तैत्तिरीय आरण्यक में विहित वेद-संकीर्तन...

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  • धर्म-पथ
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  • 31 October 2024
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श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )- Mystic Power- 'वेद' श्रीभगवान् के श्वास-प्रश्वाससे उद्भूत पवित्र मन्त्रोंके समुदाय हैं। 'मन्त्रात्मानो देवता:'-विष्णु-रुद्र आदि देवगण मन्त्रों की आत्मा कहे गये हैं। प्रकारान्तर से प्रत्येक वेदमन्त्र देवताओं के नाम-गुण-कीर्तन से युक्त हैं। यों तो सभी वेदाक्षर विष्णु-नाम- रूपमय हैं—'यावन्ति वेदाक्षराणि तावन्ति हरिनामानि' (सिद्धान्तकौमुदी) इस प्रकार एक बार एक वेद का पूर्ण पाठ करे तो कई लाख हरिनाम स्मृत हो जायँगे। अतः ब्रह्मचारी को उपनयन के बाद प्रतिदिन वेदाध्ययन अवश्य करना चाहिये, क्योंकि वेदपाठ को श्रुति में स्वाध्याय या ब्रह्मयज्ञ नाम से अभिहित किया गया है- "ब्रह्मयज्ञेन यक्ष्यमाणः प्राच्यां दिशि ग्रामादच्छदिर्दर्श उदीच्यां प्रागुदीच्यां वोदित आदित्ये दक्षिणत उपवीयोपविश्य दर्भाणां महदुपस्तीर्योपस्थं कृत्वा दक्षिणोत्तरौ पाणी पादौ कृत्वा।" ( तै० आ० २/ ११)   विद्वान् गृहस्थको प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्योदयके बाद पूर्व, उत्तर या ईशान दिशाकी ओर गाँवसे बाहर (जहाँतक जानेसे घरका छत न दिखायी पड़े) जाकर दर्भासनपर प्राङ्मुख या उदङ्मुख बैठकर बायें पैरके ऊपर दाहिना पैर और बायें हाथके ऊपर दाहिना हाथ रखकर ब्रह्मयज्ञ करना चाहिये। 'मध्याह्ने प्रबलमधीयीत'- दोपहर में ऊँचे स्वरसे वेदपाठ करना चाहिये। इस प्रकार प्रतिदिन गाँवसे बाहर जाकर ब्रह्मयज्ञ करना बहुत सरल है। नियमों की कठिनाई के कारण जब ब्रह्मचारिगण प्रतिदिन अधिक वेदपाठ करने में असमर्थ हो गये, तब शुचि नामक महर्षि के पुत्र शौच और अह्नि माता के पुत्र आहेय-दोनों ने ब्रह्मयज्ञ के नियमों में परिवर्तन किया-   "ग्रामे मनसा स्वाध्यायमधीयीत दिवा नक्तं वा इति ह स्माऽऽह शौच आहेयः उतारण्येऽबल उत वाचोत तिष्ठन्नुत जताऽसीन उत शयानोऽधीयीतेव स्वाध्यायं तपस्वी पुण्यो भवति ॥" ( तै० आ० २।१२)   'अशक्त हों तो घरपर ही रहकर दिन और रात दोनों समय मानसिक पाठ कर सकते हैं। सशक्त हों तो अरण्यमें बैठकर, उठकर, भ्रमण करते हुए, सोकर, मनसे, ऊँचे स्वरसे या किसी स्वरसे ब्रह्मयज्ञ करना ही चाहिये'- ऐसा क्रम बतलाया। तबसे ब्रह्मयज्ञको संकीर्तनका स्वरूप प्राप्त हुआ, वेद-भक्तोंको तृप्तिका अनुभव होने लगा और तन्मयता आने लगी-   "य एवं विद्वान् महारात्र उषस्युदिते व्रजःस्तिष्ठत्रासीनः शयानोऽरण्ये ग्रामे वा यावत्तरसः स्वाध्यायमधीते सर्वांल्लोकान् जयति सर्वाल्लोकाननृणो ऽनुसंचरति ।" ( तै० आ० २।१५)   तन्मयता आनेके बाद महात्मा लोग निःसंकोच मध्यरात्रिमें, उषाकालमें, सूर्योदयके बाद आते-जाते, खड़े होकर, बैठकर, जमीनपर पड़कर, वनमें या गाँवमें जितना हो सका, ऊँचे स्वरसे ब्रह्मयज्ञ करने लगे और चौदह लोकोंमें विजय प्राप्त करके विचरण करने लगे।   वेदके अनध्याय कालके सम्बन्धमें तैत्तिरीय आरण्यक (२। १४) में ही कहा गया है-   " य एवं विद्वान् मेघे वर्षति विद्योतमाने स्तनयत्यवस्फूर्जति पवमाने वायावमावास्याया ँ् स्वाध्यायमधीते तप एवं तत्तप्यते तपो हि स्वाध्याय इति ।"   श्रावण भाद्रपदमें अमावास्याके आस-पास आकाश घने मेघोंसे आच्छादित होता है। मेवोंके परस्पर आकर्षणसे स्फोट होकर प्रचण्ड शब्द होता है। तब प्रचण्ड पवनका भी आगमन होकर शब्द बढ़ता है, विद्युत् चमकती है। ऐसे समय में वेदपाठ वर्जित है। मनुस्मृति (४। १०३)- में उल्लेख है-   " विद्युत्स्तनितवर्षेषु महोल्कानां च सम्प्लवे । आकालिकमनध्यायमेतेषु मनुरब्रवीत् ॥"   स्वाध्याय महान् तप है; पर सदा संकीर्तन करनेवाले भी परम धन्य हैं, कृतकृत्य हैं-यदि शरीरमें रोमाञ्च एवं गद्गद स्वर हो जाय, आँखोंसे आँसू बहने लगें। प्रतिपत्, अष्टमी, पूर्णिमा, अमावास्याकी तिथियोंको अनध्यायका नियम है। इन तिथियोंमें वेदका अध्ययन निषिद्ध है, पर ब्रह्मयज्ञ, स्तुति कीर्तनादि निषिद्ध नहीं है। सायणाचार्यने वेदभाष्यमें लिखा है- 'ग्रहणाध्ययने यान्यनध्यायकारणानि तानि ब्रह्मयज्ञाध्ययने स्वाध्यायं न निवारयन्ति' । इस प्रकार अनध्याय आदिके समय भी संकीर्तन सदा चलता है। पुराण पाठ भी चलते हैं।   संकीर्तनमें तुरीयावस्थामें पहुँच जानेके बाद पहलेके विधि-नियम, काल-नियम, आसनादि नियम भी गौण हो जाते हैं; किंतु कीर्तन-स्थान एवं कर्ताको शुद्ध रहना चाहिये- इन दो बातोंपर ध्यान रखना अनिवार्य है-'तस्य वा एतस्य यज्ञस्य द्वावनध्यायौ यदाऽऽत्माशुचिरशुचिश्च देशः ।' अतः भगवन्नाम संकीर्तन ही सार्वकालिक शरण है।  



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