भारतीय समाज की प्रमुख समस्या

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  • 31 October 2024
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अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)- भारत में ३ प्रकार की समाज समस्या है। जो छल-बल से धर्म छोड़ कर अन्य सम्प्रदाय में चला गया वह मूल विदेशी सम्प्रदाय वालों से भी अधिक कट्टर तथा अपने समाज का विरोधी हो जाता है। दूसरी समस्या है कि अपने समाज या देश के जो लोग देश विरोधी हो जाते हैं उनको दण्ड नहीं दिया जाता। अतः उनको धर्म में रह कर या इसे छोड़ कर अन्य सम्प्रदाय में जाने की प्रेरणा मिलती है। तीसरी समस्या है अपने समाज का नैतिक पतन। इसके लिए समाज या जाति से बहिष्कार होता था। तीनों अवस्थाओं में पतितों को दण्ड देने एवं सुधरने वालों को प्रायश्चित सहित वापस लेने से ही देश बच सकता है। इसके ३ प्राचीन उदाहरण हैं-

  

(१) द्रोहियों का वध-इन्द्र ने असुरों को मारने के पहले ८८,००० शालावृक विद्वानों को मारा, जो भारत में रहते थे, किन्तु असुरों का पक्ष लेते थे। आज भी यह समस्या भारत में है। 

महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय ३३-इदं तु श्रूयते पार्थ युद्धे देवासुरे पुरा।

 असुरा भ्रातरो ज्येष्ठा देवाश्चापि यवीयसः॥२५॥

 तेषामपि श्रीनिमित्तं महानासीत् समुच्छ्रयः।

 युद्धं वर्ष सहस्राणि द्वात्रिंशदभवत् किल॥२६॥

 प्राचीन काल में भी पहले असुरों का प्रभुत्व था। उनके छोटे भाई देवों ने अपनी श्री (प्रभाव, लक्ष्मी) के लिये ३२ सहस्र (प्रायः ३२) वर्ष तक महान् संग्राम हुआ था। 

तथैव पृथिवीं लब्ध्वा ब्राह्मणा वेदपारगाः।

 संश्रिता दानवानां वै साह्यार्थं दर्पमोहिताः॥२८॥

 शालावृका इति ख्यातास्त्रिषु लोकेषु भारत।

 अष्टाशीति सहस्राणि ते चापि विबुधैर्हताः॥२९॥

 पृथ्वी को अपने अधीन कर देवों ने तीनों लोकों में शालावृक (घर का कुत्ता) नाम से विख्यात उन अट्ठासी हजार ब्राह्मणों का भी वध कर डाला जो वेदों के पारङ्गत विद्वान् थे और अभिमान से मोहित हो कर दानवों की सहायता के लिये उनके पक्ष में जा मिले थे। 

(२) सगर द्वारा द्रोही पतितों का बहिष्कार-मेगास्थनीज आदि ग्रीक लेखकों ने भारतीय गणना के अनुसार सिकन्दर आक्रमण (जुलाई ३२६ ई.पू) के ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व डायोनिसस आक्रमण के विषय में लिखा है। उसके बाद सिकन्दर (गुप्त काल के आरम्भ तक) भारतीय राजाओं की १५४ पीढ़ियां थीं। भारत में इसे असुर राजा असितधन्वा कहा गया है। इसने पश्चिमोत्तर भाग (अफगानिस्तान) पर प्रायः १५ वर्ष राज्य किया तथा यव की मदिरा का प्रचलन किया जिसे वाग्भट के अष्टाङ्ग संग्रह में बक्कस (whisky) कहा गया है। मेगास्थनीज आदि ने तथा बाइबिल में इसे बाक्कस कहा गया है। 

अष्टाङ्ग सङ्ग्रह (सूत्रस्थान ६/११६)-जगल पाचनो ग्राही रूक्षस्तद्वच मेदक।

 बक्कसो हृतसारत्वाद्विष्टम्भी दोषकोपन॥

 शतपथ ब्राह्मण (१३/४/३/११)-असितो धान्वो राजेत्याह। तस्यासुरा विशः।

 त इम आसत इति। कुसीदिन उपसमेता भवन्त॥

 तानुपदिशति। माया वेदः सोऽयमिति।

 असित धान्व असुर = डायोनिसस। इस आक्रमण में सूर्यवंशी राजा बाहु मारे गये थे जिनको युद्ध के लिए प्रस्तुत नहीं होने के कारण व्यसनी कहा गया है। उस आक्रमण में असुरों की सहायता यवन (भारत की पश्चिमी सीमा अरब के), शक, काम्बोज, पारद, पह्लव, हैहय, तालजङ्घ ने की थी। बाहु के पुत्र गर (विष) सहित उत्पन्न हुए, जिससे उनका नाम सगर हुआ। सगर ने हैहय, तालजङ्घों का वध किया। बाकी वसिष्ठ की शरण में आये तो उनको दण्डित कर भगा दिया। यवनों के सिर का मुण्डन कराया। शकों का अर्ध मुण्डन, पारदों के लम्बे केश तथा पह्लवों के श्मश्रु (दाढ़ी मूंछ-मुस्लिम समाज में प्रचलित बकर-दाढ़ी) रखवा दी। इनको तथा आक्रमणकारी खसों, माहिषिक, चोल, दार्व को धर्म से बहिष्कार कर दिया। 

असुर इसका उलटा करते हैं-धर्म भ्रष्ट लोगों को जबरदस्ती अपने संप्रदाय में शामिल करते है। ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/६३)-

रुरुकात्तु वृकः पुत्रस्तस्माद् बाहुर्विजज्ञिवान्॥।११९॥

 हैहयैस्तालजंघैश्च निरस्तो व्यसनी नृपः।

 शकैर्यवनकाम्बोजैः पारदैः पह्लवैस्तथा॥१२०॥

 सगरस्तु सुतो बाहोर्जज्ञे सह गरेण वै॥१२१॥

 आग्नेयमस्त्रं लब्ध्वा तु भार्गवात् सगरो नृपः॥१२२॥

 जघान पृथिवीं गत्वा तालजंघान् सहैहयान्।

 शकानां पह्लवानां च धर्मं निरसदच्युतः॥१२३॥

 क्षत्रियाणां तथा तेषां पारदानां च धर्मवित्।।१२४॥

 ततः शकान् स यवनान् काम्बोजान् पारदांस्तथा।

 पह्लवांश्चैव निःशेषान्कर्तुं व्यवसितो नृपः॥१३४॥

 ते हन्यमाना वीरेण सगरेण महात्मना।

 वसिष्ठं शरणं सर्वे सम्प्राप्ताः शरणैषिणः॥१३५॥

 अर्द्धं शकानां शिरसो मुण्डयित्वा व्यसर्जयत्।

 यवनानां शिरः सर्वं काम्बोजानां तथैव च॥१३८॥

 पारदा मुक्तकेशाश्च पह्लवाः श्मश्रु धारिणः।

 निःस्वाध्याय वषट्काराः कृतास्तेन महात्मना॥१३९॥

 शका यवन काम्बोजाः पह्लवाः पारदैः सह।

 कलिस्पर्शा माहिषिका दार्वाश्चोलाः खशास्तथा॥१४०॥

 सर्वे ते क्षत्रिय गणा धर्मस्तेषां निराकृतः।

 वसिष्ठवचनात्पूर्वं सगरेण महात्मना॥१४१॥

 (३) परशुराम द्वारा बहिष्कृतों को संघ में लेकर अत्याचार का अन्त-यह १९वें त्रेता के अन्त में थे (६७०२-६३४२ ईपू)। इनकी मृत्यु के बाद ६१७७ ईपू में कलम्ब संवत् आरम्भ हुआ जो अभी तक केरल में कोल्लम के नाम से चल रहा है। हैहय राजाओं की अन्य भारतीय राजाओं से शत्रुता बनी रही और वे अत्याचारी हो गये। उनके वंशज सहस्रार्जुन ने कामधेनु छीन कर परशुराम के पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। अत्याचार के प्रतिरोध में सगर द्वारा निष्कासित कई जातियों ने परशुराम का समर्थन किया। जो यवन कामधेनु के खुर से उत्पन्न हुए उनको खुरद (कुर्द) कहते हैं जो दक्षिणी तुर्की (वृष पर्वत, वृषपर्वा राज्य-Taurus Mountain) हैहयों में कई दत्तात्रेय के शिष्य थे, वे बचे रहे। तालजंघों मे कोई नहीं बचा। यहां कामधेनु का अर्थ गौ नहीं है, उत्पादन का साधन यज्ञ है। कामधेनु से उत्पन्न जातियों के वर्णन से लगता है कि पूरा बृहत्तर भारत कामधेनु का स्वरूप था। ब्रह्मवैवर्त पुराण (३/२४/५९-६४)- 

इत्युक्त्वा कामधेनुश्च सुषाव विविधानि च।

 शस्त्राण्यस्त्राणि सैन्यानि सूर्यतुल्य प्रभाणि च॥५९॥

 निर्गताः कपिलावक्त्रा त्रिकोट्यः खड्गधारिणाम्।

 विनिस्सृता नासिकायाः शूलिनः पञ्चकोटयः॥६०॥ 

विनिस्सृता लोचनाभ्यां शतकोटि धनुर्द्धराः।

 कपालान्निस्सृता वीरास्त्रिकोट्यो दण्डधारिणाम्॥६१॥ 

वक्षस्स्थलान्निस्सृताश्च त्रिकोट्यश्शक्तिधारिणाम्॥

 शतकोट्यो गदा हस्ताः पृष्ठदेशाद्विनिर्गताः॥६२॥ 

विनिस्सृताः पादतलाद्वाद्यभाण्डाः सहस्रशः। 

जंघादेशान्निस्सृताश्च त्रिकोट्यो राजपुत्रकाः॥६३॥ 

विनिर्गता गुह्यदेशास्त्रिकोटिम्लेच्छजातयः। 

दत्त्वासैन्यानि कपिला मुनये चाभयं ददौ॥६४॥ 

ऐसा ही वर्णन रामायण, बालकाण्ड, सर्ग (५४-५५), ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/२९-१८-५३ में भी है। 

कामधेनु से उत्पन्न जातियां- 

(१) पह्लव-पारस, काञ्ची के पल्लव। पल्लव का अर्थ पत्ता है। व्यायाम करने से पत्ते के रेशों की तरह मांसपेशी दीखती है। अतः पह्लव का अर्थ मल्ल (पहलवान) है। 

(२) कम्बुज हुंकार से उत्पन्न हुए। कम्बुज के २ अर्थ हैं। कम्बु = शंख से कम्बुज या कम्बोडिया। कामभोज = स्वेच्छाचारी से पारस के पश्चिमोत्तर भाग के निवासी। 

(३) शक-मध्य एशिया तथा पूर्व यूरोप की बिखरी जातियां, कामधेनु के सकृद् भाग से (सकृद् = १ बार उत्पन्न), (४) यवन-योनि भाग से -कुर्द के दक्षिण अरब के। 

(५) शक-यवन के मिश्रण, 

(६) बर्बर-असभ्य, ब्रह्माण्ड पुराण (१/२//१६/४९) इसे भारत ने पश्चिमोत्तर में कहता है। मत्स्य पुराण (१२१/४५) भी इसे उधर की चक्षु (आमू दरिया-Oxus) किनारे कहता है। 

(७) लोम से म्लेच्छ, हारीत, किरात (असम के पूर्व, दक्षिण चीन), 

(८) खुर से खुरद या खुर्द-तुर्की का दक्षिण भाग। 

(९) पुलिन्द (पश्चिम भारत-मार्कण्डेय पुराण, ५४/४७), मेद, दारुण-सभी मुख से। २१ गणतन्त्रों के लिये २-२ वर्ष युद्ध हुये। आरम्भ में ८ x ४ वर्ष युद्ध तथा ६ x ४ वर्ष परशुराम द्वारा तप हुआ। बीच का कुछ समय समुद्र के भीतर शूर्पारक नगर बसाने में लगा जिसकी लम्बाई नारद पुराण के अनुसार ३० योजन तथा ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार २०० योजन है। इसका अनुमानित समय ६००० ईपू है। रामसेतु का २२ किमी १०० योजन कहा जाता है, तो यह ४४ किमी. होगा। शूर्पारक = सूप। इस आकार की खुदई पत्तन बनाने के लिये या पर्वत का जल से क्षरण रोकने के लिये किया जाता है। इसे अंग्रेजी में शूट (Chute) कहते हैं। अतः कुल मिला कर १२० वर्ष होगा जिसका वर्णन मेगास्थनीज के समय रहा होगा।

 ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/४६)-विनिघ्नन् क्षत्रियान् सर्वान् संशाम्य पृथिवीतले।

 महेन्द्राद्रिं ययौ रामस्तपसेधृतमानसः॥२९॥

 तस्मिन्नष्टचतुष्कं च यावत् क्षत्र समुद्गमम्।

 प्रत्येत्य भूयस्तद्धत्यै बद्धदीक्षो धृतव्रतः॥३०॥ 

क्षत्रक्षेत्रेषु भूयश्च क्षत्रमुत्पादितं द्विजैः। 

निजघान पुनर्भूमौ राज्ञः शतसहस्रशः॥३१॥ 

वर्षद्वयेन भूयोऽपि कृत्वा निःक्षत्रियां महीम्। 

षटचतुष्टयवर्षान्तं तपस्तेपे पुनश्च सः॥३२॥ 

अलं रामेण राजेन्द्र स्मरतां निधनं पितुः। 

त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी तेन निःक्षत्रियाः कृता॥३४॥



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