श्री रामलाल
Mystic Power- देवता, पुण्यक्षेत्र और तोर्य आदि तो घोरे-धीरे बहुत दिनो में पवित्र करते हैं, पर महात्मा अपनी दृष्टि से ही पवित्र कर देते है।'
- श्रीमद् भागवत
महात्मा जडभरत पूर्व जन्म में रार्जाप भरत थे। राषि भरत के नाम से हमारा देश 'भारतवर्ष' या 'भरतखण्ड' नाम से प्रसिद्ध है। राजर्षि भरत भगवान के परम भक्त थे, वे भक्तियोगी थे, तपोनिष्ठ और विरक्त थे। अगणित वर्षों तक राज्य-सुख भोगते और प्रजा का यथोचित पालन करने के बाद उन्होंने वैराग्य ले लिया और पुलह ऋषि के आश्रम हरिक्षेष में आकर रहने लगे।
गण्डकी नदी के तट पर इस पवित्र आश्रम में रहकर वे श्रीभगवान की आराधना करने लगे। एक दिन वे गण्डकी के तट पर बैठ कर नित्य-नैमित्तिक कर्म-समाप्त कर प्रणव का जप कर रहे थे। उन्होंने एक हरिणी को नदी के तट पर जल पीते देखा, वह अपनी टोली से विछुड कर उस स्थान पर आ गयी थी। सिंह के दहाडने से भयभीत होकर एक ही छलाग के सहारे वह उस पार जाने की चेष्टा कर रही थी कि उसके गर्भ का बच्चा गिर पडा, नदी के प्रवाह में आ गया, हरिडी ने एक गुफा में जाकर प्राण त्याग दिया।
राजर्षि भरत का हृदय इन दृश्यों से द्रवित हो गया। उन्होंने मृग के बच्चे को गोद में उठा लिया और आश्रम में लाकर बड़े स्नेह से उसका पालन-पोषण किया। मृग-शावक में उनकी इतनी आसक्ति बढ गयी कि वे रात-दिन उसी के सुख की बात सोचते थे। एक दिन वह मृगछौना अदृश्य हो गया। मृग की भावना मन में विशेष रूप से परिपुष्ट होने पर राजपि भरत दूसरे जन्म में मृगयोनि में प्रकट हुए। उन्हें पूर्व जन्म की घटनाओं का स्मरण था इसलिये मृग-आसक्ति की बात से उनके मन में वैराग्य का उदय हुआ।
शालग्राम क्षेत्र में ही जाकर निवास किया, मृत्यु-काल उपस्थित होने पर गण्डकी में स्नान कर उन्होंने मृगशरीर छोड दिया और अगले जन्म में जडभरत के रूप में एक पवित्र ब्राह्मण कुल में शरीर धारण किया। उनका जन्म आागिरस गोत्र में हुवा। उनके पिता उन्हें बहुत मानते थे। जड- भरत जन्मजात विरक्त थे। स्वजनों के संग से वे अपने आपको बहुत दूर रखते थे। उन्हें पूर्वजन्म की आसक्ति का स्मरण या इसलिये दूसरों की दृष्टि में अपने आपको पागल सिद्ध करने में तया उन्मत्त की तरह रहने में ही उन्होने आत्मकल्याण समझा। असकत्ता को उन्होंने अपने जीवन का अलंकार बना लिया। उनके पिता उनमें आत्मा की तरह अनुराग करते थे। वे शम, दम, तप, संतोष, क्षमा, पेर्माचरण आदि में रत थे, उन्होने अपने पुत्र का यज्ञो- पवीत-संस्कार सम्पन्न करने का निश्चय किया। यथासमय जडभरत का उपनयन-सस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न हुआ पर वे आत्मनिष्ठ थे इसलिये जान-बूझकर पिता को शिक्षा के विपरीत आचरण किया करते थे। ब्राह्मण ने अपने पुत्र को वेदाध्ययन कराना चाहा पर जडभरत दीर्घकाल तक स्वर सहित गायत्री मन्त्र का उच्चारण तक न कर सके। कुछ समय के बाद जडभरत के पिता का देहान्त हो गया और उसके बाद ही जडभरत तथा उनकी बहिन को सौतेली माता को सौंप कर उनकी माता ने स्वर्ग की यात्रा की।
माता-पिता के परलोक-गमन के बाद जडभरत को अपना आत्म - ज्ञान परिपक्व करने का सुन्दर अवसर मिल सका। वे पूर्ण रूप से शारीरिक सम्वन्ध से निर्बन्ध हो गये, सदा स्व के परिशीलन में ही लगे रहते थे। संसार का नश्वर और मायिक रूप उन्हे अपनी ओर आकृष्ट न कर सका। वे सदा मौन रहते थे। यदि कोई व्यक्ति उनसे कुछ पूछता था तो गवारो की तरह उत्तर दे दिया करते थे। वे अपने शरीर को जान-बूझकर साज शृगार से बहुत दूर रखते थे। सदा मैले-कुचले वस्त्र पहना करते थे इससे लोग उन्हे अपने पास तक बैठाने में संकोच करते थे। वे सम्मान को विष और अपमान को अमृत मानते थे। उनकी दृढ धारणा थी कि ऐसा करने से वे निविघ्न योगसाधना में आत्मोपासना कर सकेगे ।
वे जन-साधारण में अपने आपको उन्मत्त और जड-सा प्रकट करते थे। भीगे हुए चने, उडद, साग, जगली फल और सामयिक अन्न के दाने से अपनी भूख शान्त कर लिया करते थे। माता-पिता की मृत्यु के बाद उनके भाइयो तथा अन्य परिवारवालो ने उनसे खेती-वारी का काम कराना आरम्भ किया और उनके दिये हुए सडे-गले अन्न से वे अपने शरीर का पोषण करते थे। वे बैल की तरह खेती का काम किया करते थे, भोजन मात्र ही उनका वेतन था। लोग थोडी ही मजदूरी में उनसे अपना काम निकलवा लिया करते थे। लोगों के काम तुरन्त कर दिया करते थे। वे आत्मानन्द में ही सदा मग्न रहते थे, किसी की निन्दा, स्तुति और गाली-प्रशंसा की तनिक भी चिता नही करते थे। प्रकृति से उत्पन्न किसी भी वस्तु में उनका राग अथवा द्वेष नही था। भूमि पर सोते थे, कई दिनो के बाद कभी-कभी स्नान कर लिया करते थे, देह पर मैल जमे रहने की ओर उनका ध्यान नही था, एक मैला वस्त्र पहनते थे, मैला यज्ञोपवीत धारण करते थे। सिर और दाढी के बाल सदा बढ़े रहते ये, पागल और उन्मत्त की तरह उनके समस्त आचरण थे। उनके भाइयों ने उन्हें खेत की क्यारी ठीक करने के काम पर लगा दिया। वे अपनी स्थिति में सतुष्ट रहते थे। आत्मचिंतन ही उनका परम धन था।
एक दिन दस्युओं और लुटेरों के सरदार ने सन्तान की कामना से भद्रकाली को नरवलि देने का सकल्प किया। जो मनुष्य इस कार्य के लिये पकड़ा गया था वह भाग गया। लुटेरे उस आदमी को बडी तत्परता से खोज रहे थे कि उन्होने अधेरी रात में खेत की रखवाली करते हुए जडभरत को देखा। वे हृष्ट-पुष्ट और बलि के सर्वथा योग्य थे, एक पैर पर खड़े होकर हरिन, सूअर आदि जानवरो से खेत की रखवाली कर रहे थे। लुटेरों ने जडभरत से 'चलो' कहा, उन्मत्त अवधूत ने 'चलो' उन्हो की बात दोहरायी। वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होने निश्चित स्थान पर जडभरत को ले जाकर स्नान कराया, धूप-दीप-गन्ध से उनकी पूजा की, पुष्पों की माला पहनायी, मस्तक में तिलक-रचना की। अनेक प्रकार के मृदंग आदि वाजे वजाते हुए उन्होने जडभरत को भद्रकाली के सामने विठा दिया। पुरोहित ने उनकी रक्तरूपी वारुणी से देवी को तृप्त करने के लिए नंगी तलवार खीच ली। वलि का समय उपस्थित ही था कि देह की आसक्ति से परे जडभरत के आत्मतेज के रूप में भद्रकाली मूति में साकार हो उठी, उन्होने भयंकर शब्दो में गरज कर पुरोहित के हाथ से तलवार छीन ली, क्षणमात्र में दुष्टो का संहार कर भद्रकाली ने जडभरत के प्राणो की रक्षा की। जडभरत को तो ऐसा लगा कि कुछ हुआ ही नहीं। वे पहले की तरह अपने काम में लग गये, आत्मोपासक को देह-वल से किसी भी स्थिति में पराजित नहीं किया जा सकता है। आत्मवल को ही सदा विजय होती है, आत्मा में सत्य का अधिवास रहता है, सत्यसम्वलित आत्मा का पतन नितान्त असम्भव है।
सिन्धु सोवीर नरेश रहूगण आत्मज्ञान की पिपासा शान्त करने के लिये एक बार कपिल मुनि के आश्रम में जा रहे थे। वे वडे शान्तं और उदार प्रकृति के पुरुष थे। पालकी में चढ कर जा रहे थे कि इक्षुमती नदी के तट पर पहुँचते-पहुँचते पालकी ढोने के लिये एक नये कहार की आवश्यकता पड गयी। अवधूत जडभरत दैवयोग से वहां पहुंचे। कहारो ने उनको स्वस्थ और मोटा-ताजा देख कर पालकी ढोने में लगा दिया। जडभरत मात्मज्ञानी महात्मा थे, उन्होंने सोचा कि किसी प्रारब्ध के भोग के लिये मुझे पालकी में लगाया गया है। वे बडी प्रसन्नता से पालकी ढोने लगे।
श्रीमद्भा ५-११-६
गुणानुरवत व्यसनाय जन्तो क्षेमाय नर्गुण्यमथो मन स्यात् ।
यथा प्रदीपो घृतर्वात्तमश्नन् शिखा सधूमा भजति ह्यन्यदा सदा ।।
विषयासक्त मन जीव को ससार-सकट मे डाल देता है, विषयहीन होने पर वही उसे शान्तिमय मोक्षपद प्राप्त कराता है। जिस प्रकार घी से भीगी बत्ती को खाने वाले दीपक से तो धूमवाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है तव वह अपने कारण अग्नितत्व में लीन हो जाता है, इसी प्रकार विषय और कर्मों से आसक्त हुआ मन तरह-तरह की वृत्तियो का आश्रय लिये रहता है और इनसे मुक्त होने पर वह अपने तत्व में लीन हो जाता है।
श्रीमद्भा. ५-११-८
ज्ञान विशुद्ध परमार्थमेक मनन्तरत्व बहिर्ब्रह्म सत्यम् । प्रत्यक् प्रशान्त भगवच्छब्दसज्ञ यद् वासुदेव कवयो वदन्ति ।। रहगणैतत्तपसा न याति न चेज्यया निर्वपणाद् गृहाद्वा ।
न च्छन्दसानंव जलाग्निसूर्ये विना महत्पादरजोऽभिषेकम् ।।
विशुद्ध, परमार्थ रूप, अद्वितीय तथा भीतर-वाहर के भेद से रहित परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु है। वह सर्वान्तर्वर्ती और सर्वथा निविकार है। वही भगवान है, वासुदेव है।
महापुरुषों की चरण-धूलि से अपने को नहलाये बिना केवल तप, यज्ञादि वैदिक कर्म, अन्नादि के दान, अतिथि सेवा, दीन-सेवा आदि गृहस्थोचित धर्मानुष्ठान, वेदाध्ययन अथवा जल, अग्नि, या सूर्य की उपासना या किसी भी साधना से यह परमात्मज्ञान प्राप्त नही हो सकता।
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