करने से सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत होती है नाभिस्थ मणिपुर चक्र से। यहां अग्नि तत्त्व है जिसे सुषुम्ना नाड़ी में योगी की चेतना ऊर्ध्व होकर सुषुप्तावस्था में, अनाहत चक्र में, ले जाती है। यहीं अष्टमहासिद्धियां, नव निधियां प्रकट होती हैं जिसे चैतन्य आत्मा धारण करता है। इसी को धारण करते हैं हनुमान जी महाराज भी और उनका उपयोग भी करते हैं।   भाग्यशाली हैं हनुमान जी, जिन्हें जनकनंदिनी सती मां सीता ने अष्टमहासिद्धियां तथा नव निधियां वरदान स्वरूप प्रदान की। हनुमान जी ने कोई जप तप, योग याग आदि नहीं किया था, केवल निस्वार्थ भाव से भगवान् श्रीराम की सेवा की। इसी सेवा के उपलक्ष्य में वरदान मिला जिसके कारण ही हनुमान जी महावीर हो गए।   भगवती सती पार्वती/देवी के सर्वोच्च रूप की उपासना करने से सिद्धियां, निधियां उपलब्ध होती हैं योगी साधक को। बाह्य केवल कुंभक प्राणायाम, योगासनों, मुद्रा, बंध आदि के अभ्यास से, मंत्र जप के साधन से, देवी की प्रसन्नता से, ब्रह्मचर्य पालन करने से, नाभिस्थ मणिपुर चक्र जाग्रत होता है। इससे ऊर्ध्व में स्थित है हृदयस्थ अनाहत चक्र।   ऊर्ध्वरेता ध्यान-योगी पुरुष साधक सर्वस्व त्याग कर जीवभाव से मुक्त होता है अनाहत चक्र में, निर्गुण आत्मा का बोध करता है और यह निर्गुण आत्मा ही चैतन्य तत्त्व धारण करता है। इसी चैतन्य तत्त्व में सिद्धियां, निधियां उपलब्ध होती हैं और वह‌ ध्यान-योगी साधक, महायोगी, महापुरुष, महावीर, महाराज, महात्मा आदि संज्ञाओं से विभूषित होता है।   सहस्रार योग से कपाल के शीर्ष में शिवतत्त्व प्रकट होता है, पूर्णता में, अनन्त में, जहां कुंडलिनी शक्ति का शिव में विलय होता है। हनुमान जी पूर्ण सहस्रार योग का अनुशीलन किए बिना ही महर्लोक में स्थित हो गए, भानु को लीलकर, सेवा से वरदान में उपलब्ध सिद्धियों से लीला करने लगे। इसलिए हनुमान जी ब्रह्मर्षि पद से वंचित रह गए, निर्गुण ब्रह्म का बोध नहीं कर पाए। भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्ण, निर्गुण तथा सगुण, ब्रह्म के दोनों स्वरूपों के ज्ञाता हैं।   जब तक निस्वार्थ भाव से हनुमान जी सेवारत रहेंगे हरिभक्तों के लिए, योगसिद्धियां उन्हें उपलब्ध रहेंगी। जहां तनिक भी स्वार्थ हुआ, वह सिद्धियां उन्हें विस्मृत हो जाएंगी ऋषियों के श्राप के कारण।   अंतिम प्रसंग में तुलसीदास जी लिखते है,    "अंत काल रघुबर पुर जाई, जहां जन्म हरि भक्त कहाई"।   यह फल है हरि की आजन्म भक्ति करने का, कि इस जन्म में ही मृत्यु के समय हरि का भक्त होने का फल, यानि कि हरि श्रीराम के धाम में प्रवेश मिलेगा, अर्थात् मोक्ष उपलब्ध होगा। अगर हम योगेश्वर भगवान् श्री नारायण की योग-उपासना करें भगवती महालक्ष्मी के साथ, श्री सीताराम की या श्री राधाकृष्ण की, कर्त्तव्य कर्म करें सेवा भाव से कर्मफल में अनासक्ति से, तो‌ यह संभव है कि हमें हनुमान जी की तरह सिद्धियां व निधियां उपलब्ध हों जीवन काल में ही और मोक्ष भी मिले जीते जी/मृत्यु के बाद।



0 Comments

Comments are not available.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Post Comment