(लेखक-पूज्यपाद स्वामीजी श्री भोले बाबाजी)
Mystic Power- परिचय चिना प्रतीति नहि, बिना प्रेम नहि ध्यान। नाव चलै नहिं जल बिना, गुरु बिनु होय न ग्यान ॥
साधक- भाई मन! तू तो बड़ा ही दुष्ट है, अत्यन्त चंचल है, प्रबल और ढीठ है। कहीं राज्य का लोभ देकर गुलामी करवाता है, कभी ऐश्वर्य का लालच दिखाकर घास कटवाता है, कहीं धन की ध्वनि सुनाकर धनियों के पैर दबवाता है, किसी की ऋषि-सिद्धि में फाँसकर पानी भरवाता है; जैसे कुत्ते को रोटी का टुकड़ा दिखाते हुए चाहे जितनी दूर ले जाया जाय, ऐसे ही विषय-भोगों में आसक्त करके न मालूम तू कितने जन्मों से कितनी योनियों में मुझे भटका रहा है! तुझसे छुटकारा पाने का कोई उपाय दिखलायी नहीं देता। तू हवा से भी तेज दौड़ता है, क्षण भर में चौदह लोकों में घूम आता है।
जाग्रत् में ही नहीं, स्वप्न में भी चुप होकर नहीं बैठता। जन्म भर में कभी देखे-सुने नहीं, ऐसे-ऐसे अनोखे पदार्थ रच लेता है। भजन करने को बैठता हूँ तो और भी अधिक भागता है। बहुतेरा रोकता हूँ, रुकता नहीं। मन्त्र में लगाता हूँ तो बिना सिर-पैर के मनोराज्य करने लगता है।
भगवान का ध्यान करना चाहता हूँ तो भागा-भागा फिरता है। राम-राम जपता हूँ तो ग्राम-ग्राम में घूमता है। घर-बाहर के, कचहरी दरबारके सब झगड़े भजनमें लाकर खड़े कर देता है। तंग आ गया हूँ, तुझ पापी से कब पीछा छूटेगा ? जब देखो तब एक-न-एक चिन्ता में ही डाले रखता है। एक घड़ी भी सुख की नींद नहीं सोने देता। मैं संसार से मुक्त होना चाहता हूँ, तू मुझे लौटा लौटाकर उसी में डालता है।
भूत के समान सदा मुझ पर सवार रहता है! सत्संग में जाना चाहता हूँ तो गंजीफ़ा, चौसर, शतरंज में लगा देता है। स्वाध्याय करना चाहता हूँ तो उपन्यास सामने लाकर रख देता है। गीता पढ़ने बैठता हूँ तो कहता है घर में दाल नहीं है, घी नहीं है, मिर्च-मसाला निपट गया है, जलाने को लकड़ियों नहीं हैं; मंडी का समय है, नाज भी निपटने वाला है, चलो, ले आओ, इस समय पाव भर अधिक मिल जायगा, गीता फिर पढ़ लेना, यह तो रोज का गीत है; पेट-पूजा भी तो प्रधान है, सब उसके पीछे हैं। देवी-देवता भी इसी से प्रसन्न होते हैं। गीता पढ़ने को दिन भर पड़ा है, रात भी बड़ी बड़ी होती है; मंडी का समय निकला जाता है। ऐसो ऐसी तेरी बातोंसे तंग आ गया हूँ। तेरा सत्यानाश हो जाय।
तूने मेरा सर्वस्व नाश कर दिया है। स्वभावसे मैं सुखी हूँ, तेरे संगमें दुःख पाता हूँ। पवित्र होकर भी तेरे संगसे पापी कहलाता हूँ। अचल भी तेरे संगसे चल बन गया हूँ। बृहत् होकर भी तेरे संगसे अणु हो गया हूँ। असंग होनेपर भी तेरे संगसे कर्ता-भोक्ताकी उपाधि मेरे सिर मढ़ी गयी है। स्वतन्त्र होकर भी परतन्त्र और मुक्त होकर भी तेरे संगसे बन्धनमें पड़ा हूँ। तृप्त होकर भी भूखा बना रहता हूँ। निर्भय होकर भी भयभीत हूँ। नहीं जन्मता हुआ भी जन्मता हूँ, अमर होकर भी मर रहा हूँ। कहाँतक रोऊँ? तेरे संगसे तंग हूँ। तुलसीदासजीने सच कहा है-
बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ विधाता ॥ अच्छा! मैं तुझसे ही इन्साफ कराता हूँ, तुझे ही न्यायाधीश बनाता हूँ; बोल, जो कुछ मैं कहता हूँ, ठीक है या नहीं?
मन-वाह! साहब, वाह! अच्छी उलटी गंगा बहायी !
करना आप, लगाना लड़के को! ऐसी समझ है, तभी तो आप तंग हो रहे हैं! आपने जितनी बातें कही हैं, सब झूठी हैं। निर्मूल हैं। दूसरे को दोष लगाना बड़ा भारी पाप है। सोच-विचार कर बोलना चाहिये। आप अच्छे, मैं बुरा ! बुरेने अच्छे को बिगाड़ दिया, कहीं ऐसा भी हो सकता है? क्या गुरुजी से यही पढ़ा है? रोज तो सुना करते हैं कि बुरा बुरा ही रहेगा, अच्छा अच्छा ही रहेगा। बुरा अच्छा नहीं हो सकता, 'अच्छा बुरा नहीं हो सकता। जैसे दिन- रात का मेल नहीं होता, ऐसे ही अच्छे-बुरे भी मिल नहीं सकते। सोना खोटा नहीं हो सकता। जैसा कारण होता है, वैसा ही कार्य भी होता है। सजातीय का सजातीय से ही मेल हो सकता है, विजातीय का नहीं हो सकता। फिर मैंने आपको सुखी से दुःखी कैसे बना दिया? आप मुझे दुष्ट, चंचल, बलवान् और ढीठ बताते हैं; मैं इनमें से एक भी नहीं हूँ। यदि हूँ तो आपका बनाया हुआ ही हूँ। मैं तो सरल, अबल, लँगड़ा और बेपेदी का लोटा हूँ। बिना कौड़ी पैसे का नौकर हूँ, बिना दाम का खरीदा हुआ गुलाम हूँ। वचन में बंधा हुआ हूँ, इशारे पर काम करता है। जो वस्तु आप माँगते हैं, वही लगाकर देता हूँ। जहाँ खड़े होने को कहते हैं, वहीं एक टाँग से खड़ा रहता हूँ। आपको रुचि के अनुसार काम करता हूँ, आपकी रुचि बिना कोईकाम नहीं करता। जब आप कहते हैं, तभी चलता हूँ। आपके दिये हुए पैरोंसे चलता हूँ। नहीं तो मेरे पैर हैं ही नहीं। लंगड़ा हूँ, जड हूँ, बल भी मुझमें नहीं है, यदि है तो आपका दिया हुआ है-
मैं तो बलहीन हूँ। अबला के पुत्रमें बल आवे ही कहाँसे? आपकी बुद्धि विपरीत हो रही हैं, इसलिये आपको कुछ-का-कुछ दिखायी दे रहा है। ढिठाई कैसे कर सकता हूँ? ढिठाई तो वह करे जिसमें बल हो, बल पेंदी में होता है, मैं बिना पेंदी का हूँ। फिर ढोठता करूँ ही कैसे ? पक्षपात न कीजिये, पक्षपातरहित होकर विचारिये। आप स्वभाव से भले ही निर्दोष हों; मैं आपको दोषी नहीं बताता; आप निर्दोष सही। परन्तु दोषी मैं भी नहीं हूँ। यदि हूँ तो आप पहले होंगे। कारण से कार्य भिन्न नहीं होता।
जैसे आप हैं, वैसा ही में भी हूँ। आपमें से ही तो निकला हूँ। फिर दोषी कहाँ? कहीं आसमान में से तो टपक नहीं पड़ा। आपका बनाया हुआ हूँ। आपने ही मुझसे संग किया है। जो-जो भोग आप माँगते हैं, मैं लाकर मौजूद कर देता हूँ! जो-जो योनि आपको पसंद होती है, वहीं मैं आपको ले जाता हूँ। आप कहते हैं कि भजन नहीं करने देता। भजन करना आप चाहते ही कब हैं? धनमें, स्त्री में, पुत्र में, ऐश्वर्य में, नाम में, कोर्ति में, ऋद्धि- सिद्धि में, जुएमें, चोरी में, व्यभिचार में, मांस में, मदिरा में, बीड़ी में चुस्ट में, अफ़ीम में, भंग में, चरस में, गाँजे में, मीठे में, नमकीन में, चटपटे में आपकी रुचि है; इनसे आपको फुरसत ही कहाँ है ? दिन-रात में इन्हीं का तो भजन किया करते हैं, फिर ईश्वरका भजन कहाँसे हो ?
जो खायगा, उसी की डकार आवेगी। फोनोग्राफ में जो राग भरा जायगा, वही निकलेगा। कुँजड़े के यहाँ तो साग-पात ही मिलेगा, जवाहरात तो जौहरी की दूकान पर ही मिलेंगे। जैसी आपकी रुचि होती है, वैसा ही में भी बन जाता हूँ। नौकर को क्या उज्र ? 'जों हाँ' करना नौकर का काम है। चौबेजी का नौकर हूँ, बैंगनों का नौकर तो हूँ नहीं; चौबेजी बैंगनों को अच्छा बताते हैं तो मैं उन्हें गुणवाला बना देता हूँ। चौबेजी को बैंगन नापसंद हों तो मैं उन्हें बेगुन (गुणरहित) कह देता हूँ। 'पौड़े जी, तुम्हें ग्राम में रहना; ऊँट बिलैया ले गयी तो हाँ जी हाँ जी कहना।' सुनिये, आपकी राजी में मेरी राजी है। आप स्वाध्याय कीजिये, प्रणिधान कीजिये, आसन लगाइये, प्राणायाम कोजिये। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि कीजिये।
रामनाम का जाप कीजिये; नवधा, प्रेमा, पराभक्ति कीजिये
श्रवण, मनन, निदिध्यासन कीजिये। शंकरकी, कृष्णको, रामकी मूर्तिका ध्यान कीजिये। जो कुछ आप चाहें, प्रेमसे कीजिये। आप स्वतन्त्र हैं। मैं आपको रोकनेवाला कौन हूँ? मैं तो कान पकड़ी खेरी हूँ; जिधर लगा देंगे, उधर लग जाऊँगा। जब आप संसारसे मुक्त होना चाहें, मुझे घर बैठनेकी आज्ञा दे देना ! नौकरकी जड़ जमीनसे साढ़े तीन हाथ ऊँची होती है; जहाँ आपने जीभ हिलायी, अलग जा बैठूंगा। परमात्मा करे, आप मुक्त हो जायें; बड़ी खुशीकी बात है। आप मुक्त हो जायेंगे तो मैं भी मुक्त हो जाऊँगा। आपके आश्रय ही तो मैं हूँ, आपके साथ मेरी भी मुक्ति हो जायगी। सच पूछो तो मुक्ति तो मेरी ही होगी, आप तो स्वभावसे मुक्त हैं हो।
साधक- (एकान्तमें जाकर) भाई कहता तो ठीक ही है। जैसे पुरुष को छाया होती है, वैसा ही जीव का मन है। जैसा पुरुष होता है, वैसी ही उसको छाया होती; जैसा मैं हूँ वैसा ही मेरा मन है। मन तो सचमुच जैसा कहता है, वैसा ही है। मैंने उसे सत्ता दे रखी है, नहीं तो उस बेचारे की सत्ता ही कहाँ है? वह तो सचमुच नौकर ही है; नौकर नहीं, किन्तु औजार है! औजार में अपनी सत्ता तो कुछ होती नहीं, औजारवाला अपनी मर्जी के अनुसार उसको उपयोग में ला सकता है। यही बात मनके सम्बन्ध में है। प्रायः सब कार्य मेरे इच्छानुसार ही करता है, किसी कार्य को यदि में ही न कराऊँ तो बात दूसरी है। इससे सिद्ध होता है कि मन मेरा औजार है, जड़ है और मैं स्वतन्त्र कर्ता, चेतन हूँ। मैं मनके अधीन नहीं हूँ, मन मेरे अधीन है।
पाठक ! इतना जानने से साधक सुखी हुआ, आयु- पर्यन्त मन से इच्छानुसार कार्य लेता रहा और अन्त में उसको छोड़कर स्वस्वरूप में स्थित होकर हमेशा के लिये जन्म- मरण रूप संसार से मुक्त होकर वैष्णव-पद को प्राप्त हुआ। अज्ञान से सब दुःख है; मनको मन समझते ही मन नमन करने लगता है, स्वाधीन हो जाता है। मनका स्वरूप न समझने से मन चालीस सेर का हो गया है, जानने पर छटाँक का भी नहीं निकलता। न तोला, न माशा, न रत्ती; फूँकमात्र से उड़ जाय, इतना हलका हो जाता है! सच पूछो तो फूँक का भी काम नहीं है। न हुआ ही हौआ है। बिना सिर-पैर का भूत है। जहाँ पहचान लिया, भूः स्वाहा हो जाता है, स्वयम्भू ही शेष रह जाता है। यह गुरुमन्त्र है, इसको मत भूलो!
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