आयुर्वेद में वायरस चिकित्सा

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  • 31 October 2024
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अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)

१. वायरस के नाम और आकार-वायरस के वेद में कई नाम हैं-कृमि या क्रिमि (सूक्ष्म अदृश्य या दृश्य), राक्षस (रक्षोहा), पिशाच, यातु, यातुधान, किमिदि, गन्धर्व, अप्सरा, अमीवा, दुराणामा, असुर, आतंक। सबसे छोटे जीव का आकार बालाग्र का १०,००० भाग कहा है-

वालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च ॥ भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ 

(श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/९) बालाग्र = माइक्रोन (मीटर का १० लाख भाग)। उसका १०,००० भाग ऐंगस्ट्रम होगा जो परमाणु या सबसे छोटे वायरस की माप है। परमाणु किसी कल्प (रचना) में नष्ट नहीं होता जो इस श्लोक में कहा है। यह बालाग्र का १ लाख भाग भी हो सकता है-

वालाग्र शत साहस्रं तस्य भागस्य भागिनः। 

तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम् ॥ (ध्यानविन्दु उपनिषद् , ४)

 अमीवा का उल्लेख यजुर्वेद (सभी संहिता) के प्रथम मन्त्र में ही है-

ॐ इ॒षे त्वो॑र्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ दे॒वो वः॑ सवि॒ता प्रार्प॑यतु आप्या॑यध्व मघ्न्या॒

 इन्द्रा॑य भा॒गं प्र॒जाव॑तीरनमी॒वा अ॑य॒क्ष्मा मा व॑ स्तेन ई॑षत माघशँ॑सो ध्रुवा अ॒स्मिन् गोप॑तौ स्यात ब॒ह्वीर्यजमा॑नस्य प॒शून्पा॑हि (वा. यजु १/१) 

यहां अनमीवा (अमीवा या वायरस से मुक्त), अयक्ष्मा (यक्ष्मा से मुक्त) तथा माघशँस (पाप जनित रोग से मुक्त) का उल्लेख है। यह यज्ञ के लिये यजुर्वेद का एक उद्देश्य है कि स्वस्थ रहें। स्वस्थ और सम्पन्न रहने के लिये अघ्न्या (गो) की उपासना भी जरूरी है। अघ्न्या गो के कई अर्थ हैं-

(१) गो रूपी पृथ्वी को सुरक्षित रखना, 

(२) गो रूपी इन्द्रिय स्वस्थ रखना, 

(३) गो रूपी यज्ञ का क्रम सनातन रखना-केवल उसका बचा हुआ भोग करना है, 

(४) तथा गो रूप पशु की रक्षा जिसके उत्पाद पर हम जन्म से मृत्यु तक निर्भर हैं। 

२. स्वास्थ लाभ २१ दिन में- शरीर का पाचन तन्त्र तथा मांस पेशियों का पुनर्निर्माण २१ दिन में हो जाता है। अतः कोई योगिक या अन्य व्यायाम का प्रभाव २१ दिनों में दीखता है। दौड़ने या अन्य व्यायाम में प्रथम सप्ताह में बहुत कम से आरम्भ होगा, द्वितीय सप्ताह में थोड़ा थोड़ा बढ़ेगा, तथा तृतीय सप्ताह में पूरा क्रम होगा। 

३. पुत्रेष्टि यज्ञ- रामायण में २ बार पुत्र प्राप्ति के लिए अश्वमेध का उल्लेख है। राजा दिलीप को यक्ष्मा हुआ था तो पुत्र प्राप्ति के लिए नन्दिनी गौ की २१ दिनों तक सेवा की। यहां अश्वमेध का अर्थ आन्तरिक अश्वमेध है। अश्व = क्रियात्मक प्राण। शरीर की नाड़ियों में इसके सञ्चार की बाधा दूर करना आन्तरिक अश्वमेध है। राज्य के भीतर यातायात तथा सञ्चार अबाधित रखना चक्रवर्त्ती राजा का कर्तव्य है जो आधिभौतिक अश्वमेध है। पृथ्वी की सभी क्रियाओं का स्रोत सूर्य का तेज है, अतः सूर्य को भी अश्व कहा गया है। 

दिलीपस्तु महातेजा यज्ञैर्बहुभिरिष्टवान्। 

त्रिंशद् वर्षसहस्राणि राजा राज्यमकारयत्॥८॥ 

अगत्वा निश्चयं राजा तेषामुद्धरणं प्रति। 

व्याधिना नरशार्दूल कालधर्ममुपेयिवान्॥९॥ (रामायण १/४२)

 इत्थं व्रतं धारयतः प्रजार्थं समं महिष्या महनीय कीर्त्तेः। 

सप्तव्यतीयुस्त्रिगुणानि तस्य दिनानि दीनोद्धरणोचितस्य॥ (रघुवंश २/२५) सौर्यो वा अश्वः (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ३/१९) 

राजा दशरथ तथा उनकी रानियां वृद्ध हो गये थे, अतः उनके शरीर को पुत्र जन्म योग्य बनाने के लिये अश्वमेध यज्ञ हुआ। यहां पुत्र कामेष्टि यज्ञ को अश्वमेध कहा गया है। यहां २१ दिन का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, पर २१ यूप २१-२१ अरत्नि के थे- पुत्रार्थं हय (=अश्व) 

मेधेन यक्ष्यामीति मतिर्मम॥ 

तदहं यष्टुमिच्छामि हयमेधेन कर्मणा॥ (रामायण १/१२/९) 

इसमें २१ स्तम्भ विभिन्न ३ प्रकार के काष्ठों के बनते हैं (रामायण १/१४/२२-२७)- 

एकविंशति यूपास्ते एकविंशत्यरत्नयः। 

वासोभिरेकविंशद्भिरेकैकं समलंकृताः॥२५॥ 

यहा रघुवंश में २१ दिनात्मक यज्ञ को ३ गुणा ७ कहा गया है। 

४. विष या कृमि से २१ दिन में मुक्ति- सूक्ष्म कृमि वायरस है। उससे या विष से शरीर की रक्षा एक ही प्रकार की क्रिया है। इसे दूर करने के लिए ऐण्टीबायोटिक भी एक विष ही है जो वायरस रूपी अन्य विष को नष्ट करता है-विषस्य विषमौषधम्। उसके कुप्रभाव से शरीर को सामान्य होने में २१ दिन लगता है, यह शरीर की शक्ति, आयु या मौसम पर निर्भर है। अष्टाङ्ग संग्रह में २१ दिन तथा सुश्रुत संहिता में १५ दिन में रोग से मुक्ति कही है। 

अष्टाङ्ग हृदय, उत्तर स्थान, अध्याय ३७-

श्वास दंष्ट्रा शकृन् मूत्र शुक्र लाला नखार्तवैः॥५८॥ 

अष्टाभिरुद्धमत्येषा विषं वक्राद् विशेषतः। 

लूता नाभेर्दशत्यूर्ध्व चाधश्च कीटकाः॥५९॥ 

तद्दूषितं च वस्त्रादि देहे पृक्तं विकारकृत्। 

दिनार्धं लक्ष्यते नैव दंशो लूता विषोद्भवः॥६०॥ 

सूची व्यघवदाभाति ततोऽसौ प्रथमेऽहनि। 

अव्यक्तवर्णः प्रचलः किञ्चित् कण्डूरुजान्वितः॥६१॥ 

द्वितीये ऽभ्युन्नतोऽन्तेषु पिटिकैरिव वाऽऽचितः। 

व्यक्त वर्णो नतो मध्ये कण्डूमान् ग्रन्थि सन्निभः॥६२॥ 

तृतीये स ज्वरो रोमहर्षकृद् रक्तमण्डलः। 

शराव रूपस्तोदाख्यो रोमकूपेषु सास्रवः॥६३॥ 

महाश्चतुर्थे श्वयथुस्ताप श्वास भ्रमप्रद। 

विकारान् कुरुते तास्तान् पञ्चमे विषकोपजान्॥६४॥ 

षष्ठे व्याप्नोति मर्माणि सप्तमे हन्ति जीवितम्। 

इति तीक्ष्णं विषं मध्यं हीनं च विभजेदतः॥६५॥ 

एकविंशति रात्रेण विषं शाम्यति सर्वथा॥६६॥ 

सुश्रुत संहिता, कल्प स्थान, अध्याय ८ में भी ऐसा ही वर्णन है। वायव्य कीट १८ प्रकार के हैं जिनमें वायरस भी है। इनकी चिकित्सा विष चिकित्सा जैसी है। यहां इनसे स्वस्थ होने का समय १ पक्ष (१५ दिन लिखा है)। कान्यकुब्ज के राजा विश्वामित्र तथा वसिष्ठ के संघर्ष में भी कई प्रकार के महाविष उत्पन्न हुए थे। यह आजकल के जैव-रसायन युद्ध की तरह था। 

सर्पाणां शुक्रविण्मूत्र शवपूत्यण्डसम्भवाः। 

वाय्वग्न्यम्बु प्रकृतयः कीटास्तु विविधाः स्मृताः॥३॥ 

शतबाहुश्च यश्चापि रक्तराजिश्च कीर्तितः। 

अष्टादशेति वायव्याः कीटाः पवन कोपनाः॥७॥ 

(पवन कोपन कीट-मलेरिया, Mal+air =दूषित वायु) 

खेभ्यः कृष्णं शोणितं याति तीव्रतस्मात् प्राणैस्त्यज्यते शीघ्रमेव॥६६॥ 

ईषत् सकण्डु प्रचलं सकोठमव्यक्तवर्णं प्रथमेऽहनि स्यात्। 

अन्तेषु शूनं परिनिम्नमध्यं प्रव्यक्तरूपं च दिने द्वितीये॥८०॥ 

अतोऽधिकेऽह्नि प्रकरोति जन्तोर्विषप्रकोप प्रभवान् विकारान्॥८१॥ 

षष्ठे दिने विप्रसृतं तु सर्वान् मर्मप्रदेशान् भृशमावृणोति। 

तत् सप्तमेऽत्यर्थ परीतगात्रं व्यापादयेन्मर्त्यमतिप्रवृद्धम्॥८२॥ 

यास्तीक्ष्ण चण्डोग्रविषा हि लूतास्ताः सप्तरात्रेण नरं निहन्युः। 

अतोऽधिकेनापि निहन्युरन्या यासां विषं मध्यमवीर्यमुक्तम्॥८३॥ 

यासां कनीयो विषवीर्यमुक्तं ताः पक्षमात्रेण विनाशयन्ति॥८४॥ 

विश्वामित्रो नृपवरः कदाचिद् ऋषिसत्तमम्। वसीष्ठं कोपयामास गत्वाऽऽश्रमपदं किल॥९०॥ 

कुपितस्य मुनेस्तस्य ललाटात् स्वेदविन्दवः। अपतन् दर्शनादेव रवेस्तत्सम तेजसः॥९१॥ 

ततो जातास्त्विमा घोरा नाना रूपा महाविषाः। अपकाराय वर्तन्ते नृपसाधनवाहने॥९१॥ 

५. यक्ष्मा आदि रोग- चरकसंहिता, चिकित्सितस्थान, अध्याय ३ (श्लोक १४-२५) में परिग्रह (अन्न धन का अधिक सञ्चय) से रोग उत्पत्ति कही गयी है। द्वितीय युग में दक्ष यज्ञ के समय महेश्वर के क्रोध से उनका रुद्र रूप हुआ और तृतीय नेत्र से अग्नि निकली। शान्त होने पर शिव रूप हुआ तथा उस अग्नि का ज्वर रूप में जन्म हुआ। मन में क्रोध आदि विकार होने से ज्वर होता है। सुश्रुत संहिता, उत्तर तन्त्र (४१/५) के अनुसार राजा चन्द्र को सबसे पहले यक्ष्मा हुआ था, अतः इसे राजयक्ष्मा कहते हैं। दक्ष की २८ पुत्रियों (अभिजित् सहित २ नक्षत्र) का विवाह चन्द्र से हुआ किन्तु चन्द्र केवल रोहिणी से प्रेम करते थे। अतः दक्ष शाप से उनको यक्ष्मा हुआ। अधिक विलास पूर्ण जीवन यक्ष्मा का कारण है। (अथर्व संहिता, ७/७६/३-६) टायफाइड अंग्रेजी नाम है जिसे मधुरक, सन्निपात या आन्त्रिक ज्वर कहते थे क्योंकि यह आन्त्र में कृमि प्रकोप से होता है। यह २१ दिनों में ठीक होता है अतः इसे मियादी बुखार भी कहते थे (मियाद = अवधि)।



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