महिला प्रगति की भारतीय धारणा

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  • 31 October 2024
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श्री अरुण  कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )- Mystic Power- भारत में महिला को कभी भोग्या नहीं माना गया। नारी को सदैव समाज में सम्मानित स्थान दिया गया है। यहां पुरुष के समान बनने की चेष्टा नहीं हुयी, पुरुष का पूरक माना गया। जो काम पुरुष नहीं कर सकता वह स्त्री द्वारा होता है। केवल मध्य युग में विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा स्त्रियों के अपहरण और बलात्कार आरम्भ हुये जिनके कारण उनको डर से घर में बन्द रहना पड़ा और शिक्षा बन्द हो गयी। कठिन शारीरिक परिश्रम या युद्ध स्त्रियों के लिये उचित नहीं है। किन्तु शिक्षा और अन्य योग्यता में कोई कमी नहीं है। शिक्षा और स्वतन्त्रता का यह अर्थ नहीं है कि निरंकुश हो कर परिवार और समाज में अव्यवस्था उत्पन्न करे। महिला प्रगति का यह अर्थ है कि उसकी प्रगति से पूरा परिवार और समाज उन्नति करे। पुरुष और नारी-दोनों की प्रगति और सहयोग से ही समाज आगे बढ़ता है। १. पत्नी के विषय में भारतीय और आसुरी धारणा-आसुरी सभ्यता में पत्नी को भोग सामग्री रूप में सम्पत्ति माना गया है। भारत में उसे पति के समतुल्य माना गया है। चण्डी पाठ में दोनों विचारों का वर्णन है। असुर राजा शुम्भ का दूत देवी को कहता है कि शुम्भ के पास बहुत से रत्न हैं, केवल देवी जैसी सुन्दर स्त्री सम्पत्ति नहीं है। देवी कहती हैं कि उनका पति वही हो सकता है जो बराबरी का हो। चण्डी पाठ, अध्याय, ५- (शुम्भ सन्देश) रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने॥१११॥ स्त्रीरत्नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम्। सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजो वयम्॥११२॥ (दुर्गा) यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति। यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥१२०॥ जो मुझे संग्राम में जीत कर मेरा गर्व भङ्ग करदे तथा मेरी बराबरी का हो, वही मेरा पति हो सकता है। वेद में पत्नी के ४ रूप कहे गये हैं, जिसका अर्थ असुर सभ्यता में लगाया गया कि एक व्यक्ति ४ पत्नी रख सकता है। ये सभी रूप एक ही पत्नी के हैं- १. महिषी-माता और पत्नी रूप, २. ववाता-घर की स्वामिनी (यह प्राचीन अरबी में था, आजकल केन्या में प्रचलित है)। ३. पालागली-इसका अर्थ दूती कहा गया है। वह पिता और पति के परिवार के बीच में सम्पर्क सूत्र है्, या २ पाला (पक्ष) के बीच गली। ४. परिवृक्ता-इसका अर्थ परित्यक्ता किया जाता है पर ऐसी स्थिति में वह पत्नी नहीं रहेगी। परिवार के अन्य ३ दायित्वों के अतिरिक्त उसका एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व भी है, जैसे शिक्षक, वकील, इंजीनियर आदि। परिवृक्ता च महिषी स्वस्त्या च युधङ्गमः । अनाशुरश्चायामि तोता कल्पेषु सम्मिता ॥१०॥ वावाता च महिषी स्वस्त्या च युधङ्गमः । श्वाशुरश्चायामि तोता कल्पेषु सम्मिता ॥११॥ (अथर्व २०/१२८) चतस्रो जाया उपक्लृप्ता भवन्ति । महिषी वावाता परिवृक्ता पालागली । सर्वा निष्किण्योऽलङ्कृताः । मिथुनस्यैव सर्वत्वाय । (शतपथ ब्राह्मण १३/४/१/८) सायण भाष्य-चतस्रो भार्याः उप समीपे क्लृप्ताः स्थिताः भवन्ति । पालागली दूतदुहिता । टिप्पणी-पत्न्यश्चायंत्यलङ्कृताः निष्किण्यो महिषी वावाता परिवृक्ता पालागलीति । (कात्यायन श्रौत सूत्र २०/१२)- प्रथम परिणीता पत्नी, वावाता वक्लमा, परिवृक्ता अवक्लमा, पालागली दूत पुत्री । चतस्रश्च जायाः कुमारी पञ्चमी…..(शतपथ ब्राह्मण १३/५/२/१-८) शतपथ ब्राह्मण (५/३/१/११-१४) में विस्तार से परिभाषा है। यहां पालागली को तोता कहा गया है, सम्पर्क के लिये अधिक बात करनी पड़ती है, अतः सुग्गे को भी तोता कहते हैं। यह श्वशुर घर के बाहर का काम है। पत्नी के रूप में सभी प्रकार के मित्रवत् कर्तव्य हैं- कार्येषु मन्त्री करणेषु दासी, भोज्येषु माता शयनेषु रम्भा। धर्मानुकूला क्षमया धरित्री, षाड्गुण्यमेतद्धि पतिव्रतानाम्॥ (गरुड पुराण, पूर्व खण्ड, आचार काण्ड, ६४/६) = कार्य प्रसंग में मंत्री, गृहकार्य में दासी, भोजन कराते समय माता, रति प्रसंग में रंभा, धर्म में सानुकुल, और क्षमा करने में धरित्री, इन छः गुणों से युक्त पत्नी मिलना दुर्लभ है । भारत में पति और पत्नी दोनों का एक ही अर्थ है-स्वामी। केवल लिंग का अन्तर है। किन्तु पाश्चात्य असुर मत में वाइफ (wife) का मूल अर्थ वेश्या या भोग की सामग्री है। अरबी भाषा में तवाफ़ का अर्थ है, परिक्रमा, सेवा। ताईफ़ = सेवा करने वाला। तवायफ़ = वेश्या। तवायफ़ से अंग्रेजी में वाईफ़ (wife) हुआ है। बाइबिल के अनुसार पुरुष का निर्माण भगवान् ने किया पर स्त्री का निर्माण मनुष्य की जांघ की हड्डी (Femur) से हुआ, अतः उसे Female कहा और उसे जीवित प्राणी नहीं मानते थे। Femur का मूल वामोरु है-विवाह में पति की वाम जंघा (वामोरु) के पास पत्नी बैठती है। जब भारत पर ब्रिटेन का शासन था तब भी यहां स्त्रियों को अधिक कानूनी अधिकार थे। ब्रिटेन में १८८२ में पहली बार स्वीकार किया गया कि स्त्रियां भी मनुष्य हैं और उनको सम्पत्ति का अधिकार है। उससे पहले स्त्रियों को भी पति की सम्पत्ति मानते थे। (Married Womans Property Act, 1882) १९१९ में उनको पहली बार मनुष्य जैसा माना गया और १९२८ में उनको मतदान का अधिकार मिला। (Sex Disqualification (Removal) Act 1919) १९७५ में पहली बार शिक्षा जीविका के लिये स्त्रियों के साथ भेदभाव बन्द हुआ। २. स्त्री शिक्षा-वेद में कई मन्त्रों की ऋषि स्त्री (ऋषिका) हैं, जिन में से लोपामुद्रा, अदिति, रोमशा, अपाला, जुहू, वागाम्भृणी, विश्ववारा, शश्वती, सूर्या, इन्द्राणी, इन्द्रमातरः, इन्द्रस्नुषा, रात्रिः, सार्पराज्ञी, यमी मुख्य हैं। मध्ययुग में भी शंकराचार्य और मण्डन मिश्र के बीच शास्त्रार्थ हुआ तो उनके बीच मध्यस्थ बनने के लिये एक ही व्यक्ति को योग्य मान गया-वह मण्डन मिश्र की पत्नी भारती थीं। शङ्कराचार्य को भी उनकी निष्पक्षता पर विश्वास था। १८ दिनों के शास्त्रार्थ में पराजित नहीं होने पर भी मण्डन मिश्र की माला सूखने के कारण उनको पराजित घोषित किया। भास्कराचार्य का गणित ग्रन्थ लीलावती उनकी पत्नी की प्रेरणा से लिखा गया था जैसे वाचस्पति मिश्र की ब्रह्म सूत्र की टीका उनकी पत्नी भामती के नाम से प्रसिद्ध है। इनको लिखने में पत्नियों ने सहयोग दिया था। ३. विवाह निर्णय-राज परिवारों में स्वयंवर की प्रथा थी जिसमें स्त्री को अपना पति चुनने का अधिकार था। रामायण में सीता का स्वयंवर, राम के पूर्वज अज के लिये इन्दुमती का स्वयंवर तथा महाभारत में द्रौपदी स्वयंवर प्रसिद्ध है। विशेष परिस्थितियों में विधवा विवाह की भी अनुमति थी। पुनर्भू का अर्थ है वह विधवा जिसने पुनर्विवाह किया हो। नारद स्मृति के अनुसार ७ प्रकारकी पत्नियां होती हैं- जिसमें पुनर्भू ३ प्रकार की तथा स्वैरिणी ४ प्रकार की हैं। ३ पुनर्भू हैं- (१) जिसका पाणिग्रहण हुआ पर समागम नहीं हुआ, उसका पुनः विवाह वैध है। (२) जो स्त्री पति के साथ रह कर उसे छोड़ दे और अन्य पति कर ले तथा पुनः मूल पति के पास लौट आये (इसका विकृत रूप इस्लाम का हलाला है)। (३) पति की मृत्यु के बाद देवर या अन्य सम्बन्धी के साथ रहे। यह नियोग है और इसमें धार्मिक कृत्य नहीं होता। युद्ध में अधिक लोगों की मृत्यु के कारण यह नियम बना था और पंजाब में इसे चादर डालना कहते हैं। द्वितीय वर होने के कारण पति के छोटे भाई को देवर कहते हैं। ४ प्रकार की स्वैरिणी दुराचार है। इसका मूल दोषी भी पुरुष को माना गया है। राजा अश्वपति ने कहा था कि उनके राज्य में कोई स्वैरी नहीं है, स्वैरिणी कहां से हो सकती है? छान्दोग्य उपनिषद् (५/११/५)-न मे स्तेनो जनपदे, न कदर्यो न मद्यपः, न अनाहिताग्निः वा अविद्वान्, न स्वैरी स्वैरिणी कुतः। ४. सती प्रथा-पति की मृत्यु के बाद विधवा के मरने की कोई परम्परा नहीं थी। भगवान् शिव की पत्नी सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में पति का अपमान सहन नहीं कर पायीं और क्रोध के कारण आत्मदाह किया। उनको किसी ने बाध्य नहीं किया था। मनुष्य हृदय में ज्ञान रूपी सरस्वती के निवास को सती कहा गया है- प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती, वितन्वताजस्य सतीं स्मृतिं हृदि। स्वलक्षणा प्रादुरभूत् किलास्यतः, स मे ऋषीणामृषभः प्रसीदतु॥ (भागवत पुराण, २/४/२२) भारत में उन स्त्रियों को महान कहा गया है जिन्होंने पति की मृत्यु के बाद भी धैर्य सहित समाज का नेतृत्व किया। उनका प्रातः स्मरण करने से महापाप दूर होता है। अहल्या द्रौपदी तारा कुन्ती मन्दोदरी तथा। पञ्चकन्याः स्मरेत् नित्यं महापातक नाशनम्॥ (ब्रह्माण्ड पुराण, ३/७/२१९-वर्तमान संस्करण में नहीं है) अहल्या का इन्द्र के साथ धोखे से सम्बन्ध हो गया था। द्रौपदी के ५ पति थे। यद्यपि विवाह युधिष्ठिर के साथ हुआ, पर उनके अन्य ४ भाइयों को भी परिवार में मिला कर रखती थी। कुन्ती ने भी पति की मृत्यु के बाद अपने तथा माद्री के सभी पुत्रों का पालन किया। तारा ने बालि के मरने पर तथा मन्दोदरी ने रावण के मरने पर अपने देवर से विवाह किया और शासन चलाया। संकट की स्थिति में साथ नहीं छोड़ा। मध्य युग में मुस्लिम अत्याचार और क्रूरता से बचने के लिये कई स्त्रियों ने युद्ध में पराजय के बाद आत्मदाह किया था। चित्तौड़ में हजारों स्त्रियों ने अलाउद्दीन खिलजी तथा अकबर के अत्याचार से बचने के लिये आत्मदाह किया था। बंगाल में अंग्रेजों को लगान वसूली का अधिकार मिलने पर उन्होंने प्रायः २० लाख व्यक्तियों की क्रूरता पूर्वक हत्या की, तथा कई स्त्रियों का अपहरण किया। इससे बचने के लिये वहां सती प्रथा अंग्रेजी शासन में ही आरम्भ हुआ जिसे समाप्त करने का वे श्रेय लेते हैं। ५. समाधान-स्त्रियों की शिक्षा में उन्नति से उनका तथा पूरे समाज को लाभ है। पर उनकी स्वाधीनता का अर्थ स्वेच्छाचार नहीं है जिनको अश्वपति ने स्वैरिणी कहा था। स्त्री हो या पुरुष, उनकी उन्नति समाज के हित में होनी चाहिये। स्त्री पुरुष के बराबर नहीं, उसकी पूरक है। युद्ध, कृषि, खान आदि में स्त्री नहीं काम कर सकती है। इन कठिन कामों में समानता की कोई मांग भी नहीं कर रहा है। किन्तु सन्तान उत्पन्न करना, उनका पालन करन तथा अच्छे संस्कार देना केवल स्त्री द्वारा ही हो सकता है। उसकी उन्नति का यह अर्थ नहीं है कि परिवार और समाज विखण्डित या संस्कार हीन हो जाये। पाश्चात्य प्रभाव तथा प्रचार द्वारा भारत को तोड़ने की योजना चल रही है जिसमें कुछ लोग विदेशी पैसा पाकर नेतृत्व ले रहे हैं। जिनको हिन्दू धर्म पालन नहीं करना है, या अपने स्थान के मन्दिर कभी नहीं जाते हैं, वे दूसरे राज्यों के मन्दिरों में प्रवेश करने तथा उनको अपवित्र करने के लिये क्यों केस या आन्दोलन कर रहे हैं? स्त्री का सम्मान होने का अर्थ उच्छृङ्खलता नहीं है। उसे शिक्षा व्यवसाय आदि में पूर्ण स्वाधीनता और सुविधा होनी चाहिये। एक अमेरिकन दार्शनिक एमर्सन ने कहा था कि स्त्रियां पुरुषों से श्रेष्ठ हैं, अतः उनके द्वारा समानता की मांग मूर्खता पूर्ण है। जन्म के समय स्त्री में जीवनी शक्ति अधिक होती है। वह धैर्य का काम अधिक कुशलता पूर्वक कर सकती है। बच्चों का जन्म तथा उनके पालन का कष्ट और परिश्रम वही उठा सकती है। स्त्री को भोग विलास का साधन नन्हीं समाज की उन्नति का एक आवश्यक अंग मानना चाहिये। भोग की वस्तु दिखाने के विज्ञापन बन्द होने चाहिये। स्त्री के आर्थिक तथा मानविक अधिकारों की रक्षा हो जिससे वह पूरी दक्षता से अपनी तथा परिवार की उन्नति कर सके। जननी का सम्मान होने से ही जन्मभूमि का सम्मान हो सकता है।



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