डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)-
धर्म के आधार स्तम्भ वेद को समस्त जागतिक विद्वानोंने सकल संसारका पुरातन ग्रन्थ स्वीकार किया है। प्राचीन महर्षि वेदके द्वारा ही लोकोत्तर अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त कर पाये थे; इसीलिये तो वेदाभ्यास और वैदिक उपासनाओंके अतिरिक्त ब्राह्मणके लिये धन कमानेकी कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसा कहा गया है।
'नान्यद् ब्राह्मणस्य कदाचिद्धनार्जनक्रिया।'
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मनु-संहिता में ऋषियों द्वारा प्रश्न हुआ है कि' भगवन् ! अपने धर्मपालन में तत्पर मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसारहित वृत्ति वाले ब्राह्मणों पर काल अपना हाथ चलाने में कैसे समर्थ होता है'? इस प्रश्न का उत्तर क्या ही सुन्दर दिया गया है-
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अनभ्यासेन वेदानामाचारस्य च वर्जनात् ।
आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ्जिघांसति ।।
(मनुकु ५।४)
मनुभगवान्ने मृत्यु के आने का सर्वप्रथम कारण वेदों के अनभ्यास को बताया है। पाठकों के मन में बड़ा आश्चर्य होगा कि वेद में ऐसी कौन-सी करामात है, जिससे काल भी उसका अभ्यास करने वाले का कुछ नहीं कर पाता। पाठकों को विश्वास रखना चाहिये कि वेद ऐसी-ऐसी करामातों का खजाना है, जिनका किसी और के द्वारा मिलना दुर्ली है। यद्यपि वेद का मुख्य प्रयोजन अक्षय्य स्वर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति है, तथापि उसमें सांसारिक जनकि मनोरथ पूर्ण करने के भी बहुत-से साधन बताये गये हैं, जिनसे ऐहिक तथा पारमार्थिक-उभयलोक सिद्धि प्राप्त होती है।
प्रसिद्ध नीलसूक्त के कतिपय मन्त्रों के कुछ साधन पाठकों के दिग्दर्शनार्थ यहाँ प्रस्तुत किये गये हैं-
भूतादिनिवारण
नीचे लिखे मन्त्र से सरसों के दाने अभिमन्त्रित करके आविष्ट पुरुष पर डालें तो ब्रह्मराक्षस-भूत-प्रेत-पिशाचादि से मुक्ति हो जाती है-
अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् । अहींच सर्वाञ्जम्भयन्त्रसर्वाश्च यातुधान्योऽधराचीः परा सुव ॥ (शु १६।५)
निर्विघ्नगमन
कहीं जाता हुआ मनुष्य भी यदि उपर्युक्त (अध्यवोचधिवक्ता) मन्त्र को जपे तो वह (यथेष्ट स्थानपर) कुशलपूर्वक चला जाता है।
बालशान्ति
मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्। मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः ॥ (शु० क १६।१५)
- इस मन्त्र से तिलकी १०,००० आहुति देने से बालक नीरोग रहता है तथा परिवार में शान्ति रहती है।
रोगनाशन
नमः सिकत्याय च प्रवाह्याय च नमः किःशिलाय च क्षयणाय च नमः कपर्दिने च पुलस्तये च नम इरिण्याय च प्रपध्याय च । (शु० ० १६।४३)
- इस मन्त्रसे ८०० वार कलशस्थित जल को अभिमन्त्रित कर उससे रोगी का अभिषेक करे तो वह रोगमुक्त हो जाता है।
द्रव्यप्राप्ति
'नमो वः किरिकेभ्यो' (शु० य० १६। ४६) मन्त्रसे तिलकी १०,००० आहुति दे तो धन मिलता है।
जलवृष्टि
'असौ यस्ताम्म्रो' तथा 'असौ योऽवसर्पति' (शु य० १६।६-७)-
इन दोनों मन्त्रों से सत्तू और जल का ही सेवन करता हुआ, गुड़ तथा दूध में वेतस्की समिधाओं को भिगोकर हवन करे तो श्रीसूर्यनारायण भगवान् पानी बरसाते हैं।
पाठकों के दिग्दर्शनार्थ कुछ प्रयोग बताये गये हैं। प्रयोगों की सिद्धि गुरुद्वारा वैदिक दीक्षासे दीक्षित होकर साधन करनेसे होती है। दीक्षाके अतिरिक्त मन्त्रोंके ऋषि, छन्द, देवता एवं उच्चारण प्रकार जानना भी अत्यावश्यक है। भगवान् कात्यायनने कहा है-
एतान्यविदित्वा योऽधीतेऽनुब्रूते जपति जुहोति यजते याजयते तस्य ब्रह्य निर्वीर्य यातयामं भवति।
अथान्तरा श्वगर्ते वाऽऽपद्यते स्थाणुं वर्च्छति प्रमीयते वा पापीयान् भवति।
भाव यह है कि 'जो ऋषि छन्द-देवतादि के ज्ञान के हुए बिना पढ़ता है, पढ़ाता है, जपता है, हवन करता-कराता है, उसका वेद निर्बल और निस्तत्त्व हो जाता है। वह पुरुष नरक में जाता है या सूखा पेड़ होता है-अकाल अथवा मृत्यु से मरता है।'
अथ विज्ञायैतानि योऽधीते तस्य वीर्यवत् ।
जो इन्हें जानकर कर्म करता है, वह (अभीष्ट) फलको प्राप्त करता है। अतः साधकजनों के लिये वैदिक गुरूपदिष्ट मार्ग से साधन करना विशेष लाभदायक है।