केदारनाथ का भूमि-चयन

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  • 31 October 2024
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अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ) २०१३ में केदारनाथ के प्रलयंकारी बाढ़ में पूरा नगर बह गया था तथा ५,००० से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हुई थी। किन्तु केदारनाथ का मन्दिर बचा रहा। उसके पीछे की भीम-शिला ने उसे बचा लिया। यह अद्भुत तथा उपयुक्त भूमि चयन जनमेजय शासन के २९वें वर्ष में हुआ था। उनके पिता राजा परीक्षित की हत्या तक्षशिला के नागवंशी राजा ने की थी जिसे तक्षक नाग कहा गया है। परीक्षित का शासन २५-८-३१०२ ईपू से आरम्भ हुआ जब सूर्य सिद्धान्त मत से जय संवत्सर आरम्भ हुआ, तथा पाण्डव अभ्युदय के लिए स्वर्गारोहिणी चोटी गये (यमुनोत्री के पश्चिम ओसला के लिकट-पर्वतीय नार्वे शीतस्थान के लिए नोर्गे या नर्क है, वहां भी ओस्लो है)। अतः इसे जयाभ्युदय शक कहते हैं। इस शक में जनमेजय के वंशज ओड़िशा राजाओं के प्रायः ३०० दान-पत्र प्रकाशित हैं। वराहमिहिर ने कुतूहल मञ्जरी में भी अपनी जन्म तिथि इसी शक में दी है-युधिष्ठिर के जयाभ्युदय शक ३०४२ चैत्र शुक्ल अष्टमी, अर्थात् ६-३-९५ ईपू। परीक्षित की हत्या समय जनमेजय बालक थे। वयस्क होने पर तैयारी की तथा २८ वर्ष बाद नाग राज्य पर आक्रमण किया। जिस स्थान पर पहली बार पराजित किया वहां गुरु गोविन्द सिंह जी ने राम मन्दिर बनवाया था जिस पर लिखा था कि जनमेजय ने २ नगरों को श्मशान बना दिया था। इनके नाम ही श्मशान पर हो गये-(१) मोइन-जो-दरो = मृतकों का स्थान, (२) हड़प्पा = हड्डियों का ढेर। इसके बाद ऋषियों ने नर संहार बन्द कर प्रायश्चित करने के लिए कहा। २७-११-३०१४ ईपू, अर्थात् जयाभ्युदय शक ८९, पौष अमावास्या को जब सूर्य ग्रहण था तब इन्द्रप्रस्थ राजधानी से जनमेजय ने केदारनाथ में गोस्वामी आनन्द लिंग जंगम के शिष्य ज्ञानलिंग जंगम के उषा-मठ के लिए भूमिदान किया था। उसी दिन किष्किन्धा राजधानी से शृङ्गेरी निकट तुङ्गा नदी तट पर राम मन्दिर के लिए भी भूमिदान किया था। इस तिथि को ग्रहण की पुष्टि २००७ में अमेरिका के डलास में आयोजित सम्मेलन में हुयी थी जो २००८ में प्रकाशित इस पुस्तक में है- Astronomical Dating of Events & Select Vignettes from Indian History, Volume I, Edited and compiled by Kosla Vepa, Published by- Indic Studies Foundation, 948 Happy Valley Rd., Pleasanton, Ca 94566, USA इन २ दान पत्रों सहित जनमेजय के ५ दान पत्र मैसूर ऐण्टीकुअरी के जून १९०१ अंक में रिचर्ड टेम्पल द्वारा प्रकाशित हुए थे। इनमें तिथि-वार-नक्षत्र-योग-करण, मास तथा वर्ष बीच में दिए थे, अतः अंग्रेज इनकी तिथि नष्ट नहीं कर सके। अतः केवल ग्रहण गणना के आधार पर कोलब्रुक ने इनका समय ब्रिटेन के राजकीय ज्योतिषी जी बी ऐरी से ७-४-१५२१ निर्धारित कराया। ग्रहण चक्र १८ वर्ष १०.५ दिन का होता है (राहु-सूर्य की संयुक्त गति)। इसके अर्ध चक्र ३३३९ तिथि में भी ग्रहण उसी क्रम में पुनः होते हैं, अतः दीर्घकालीन गणना इससे सम्भव नहीं है। पर अंग्रेज इस प्रकार की जालसाजी करते रहते हैं। ग्रहण चक्र का उल्लेख ऋग्वेद (३/९/९) में है- त्रीणि शता त्री सहस्राण्यग्निं त्रिंशत् च देवाः नव चासपर्यन्। केदारनाथ दान-पत्र निम्नलिखित है। इसी शैली का अनुकरण ओड़िशा के सभी पाण्डुवंशी राजाओं ने किया था। स्वस्तिश्री जयाभ्युदये युधिष्ठिरशके प्लवङ्गाख्ये एकोननवतितम (८९) वत्सरे सहसि मासि अमावास्यायां सोम वासरे श्रीमन्महाराजाधिराज परमेश्वर वैयाघ्रपाद गोत्रज श्री जनमेजय भूपो इन्द्रप्रस्थ नगरी सिंहासनस्थः सकल वर्णाश्रम धर्म प्रतिपालको उत्तर हिमालये श्री केदारक्षेत्रं तत्रत्य मुनयः उषामठस्य श्रीगोस्वामि आनन्दलिंग जंगमाय श्रीमच्छिष्य ज्ञानलिंग जंगम द्वाराराधित श्रीकेदारनाथस्य पूजार्थं दत्तवन्तः चतुःसीमा परिमिति क्रमः॥ पूर्वभागे दक्षिण वाहिनी मन्दाकिनी । पश्चिम दक्षिण भागे क्षीर गङ्गा उत्तर पश्चिमे मधु गङ्गा, पूर्वोत्तर भागे स्वर्ग-द्वार नदी, दक्षिणे सरस्वती, मन्दाकिन्योः संगमः, एतन्मध्ये श्रीकेदारक्षेत्रं भवच्छिष्य परम्परया चन्द्रार्क पर्यन्तं निधि निक्षेप जल पाषाणा-गामि सिद्ध साध्य तेजः स्वाम्य सहितं स्वबुद्ध्याऽनुकूल्येनाऽ स्मन्मातृपितृणां शिवलोक प्राप्त्यर्थं श्रीकेदार सन्निधौ उपराग समये सहिरण्य मन्दाकिनी जलधारा पूर्वकं क्षेत्रमिदं हस्ते दत्तवानस्मि । एतद्धर्म साधनस्य साक्षिणः ॥ श्लो.- आदित्यचन्द्रावनिलोऽनलश्च द्यौर्भूमिरापो हृदयं यमश्च । अहश्च रात्रिश्च उभे च सन्ध्ये धर्मश्च जानाति नरस्य वृत्तं॥२॥ दानपालनयोर्मध्ये दानाच्छ्रेयोऽनुपालनं। दानात्स्वर्गमवाप्नोति पालनाद्विगुणंफलं॥ स्वदत्ताद् द्विगुणं पुण्यं परदत्तानुपालने। परदत्तापहारेण स्वदत्तं निष्फलं भवेत्॥ मद्दत्ता पुत्रिका ज्ञेया पितृदत्ता सहोदरी। अन्यदत्ता तु जननी दत्तभूमिं परित्यजेत्॥ अन्यैस्तु छर्दितं छद्वे श्वभिश्च छर्दितं न तु। ततः कष्टो ततो नीचः स्वदत्तापहारकः॥ स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेत यः। षष्टिवर्षसहस्राणि विष्टायां जायते कृमिः॥ उपराग (अमावास्या को सूर्य ग्रहण), जल-पाषाण-अगामि (जल प्रवाह से पाषाण द्वारा सुरक्षित) उल्लेख है। यहां मन की प्रवृत्ति के १४ साक्षी कहे गये हैं-सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, आकाश, भूमि, जल, हृदय, यम, दिन, रात्रि, २ सन्ध्या, धर्म (आचार प्रभवः धर्मः)। शान्ति-पाठ में भी मन रूपी अग्नि की जिह्वा १४ (मनु = १४) कही गयी है। अग्नि-जिह्वा मनवः सूर-चक्षसो विश्वेनो देवा अवसा गमन्निह। (ऋग्वेद, १/९८/७, यजुर्वेद, २५/२०) काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्र-वर्णा। स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः॥ (मुण्डकोपनिषद्,१/२/४) वाल्मीकि रामायण, उत्तर काण्ड (९७/८-८) में भी सीता जी की शपथ के समय १४ प्रकार के साक्षी उपस्थित थे। आजकल इनको संक्षिप्त कर २ से काम चलाते हैं-यावत् चन्द्र दिवाकरौ।



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