डॉ. मदन मोहन पाठक (धर्मज्ञ)
Mystic Power- जीवन में उपासना का विशेष महत्त्व है। जब मनुष्य अपने जीवन का वास्तविक लक्ष्य निर्धारित कर लेता है, तब वह तन-मन-धन से अपने उस लक्ष्य की प्राप्ति में संलग्न हो जाता है। मानव का वास्तविक लक्ष्य है भगवत्प्राप्ति। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये उसे यथा साध्य संसार की विषय-वासनाओं और भोगों से दूर रहकर भगवदाराधन एवं अभीष्टदेव की उपासना में संलग्न होने की आवश्यकता पड़ती है। जिस प्रकार गंगा का अविच्छिन्न प्रवाह समुद्रोन्मुखी होता है, उसी प्रकार भगवद्गुण-श्रवण के द्वारा द्रवीभूत निर्मल, निष्कलंक, परम पवित्र अन्तःकरण का भगवदुन्मुख हो जाना वास्तविक उपासना है-
मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये । मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ।।
(श्रीमद्भा० ३ । २९ । ११)
इसके लिये आवश्यक है कि चित्त संसार और तद्विषयक राग-द्वेषादि से विमुक्त हो जाय। शास्त्रों और पुराणों की उक्ति है-‘देवो भूत्वा यजेद् देवान् नादेवो देवमर्चयेत्।’ देव-पूजा का अधिकारी वही है, जिसमें देवत्व हो। जिसमें देवत्व नहीं, वास्तव में उसे देवार्चन से पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं होती। अतः उपासक को भगवदुपासना के लिये काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या, राग-द्वेष, अभिमान आदि दुर्गुणों का त्यागकर अपनी आन्तरिक शुद्धि करनी चाहिये। साथ ही शास्त्रोक्त आचार-धर्म को स्वीकार कर वाह्य शुद्धि कर लेनी चाहिये, जिससे उपासक के देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार तथा अन्तरात्मा की भौतिकता एवं लौकिकता का समूल उन्मूलन हो सके और उनमें रसात्मकता तथा पूर्ण दिव्यता का आविर्भाव हो जाय। ऐसा जब हो सकेगा, तभी वह उपासना के द्वारा निखिल रसामृतमूर्ति सच्चिदानन्दधनभगवत्स्वरूप की अनुभूति प्राप्त करने में समर्थ हो सकेगा। यहाँ शास्त्रों में वर्णित देवोपासना की कुछ विधियाँ – प्रस्तुत की जा रही हैं-
नित्योपासनामें दो प्रकारकी पूजा बतायी गयी है-
१-मानसपूजा और २-बाह्यपूजा। साधक को दोनों प्रकार को पूजा करनी चाहिये, तभी पूजा की पूर्णता है। अपनी सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार बाह्यपूजा के उपकरण अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा-भक्तिपूर्वक निवेदन करना चाहिये। शास्त्रों में लिखा है कि ‘वित्तशाठ्यं न समाचरेत्’ अर्थात् देव- पूजनादि कार्योंमें कंजूसी नहीं करनी चाहिये। सामान्यतः – जो वस्तु हम अपने उपयोग में लेते हैं, उससे हल्की वस्तु अपने आराध्य को अर्पण करना उचित नहीं है। वास्तवमें – भगवान्को वस्तु की आवश्यकता नहीं है, वे तो भाव के भूखे हैं। वे उपचारों को तभी स्वीकार करते हैं, जब निष्कपटभाव से व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा और भक्ति से निवेदन करता है।
बाह्य पूजा के विविध विधान हैं, यथा-राजोपचार, – सहस्रीपचार, चतुःषष्ट्युपचार, पोडशोपचार और पंचोपचार- पूजन आदि। यद्यपि सम्प्रदाय-भेदसे पूजनादि में किंचित् भेद भी हो जाते हैं, परंतु सामान्यतः सभी देवों के पूजन की विधि समान है। गृहस्थ प्रायः स्मार्त होते हैं, जो पंचदेवों की पूजा करते हैं।
पंच देवों में १-गणेश, २-दुर्गा, ३-शिव, ४- विष्णु और ५-सूर्य हैं। ये पाँचों देव स्वयं में पूर्ण ब्रह्मस्वरूप है। साधक इन पंचदेवों में एक को अपना इष्ट मान लेता है, जिन्हें वह सिंहासन पर मध्य में स्थापित करता है। फिर यथालब्धोपचार विधि से उनका पूजन करता है।
भगवत्पूजा अतीव सरल है, जिसमें उपचारों का कोई विशेष महत्त्व नहीं है। महत्त्व भावना का है। उस समय – जो भी उपचार उपलब्ध हो जायें, उन्हें श्रद्धा भक्तिपूर्वक निश्छल दैन्यभाव से भगवदर्पण कर दिया जाय तो उस पूजा को भगवान अवश्य स्वीकार करते हैं-
पत्रं पुष्यं फलं तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छति ।
भक्त्युपहतमश्नामि प्रयतात्मनः ।। (गीता १। २९)
अर्थात् जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेम से पत्र, पुष्प,फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि, निष्कामन प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्प आदि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूं।