श्री ज्ञानेन्द्रनाथ-
गुरु गोरक्षनाथजी का एक हस्त-लिखित --- "पंचमात्रा योग " ; है। इसपर कुछ विवेचन लिखा जा रहा है; मेरे माध्यम से । गुरुदेव श्रीगोरक्षनाथ शिवजी का उल्लेख इस प्रकार करते है -
द्वादश मंदिराणि ; शिव-स्थानानि; तेशूत्तम ब्रह्माअनुभव: |
द्वादशापि तान्येक समिनिश्च लितानी यस्य भवेयु: स योगी ; शिरसा छादनं वहति |
नाथसंप्रदाय के आद्य प्रवर्तक स्वयं आदिनाथजी है। शिव है। उसी संदर्भमे गोरक्षनाथजी उन्नतीका मार्ग कथन करते है। १२ मंदिर शिव-स्थान है; ऐसा बताते है। विश्व विख्यात १२ ज्योतिर्लिंगो का ही यह उल्लेख है। इन स्थानो मे साधक दिव्य अनुभूती (ब्रह्माअनुभव)को प्राप्त होते है। इन स्थानो मे से यदि एक मे भी चित्त स्थिर हो जाय; तो साधक योगी-पद प्राप्त करते है। ऐसे साधक ; "सिर से छादन वहन करते है" ।
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कुछ विवेचन यहां आवश्यक है।
शिव ; संहार तत्व का दैवत।
संहारका अर्थ हिंसा नही ; "लय" है। संहारका अर्थ विनाश भी नही है। "लय "ही है।
शिव-ध्यान करते करते साधक स्वयं शिवमय होते है। यही तो साधकों का ऐश्वऱ्य है। उसी को छादन याने "छत्र-चामर" कहा है। अर्थात शिवोपासक छत्रचामरवाला राजा होते है।
यहां पर कुछ बुद्धिमान यह प्रश्न अवश्य करेगे कि; ज्योतिर्लिंग स्थान ही क्यों? अन्य भी तो कई शिव मंदिर है। इसका अनुभूतीजन्य सूक्ष्म उत्तर अवश्य दिया जा सकता है। तथापि स्थूल मे से ही अभी देखते है।
इन ज्योतिर्लिंगो की भौगोलिक स्थिती पर एक नजर डालते है। कितने अक्षांश-रेखांशो पर ये सभी स्थान स्थित है? आपको आश्चर्य होगा कि; इनही अक्षांश-रेखांशो पर ; ऊर्जा अर्थात शक्ति प्रमाण में प्रक्षेपित होती रहती है। उसका लाभ साधकों को मिलता है
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एक और रहस्य अब देखते है। ज्योतिर्लिंग-स्थानो मे से प्रक्षेपित होने वाली ऊर्जा; वहां के भू-गर्भ मे से आती रहती है --जो सर्वसामान्यो को व भक्तो को सहन हो नही सकती। अब इसी के लिए जो दैवी नियोजन है; उस ओर एक नजर । प्रत्येक ज्योतिर्लिंग के सभी बाजूओ में गणेशजी के ६-६ जागृत स्थान है। गणपती याने मस्तक को शांत रखने वाला तत्व ।
पुराण ; ऐसे १०८ स्थानो का वर्णन करते है। साधकों को ऊर्जा (वास्तव मे यहां का मूल शब्द है "चैतन्य"। ) मिलती है ; वह शांत रुप से। चैतन्य हमेशा; "बोधात्मक "ही होता है। ऐसा चैतन्य शांति के साथ मिलना -- दोनो कार्य ज्योतिर्लिंगो के स्थानो पर प्रभावशाली सिद्ध होते है। अद्भुत है ना स्थूल विवेचन भी? सूक्ष्म तो किया ही नही है।
अब शिवलिंग का आकार भी देखे। शक्ति का सर्वाधिक प्रक्षेपण इसी आकार से संभव होता है- ऐसा वैज्ञानिक बताते है। अणु-ऊर्जा केंद्रो मे ; अणु-भट्टी ; शिवलिंगकार ही होती है। और क्या प्रमाण (proof) चाहिये शिवतत्व के सामर्थ्य का?
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कुछ विद्वान अब पुछ सकते है कि; "शिव-ध्यान "ही क्यों? इसका समाधान ज्ञानयोग मे मिलता है। समस्त देवी-देवता ओंकार-स्वरूप ही है। सभी मे एकही शक्ति- जिसे चितशक्ती कहते है-कार्यरत रहती है। अतः उपसना का प्रतीक कोई भी हो ; कोई फरक नही पडता। ज्योतिर्लिंग स्थान मे ; अपने इष्ट का ध्यान भी वोही फल देता है। इसकी प्रक्रिया कुछ कुछ इस प्रकार से होती है।
इष्ट-दैवत के ध्यान के शिवलिंग मे से प्रक्षेपित होने वाली ऊर्जा (चैतन्य); साधक के मस्तक मे से ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करती है ; और उसे अपने इष्ट की अनुभूती होती है। यहां पर गुरु गोरक्षनाथजी ; अप्रत्यक्षता से स्थान-महात्म्य भी ध्वनित (सूचित) करते है।
शिवलिंग-पूजन विषयक प्रश्न का उत्तर - किसी भी चीज की निर्मिति के लिये कम से कमी दो चीजों की आवश्यकता रहती है। इस विश्व ब्रह्माङ्की निर्मिती हेतु दो तत्व कार्यान्वित होते है। प्राण और आकाश। ये सांख्यमत है। आगे चलकर इनही को ब्रह्म-माया; प्रकृती-पुरुष; शिव-शक्ति; लिंग-योनी आदि नामो से प्रस्तुत हुआ। अब शिव व शक्ति के सम्बन्ध में देखेंगे। ये तत्व तो है निराकार। उसका सगुण रूप है शिवलिंग। शिवतत्त्व अग्नि तत्व ही है। यही ऊर्जा है। इसे संहारतत्व भी कहा गया। ऊर्जा को "शक्ति"नाम दिया गया। चूंकी ये अग्नितत्व है; ये निकलता है भू-गर्भ से। उसे शांत करनेके लिये शिवलिंग पर अखंड जलधारा होती है। तत्व निराकार तो है ही। उसका सगुण रूप है शिवलिंग। जब भू-गर्भ से ऊर्जा निकलती है; उसका वेग (speed) अति-प्रचंड होता है। इस दुनिया में सबसे अधिक ऊर्जा इसी आकार से निकलती है यह बात वैज्ञानिको ने सिद्ध की है। यदि आप अणु ऊर्जा केंद्र (atomic power station)देखेंगे तो मालूम होगा की अणु भट्टी का आकार शिवलिंग के समान ही होना अनिवार्य रहता है। और क्या प्रमाण चाहिये शिवलिंग की सामर्थ्यका? महत्ता का? मात्र "लिंग" या "योनी" ये दो शब्द कुछ व्यक्तियो को उचित नही लगते। एक बात गौर से जान ले की; ये लिंग व योनी शब्द स्थूल अर्थ से नही है। ये विश्व - विषव-ब्रह्माङ निर्मिती के दो तत्व है। तंत्वो मे गंदापन कैसे आ सक्ता है? अस्तु।।*
एक और संदर्भ (reference) देखेंगे। शिवलिंग के विषय मे कुछ विद्वनों की भ्रामक धारणा यह भी है कि शिवलिंग मनुष्यमात्र के लिंग व योनि का प्रतीक है। यह हास्यास्पद है।यह तो विश्व निर्मिति के तत्व है। शिवलिंग की उपपत्ती हमे मिलती है अथर्व-वेद के यूपस्कम्भ (यूपस्तंभ)के एकादश पटल में। अग्नि तत्व को सगुण रुप मे प्रस्तुत करने के बाद उसी मे शिवजी की जटा;निलवर्ण; नंदी; गंगा आदि का उल्लेख है। इस प्रकार से शिवपिंडी इनही रुपो मे हम लोग स्वीकार करने लगे है; जो अद्भुत सामर्थ्यशाली प्रतीक है--प्राण और आकाश इन दो तत्वों का यह विवेचन अति-संक्षिप्त रूपमें दिया है।
अब ऐसे प्रतीक जिससे त्वरित लाभान्वित हम हो सकते है; उसका पूजन करे या नही? यह बात खुद ही पक्की करे। मैने स्वयं शिव; शक्ति; तंत्र; आदि पर ३-४ ग्रन्थ होंगे इतना लिखा है।
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